बुर्का उतार कर वो बन गई रैपर
इस सिरीज़ में बात उन महिलाओं जो अपनी कला का जौहर दिखा सुर-ताल-संगीत की दुनिया की सरताज बन गई हैं.
भंवरी देवी
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भंवरी देवी राजस्थानी लोक संगीत की मशहूर गायिका हैं.
वह राजस्थानी लोकगीतों के अलावा देवी-देवताओं के गीत जैसे पाबूजी, बालाजी, श्यामजी, रणचंद्रजी, कबीर, धर्मीदासजी, भनिनाथ और अमृतनाथजी गाती हैं.
इसके अलावा भंवरी देवी जगदेव कंकाली, शरण कुमार, गोपी चंद्र, भरथरी, गोगाजी और सत्यवान सावित्री गीत जैसी वीर कथाएं भी बखूबी गाती हैं.
भंवरी की 14 साल की उम्र में ही शादी हो गई. फिर पति के साथ ही गायन के प्रति उनकी दिलचस्पी बढ़ी.
2004 में पति की मौत के बाद भंवरी ने अपने नौ बच्चों के परिवार को पालने के लिए संगीत को ही ज़रिया बना लिया.
45 साल की भंवरी को बड़ी पहचान 2009 के पुष्कर मेले के दौरान मिली.
मधु भट्ट तैलंग
मधु भट्ट तैलंग शास्त्रीय संगीत ध्रुपद गाने वालीं भारत की चुनिंदा महिला गायकों में से एक हैं और पिछले 40 साल से इस कला से जुड़ी रही हैं.
उन्होंने ये गीत-संगीत अपने स्वर्गीय पिता लक्ष्मण भट्ट तैलंग के सानिध्य में सीखा और अब कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सम्मानों से नवाज़ी गई हैं.
गायिका होने के अलावा मधु एक संगीतकार भी हैं. उन्होंने कई भजन, गीत, ध्रुपद, धमर, ख्याल और तराने रचे भी हैं.
इसके अलावा उन्होंने ध्रुपद घराने पर दो किताबें भी तैयार की हैं. उनकी किताब ‘ध्रुपद गायन परंपरा’ पर उन्हें जवाहर कला केंद्र, जयपुर से सम्मान मिल चुका है.
डॉ. मधु 1998 से राजस्थान विश्वविद्यालय, जोधपुर की संगीत विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर भी हैं.
सुल्ताना नूरां, ज्योति नूरां
पंजाबी सूफ़ी गायिका सुल्ताना और ज्योति, ‘नूरां सिस्टर्स’ के नाम से मशहूर हैं. बॉलीवुड में ‘टुंग टुंग’ गाना गाकर लोकप्रिय हुईं ये गायिका बहनें संगीतज्ञ परिवार से आती हैं.
बहुत कम उम्र में उनके पिता उस्ताद गुलशन कुमान ने उन्हें सूफ़ी संगीत की तलीम दी.
‘कोक स्टूडियो एम टीवी’ में दोनों बहनों ने अपनी दमदार और प्रभावी आवाज़ में पारंपरिक सूफ़ी गीत ‘अल्लाह हू’ गाया, जिसे काफी सराहना मिली.
‘टुंग टुंग’ के अलावा दोनों ने जिंद मेरिए, पटाका गुड्डी, घन्नी बावरी, जय देवा जैसे कई गीत गाए हैं.
बॉलीवुड के अलावा दोनों क्षेत्रीय फ़िल्मों के लिए भी गा रही हैं. सुल्ताना और ज्योति ने 2015 में कई जाने माने गायकों के साथ राष्ट्रीय गान भी गाया है.
पार्वती बाउल
पार्वती बाउल पश्चिम बंगाल के पारंपरिक संगीत ‘बाउल’ की मशहूर गायिका हैं.
बाउल सूफियाना संगीत की तरह का संगीत है जिसमें आम जीवन को त्यागकर साधक की साधना में लीन हो जाना होता है.
पार्वती बाउल भी घर परिवार को त्याग कर भक्ति संगीत की इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं.
