Sunday, November 29, 2015

हम इतने भी इनटोलरेंट भी नहीं है की साईं बाबा की समाधी या मजार पे न जा सकें .

हम इतने भी इनटोलरेंट भी नहीं है की साईं बाबा की समाधी या मजार पे न जा सकें .


मुझे इसमें रत्तीभर भी शक़ नहीं है की साईं बाबा मुस्लिम फ़कीर रहे होंगे , उनके चित्रों में उनकी वेशभूषा ,रहन सहन आसपास का परिवेश और उनका सूत्र वाक्य " सबका मालिक एक " उन्हें वही सिद्द। करता है ,
उनके मुस्लिम होने की पूरी सम्भावना के बाबजूद हिन्दुओ द्वारा उनकी मान्यता हिन्दू धर्म की विशेषताओ में से एक है .
बचपन में जब धर्म कभी ज्यादा बहस में नही था तब भी मेरी दादी ताजिये के लिए रेबडी का प्रसाद के साथ बच्चो को ले जाती थी और यह भी की ताजिये के नीचे से बच्चो को निकलना शुभ मानते थे.
मुझे यह भी अच्छी तरह याद है की मजारों का सम्मान मन्दिर जैसा भले न हो लेकिन उससे कम भी नहीं था .
ऐसे अनुभव बहुत सामान्य ही है आपको भी होंगे .

एसी ही मिली जुली कल्चर का परिणाम है साईं बाबा की समाधी.
फकीरों , साधुओ और समाज सुधारक हमेशा समाज में सम्मान के पात्र रहे है ,खासकर महाराष्ट्र में यो ये परम्परा बहुत मजबूत रही है .

वो अलग बात है की साईं बाबा की जबरजस्त मार्केटिंग की गई इसमें कोई शक नही है .
में ,कल मूर्ती तक तो नही जा सका क्यों की लम्बी लाइन और बहुत देर तक खड़े रहने में मुश्किल होने के कारण मंदिर के परिसर में दो घंटे बैठा और मोटे तरीके से अवलोकन किया।.

परिसर में ही अब्दुल्ला बाबा और नाना वली की दो मज़ार है ,अलग अलग मंडप में पूुरे सम्मान और इस्लामिक तरीके से सज्जित है .यहाँ भी खूब भीड़ होती है लोग मजार को ढोक देते है फूल और ठीक ठाक पैसे भी चढाते भी है . मेने अंदाज लगाया तो 10 ,15 हजार रुपये तो रोज आ ही जाते होंगे .

एक खास बात और कि यहाँ दान पेटियां नही होती हुंडी पेटी (बड़े बॉक्स ) होते है , हुंडी का मतलब होता है की जो तुम आज दे रहे हो वो मांगने पे हुंडी ( लिखित डॉक्यूमेंट ) दिखाने पे मिल जायेगा . वो अलग बात है की किसी को कभी मोका मिलेगा नहीं .
ज्यादातर मुस्लिम लोग यहाँ नही आते , कारण बहुत से हो सकते है जिसमें एक साईं बाबा की मूर्ति की पूजा का हिन्दू करण हो सकता है ,नहीं तो हज़रत निजामुद्दीन से लेके अजमेर शरीफ में में भी लगभग ऐसा ही माहोल है , मूर्ति पूजा भले ही न कहा जाये लेकिन उनकी मज़ार की पूजा जैसी ही होती है ,में दोनों जगह गया हूँ एक सा ही माहोल है .
मेने कल दो मुस्लिम बुरकाधारी बहनों को उनके पतियों के साथ देखा , वे अंदर गये की नही ये तो नही मालूम लेकिन परिसर में दोनों मज़ार और संग्रहालय में जरुर देखा ., में उनसे ज्यादा बात तो कर नही पाया लेकिन मेंने उनसे पानी पीने को जरूर माँगा ,सोचा इस बहाने कुछ बात हो सकेगी ,उन्होंने बताया की वे साल में दो बार बाबा के दरबार में आते है , उनकी सब मनोकामना बाबा जरुर पूरी करते है । उन्होंने यह भी कहा की हमारे जात के लोग ज्यादा नही आते , फिर भी हमारे गाव से बहुत लोग हर साल आते है , उन्हें बड़ी ख़ुशी थी की बाबा मुस्लिम थे और उन्हें हिन्दू भी मानते है .

बाबा ताजुदीन (नागपुर) वाले बाबा के साथ समकालीन संतो की तस्वीर बड़े एहतराम के साथ लगी हुई है .
एक बात और गौर से देखी की भक्तो में भगवा दुपट्टे या कुर्ते जाकेट आदि न के बराबर थी , मुझे कही भी कट्टरता का माहोल नही दिखा , मेरे साथ बेटा बहु और बेटी थे (इनके दबाब या आग्रह पे ही में जा सका क्यों की ये लोग पुणे में ही रहते है ) में इन तीनो की मनोदशा अच्छी तरह से जान सका हूँ की ये तीनो बहुत उदार धर्म निरपेक्ष और टोलरेंट है .
तो यह रही मेरी साईं बाबा की मज़ार या समाधी की यात्रा.

[लाखन सिंह ]

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