1997 में पार्वती बाउल ने रवि गोपालन नायर के साथ मिलकर ‘एकतारा बाउल संगीत कालारी’ की स्थापना की है. यह दरअसल, बाउल और केरल के परंपरागत अभिनय कालारी का मिश्रण है.
पार्वती बाउल इस संगीत का मंचन साल 2000 से कर रही हैं. भारत के अलावा उनके कई कार्यक्रम विदेश में भी हो चुके हैं.
संगीत के अलावा पार्वती, पेंटिंग, प्रिंट मेकिंग, नाटक, नृत्य और तस्वीरों के साथ किस्सागोई की विधा में भी महारत रखती हैं.
(तस्वीर: बाहर- रवि गोपालन, अंदर- इन्नी सिंह)
शबनम विरमानी
गुजरात में हुए 2002 के दंगे से बेहद प्रभावित होने की वजह से शबनम विरमानी ने पहचान, धर्म, धर्मनिरपेक्षता, नश्वरता और अध्यात्मिकता के विचार को नए तरह से समझना शुरू किया.
रास्ता अपनाया कबीर और भक्ति, सूफी और बाउल शायरों का. इस सफर ने उनका जीवन बदल दिया, वो खुद गायिका बन गईं और नींव रखी ‘कबीर प्रोजेक्ट’ की.
बैंगलोर के ‘सृष्टि इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट, डिज़ाइन एंड टेकनॉलॉजी’ से काम रह कबीर प्रोजेक्ट की टीम ने संगीत और कविताओं के साथ काम कर कई पुरस्कृत डाक्यूमेंट्री फ़िल्में, ऑडियो सीडी तैयार किए हैं और कई किताबों का अनुवाद भी किया है.
कबीर प्रोजेक्ट इस सारे काम को उत्सवों, कार्यशालाओं और यात्राओं के ज़रिए प्रदर्शित करता है.
जल्द ही वो इसे ‘अजब शहर’ के नाम से इंटरनेट पर बन रही आर्काइव के ज़रिए भी शेयर करने वाले हैं.
(तस्वीर: बाहर- स्मृति चांचानी, अंदर- रेएमर ऑट)
शीतल साठे
शीतल साठे पुणे की लोकगीत गायिका, कवियत्री और दलित आंदोलन से जुड़ी कार्यकर्ता हैं. उनकी पहचान ‘कबीर कला मंच’ के मुख्य कलाकार की भी है.
कबीर कला मंच, कलाकारों की मंडली है जो गीतों और नाटकों के माध्यम से दलित उत्पीड़न और सामाजिक भेदभाव के मुद्दे उठाते हैं. हालांकि कई बार इनके गीतों की भाषा बेहद उग्र होती है.
इनके कलाकारों पर नक्सली होने के आरोप लगते रहे हैं. मई, 2011 में आतंकवाद विरोधी दस्ते ने साठे पर भी नक्सलवादियों को मदद करने का आरोप दर्ज कराया था. इसके बाद शीतल अपने पति सचिन माली के साथ अंडरग्राउंड हो गईं.
2 अप्रैल, 2013 को गर्भवती शीतल ने पति के साथ आत्मसमर्पण किया. बाद में उन्हें मुंबई उच्च न्यायालय से ज़मानत मिल गई.
स्नेहा ख़ानवलकर
28 साल की स्नेहा ख़ानवलकर ने संगीतकार के तौर पर बॉलीवुड में भारतीय लोक धुनों को स्थापित करने में अहम भूमिका अदा की है.
मध्य प्रदेश के इंदौर में पली बढ़ीं स्नेहा ने ग्वालियर घराने से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की तालीम ली.
करियर की शुरुआत उन्होंने राम गोपाल वर्मा की ‘गो’ से की थी. उसके बाद एकता कपूर की फ़िल्म ‘लव, सेक्स और धोखा’ को संगीत दिया.
सोफिया ने 2009 में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित फ़िल्म ‘ओए लकी, लकी ओए’ का संगीत देकर बॉलीवुड में अपनी ख़ास जगह बनाई.
अनुराग कश्यप की फ़िल्म ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ और ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर 2’ के संगीत से भी स्नेहा ने सबको खासा प्रभावित किया.
स्नेहा एमटीवी का एक शो भी कर चुकी हैं.
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सोफिया अशरफ़
सोफिया अशरफ़ की इस तस्वीर को देखकर अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि इन्होंने अपने जीवन के 22 साल बुर्के में बिताया है.
परंपरागत मुस्लिम परिवार की सोफिया एक इस्लामिक समूह के साथ गाती थीं लेकिन एक दिन उन्होंने बुर्का उतार दिया.
शहर बदल लिया और परंपराओं को छोड़कर जैसा दिल चाह रहा था, वैसा ही करने लगीं. स्क्रिप्ट राइटर की नौकरी भी मिल गई और रैपर के तौर पर पहचान भी बनने लगी.
कामयाब रैपर होने के बाद भी सोफिया को खुद को पहले लेखक ही मानती हैं. उन्होंने ए.आर. रहमान के लिए भी रैप लिखा है.
लेकिन इंटरनेट की दुनिया में सोफिया अपने 'कोडइकेनल वोंट' रैप से काफी मशहूर हैं जिसमें उन्होंने कोडइकेनल मे मल्टीनेश्नल कंपनी, ‘यूनीलीवर’ द्वारा लगाए जा रहे मरक्यूरी प्लांट का विरोध किया गया है.
(तस्वीर: बाहर- अलोक राजू, अंदर- अर्जुन चरंजीवा)
ज़िला ख़ान
सूफ़ी और भक्ति संगीत की परंपरा में ज़िला ख़ान, देश की सबसे प्रतिष्ठित गायिकाओं में एक हैं.
मशहूर सितार वादक उस्ताद विलायत ख़ान की बेटी, परिवार की छठी पीढ़ी के तौर पर संगीत में रची बसी हैं.
उनकी मधुर आवाज़ के चलते ही दुनिया भर में उनके कंसर्ट आयोजित होते रहते हैं.
भारत के प्रधानमंत्री और मुख्य न्यायधीश भी उन्हें सम्मानित कर चुके हैं.
इसके अलावा वह हमेशा लैंगिक समानता के लिए प्रतिबद्ध रही हैं. हर साल वह महिला कालाकारों को ‘उस्ताद मां’ खिताब से सम्मानित करती हैं.
ज़िला ख़ान को दुनिया भर में वक्ता के तौर पर भी आमंत्रित किया जाता है. हाल ही में गौहर ज़ान के जीवन पर बने पृथ्वी थिएटर के नाटक ‘गौहर जान’ में ज़िला ख़ान ने अभिनय भी किया है.
जब वैशाली भालेराव हल चलाती हैं
- 5 घंटे पहले
तपती धूप, बरसात में घंटों खेत में काम करती औरतें भारत के किसी भी कोने में दिख जाती हैं. भारत में 80 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं खेतीबाड़ी से जुड़ी हैं लेकिन किसान कहते ही जेहन में पुरुष की ही छवि उभरती है.
पर तस्वीर की पहचान अब बदल रही है. वैशाली जयवंत भालेराव, रिंपी कुमारी और करमजीत अपने गांव में अनोखी हैं क्योंकि ये अपने गांव की इकलौती महिला किसान हैं.
वैशाली 40 साल की विधवा हैं- दो नौजवान बच्चे हैं. वर्धा के पेठ गांव में पांच एकड़ खेत हैं जिसमें वे कपास दलहन और सोयाबीन उगाती हैं.
दोपहर की धूप में- खेतों की मेड़ पर खामोशी से चलते हुए वे पत्तों को प्यार से सहलाती हैं, मिट्टी का मुआयना करती हैं.
मैं हैरान हूं उनके आत्मविश्वास और खेती के बारे में उनकी समझ देखकर. खेती की बारीकियां वे ऐसे समझाती हैं जैसे शुरू से बस यही किया हो.
पर ये सब कुछ नया है- 20 साल की उम्र में जब ब्याह कर वैशाली आई थीं तो ऐसी भूमिका की कल्पना भी नहीं की थी.
लेकिन छह साल पहले उनके पति ने फसल बर्बादी और बढ़ते क़र्ज़ के कारण आत्महत्या कर ली.
भारत में 18 प्रतिशत ग्रामीण परिवार की मुखिया अब औरतें हैं- वैशाली का परिवार भी उनमें से एक है.
ये ज़्यादातर समय तब होता है जब या तो पुरुष पलायन कर जाते हैं या फिर क़र्ज़ के बोझ से अपनी जान दे देते हैं.
वैशाली ने तय किया पति की आत्महत्या उनके बच्चों के भविष्य की हत्या नहीं कर सकती- वे जिएंगे, लड़ेंगे और जीतेंगे.
वैशाली कहती हैं, "मैं 33-34 साल की थी जब ये दुर्घटना हुई. कोई नहीं चाहता- ज़िंदगी की सारी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाना- खेती का ख्याल करो- घर देखो- लेकिन मुश्किल समय था. मुझे करना ही पड़ा. मैंने खुद से कहा- जो मुझे करना चाहिए वह मुझे करना ही होगा."
जनगणना के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक़ पिछले दो दशकों में क़र्ज़ के बोझ और बर्बाद फसल की मार के कारण कम से कम तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है.
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि यह संख्या कम करके आंकी गई है क्योंकि हर मामला पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज नहीं होता है.
वैशाली के पति के गुज़रने के बाद उसे ज़मीन का मालिकाना हक़ मिला.
क़ानून की नज़र में ज़मीन पर औरतों का बराबर का हक़ है, लेकिन आमतौर पर ऐसा होता नहीं है.
वैशाली ने उस एक मौक़े को हाथ से नहीं गंवाया. उसके पास मातम मनाने का भी वक़्त नहीं था.
कैसा लगता है इकलौती महिला किसान होना - मेरे इस सवाल पर चेहरा दमक उठता है वैशाली का. वह कहती हैं, "बहुत अच्छा. वीरांगना की तरह ..पहले तो मेरे खेत के मज़दूर ही मुझे किसी क़ाबिल नहीं समझते थे कि ये औरत है क्या खेती करेगी- कैसे बीज का चुनाव करेगी लेकिन फिर धीरे-धीरे मुझे काम आ गया और उनको मुझ पर भरोसा."
गांव में वैशाली की हिम्मत और सूझबूझ की तारीफ़ करते कई मिल जाते हैं. और ये कहते भी कि भई औरतों को खेत का हक़ मिलना चाहिए- वैशाली ने तो अपने पति से बेहतर किसानी की है!
वैशाली के पास खेती के अलावा कोई चारा नहीं था लेकिन सैंकड़ों मील दूर राजस्थान के कोटा ज़िले के एक गांव में दो ग़ैर शादीशुदा बहनों ने अपनी इच्छा से खेती शुरू की है.
32 साल की रिंपी और 26 साल की करमजीत जब मोटरसाइकिल पर सवार मेन रोड पर मुझे लेने आईं तो मैं थोड़ा हैरान हुई.
छोटी बहन करमजीत चुहल कर कहती हैं, "आप अकेले हमारे घर तो पहुँच नहीं पातीं तो हम आ गए आपको लेने." ड्राइवर की सीट पर वही बैठी हैं.
रिंपी बड़ी हैं, पूरे घर की ज़िम्मेदारी उनके ही कंधों पर है. वे आईटी सेक्टर में काम करती थीं, जिसे छोड़ खेती करना उन्होंने तय किया. छोटी बहन करमजीत उनके साथ लगी रहती हैं.
रिंपी कहती हैं, "सात साल पहले जब मेरे पिताजी गुज़र गए तो मैंने तय किया मैं खेती करूंगी. वैसे तो मेरे पास अच्छी नौकरी थी, लेकिन हमारे पास काफ़ी ज़मीन है. मेरे बड़े भाई हैं, लेकिन उन्हें इस काम में उतनी रुचि नहीं है. मेरे फ़ैसले में मेरे भाई औरे मेरी मां ने साथ दिया. बाकियों पर तो जैसे पहाड़ टूट पड़ा पर मुझे उसकी परवाह नहीं है."
32 एकड़ खेत में खुद ट्रैक्टर चलाती, मज़दूरों को काम बताती, हिसाब-किताब करती, एक-एक फ़ैसले को सूझबूझ से लेती रिंपी को देखकर अच्छा लगा.
उनकी उम्र की गांव की बाकी लड़कियां कब का घर बसा चुकी हैं. अपने आंवले, गेहूं और सोयाबीन के खेतों में टलहते हुए रिंपी ने मुझसे कहा, "लड़कियों से और क्या उम्मीद करते हैं लोग- शादी करो, बच्चे करो, घर में रहो. मैं कुछ अलग करना चाहती हूं. शादी मेरे लिए बंधन है. मैं सचमुच अपनी खेती को आगे बढ़ाना चाहती हूं- बहुत आज़ादी से उड़ना चाहती हूं."
रिंपी की आज़ादी की ख़्वाहिश उस गांव में बहुत पसंद नहीं की जाती.
80 साल के सरदार सिंह कहते हैं, "मुझे नहीं लगता कि ये दो बहनें जो कर रही हैं वह ठीक है. उन्हें सही समय में शादी कर अपना घर बसाना चाहिए. खेती भाई करें और बाकी ज़मीन बयाने पर लगा दें. हम अपनी औरतों को बाहर नहीं जाने देते- खेती तो दूर की बात है."
रिंपी को ऐसी नाराज़गी की आदत हो गई है. उन्हें इससे लड़ने की ताक़त अपनी मां सुखदेव कौर से मिलती है.
गुलाबी सलवार कमीज और दुपट्टे से सर को ढके सुखदेव कौर बेटियों के नाम पर हुमस कर कहती हैं, "लड़कियों को आज़ादी चाहिए- उड़ना तो वो सीख ही लेती हैं. बस हम उनके पंख न कुतरें. मेरी बेटियों ने दिखा दिया वे बेटों से बढ़कर हैं. मुझे समाज की परवाह नहीं है."
रिंपी अपने पिता से बेहतर कमाई कर रही है- नए खेत खरीद रही हैं और आधुनिक तरीक़े से खेती करने में विश्वास रखती हैं.
खेती के तौर-तरीक़े की अब उनको आदत हो गई है पर एक जगह जाना उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता- शहर की मंडी जहां वे अपना अनाज बेचती हैं.
हज़ारों टन बोरियों के बीच रिंपी के साथ खड़े होने पर मुझे इसकी वजह का अंदाज़ा हो गया.
रिंपी कहती हैं, ''अब देखिए यहां मेरे अलावा कोई औरत नहीं है. इसीलिए शायद वे इतना घूरते हैं कि मैं यहां क्या कर रही हूं. मैं इसीलिए लड़कियों के कपड़े पहनकर नहीं आती हूं- पैंट कमीज़ में आती हूं ताकि लोग मुझे ज़्यादा न घूरें. लड़कों के कपड़े में लोग मुझे गंभीरता से लेते हैं."
मुझे पता है रिंपी, वैशाली, करमजीत और इनकी तरह की दूसरी औरतों का सफ़र आसान नहीं है, लेकिन इन्होंने तय किया है कि अपने रास्ते तो ये खुद तय करेंगी और हारेंगी नहीं.
आज़ाद सशक्त और फ़ैसले लेने का हौसला रखने वाली ये हैं ज़मीन की औरतें- रिंपी और करमजीत ने खेती करने का फैसला लिया - वे धनी परिवार से हैं - पढ़ी-लिखी हैं, लेकिन वैशाली के पास ऐसे अवसर नहीं थे. पर वो चाहती हैं अपनी बेटी को ये सब कुछ मुहैया कराना ताकि वे अपने फ़ैसले खुद ले. अधिकार के साथ जिए.
ये सभी औरतें अपने अंदाज़ में उस परिभाषा का विस्तार कर रही हैं जो गढ़ रही है आधुनिक भारत में ज़मीन से जुड़ी औरतों के नए मायने.
(बीबीसी हिन्दी
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