भारतीय इस्लाम को बचाना क्यों ज़रूरी है?
- 6 घंटे पहले
ऐसे समय जब लगने लगा लगा था कि असहिष्णुता का प्रश्न धीरे-धीरे बैकग्राउंड में जा रहा है, फिल्म स्टार आमिर ख़ान के बयान से यह बहस दोबारा तेज़ हो गई है.
आमिर ने असहिष्णुता पर अपना बयान 'अंतरराष्ट्रीय आंतकवाद और इस्लाम' के प्रसंग में मौजूदा स्थिति पर दिया है.
पेरिस और माली के चरमपंथी नरसंहार के बाद भारत ही नहीं, कई यूरोपीय देशों में भी मुसलमानों और इस्लाम की भूमिका पर बहस छिड़ी हुई है.
इस्लाम के नाम पर इस्लामिक स्टेट, अलक़ायदा, बोको हराम और उन जैसे कई अंतरराष्ट्रीय चरमपंथी संगठनों का उदय और उनके माध्यम से दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों में किए जाने वाले नरसंहार और हत्याओं से भारत के मुसलमान घबराए हुए हैं.
भारत के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा है जब मुसलमानों के विभिन्न पंथों और समुदायों के एक हज़ार से अधिक धार्मिक नेताओं और विद्वानों ने आईएस के ख़िलाफ़ फ़तवे जारी किए हैं.
इन फ़तवों में कहा गया है, ''इस्लाम हर तरह की हिंसा के ख़िलाफ़ है जबकि आईएस नरसंहार का दोषी है."
ये फ़तवे कई महीनों में पूरे देश से इकठ्ठा किए गए हैं. 15 जिल्दों में बंधे ये फ़तवे संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून और दुनिया के अन्य नेताओं को भेजे गए हैं.
इन नेताओं के नाम लिखे एक पत्र में कहा गया है, "इस्लाम हर रूप में चरमपंथ के विरूद्ध है, चाहे उसका उद्देश्य कुछ भी हो."
इसमें कहा गया है कि ये फ़तवे उन्हें इस उद्देश्य से भेजे जा रहे हैं ताकि उन्हें बताया जाए कि भारत के 16 करोड़ मुसलमान हिंसा में विश्वास नहीं रखते हैं.
भारत के मुसलमान इस समय दोहरे दबाव से गुज़र रहे हैं. एक तरफ़ वे लेबनान, पेरिस और माली जैसी चरमपंथी घटनाओं और आईएस, बोको हराम और अल-शबाब जैसे सुन्नी चरमपंथी संगठनों के उदय से धार्मिक तौर पर टूटे हुए और दुखी महसूस कर रहे हैं तो दूसरी ओर वह देश के अंदर हिंदू कट्टरवाद के निशाने पर हैं.
देश में हिंदू विचारधारा वाले संगठनों ने मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत का एक व्यवस्थित आंदोलन चला रखा है. टीवी चैनलों, अख़बारों, सोशल मीडिया पर इस्लाम विरोधी और मुसलमान विरोधी भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं.
नफ़रत फैलाने के लिए सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर ब्रिटेन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया और अमरीका में बसे मुसलमानों के हवाले से तरह-तरह की घृणित कहानियां फैलाई जा रही हैं.
भारत ख़ुद एक लंबे समय तक चरमपंथ से पीड़ित रहा है. पूर्वोत्तर के राज्यों में दशकों तक ख़ूनी आंदोलन चलते रहे हैं. श्रीलंकाई चरमपंथी संगठन लिट्टे भी भारत में ही पैदा हुआ, पंजाब में कई वर्षों तक चरमपंथ का ज़ोर रहा है.
कश्मीर में 30 वर्ष तक स्थानीय और बाहरी संगठन ख़ूनी आंदोलन में शामिल रहे हैं.
भारत के मुसलमानों और उनके धार्मिक नेताओं ने किसी भी स्तर पर हिंसा को स्वीकार नहीं किया.
वह देश के दूसरे धर्मों ही की तरह मेलजोल के साथ जीने में विश्वास रखते हैं.
कश्मीर में एक दर्जन से ज़्यादा देशों के मुसलमान जिहाद के नाम पर लड़ते हुए मारे गए. लेकिन 30 साल तक चले इस अलगाववादी आंदोलन में भारत के अन्य हिस्सों का एक भी मुसलमान किसी भी रूप में शरीक नहीं हुआ.
सीरिया और इराक़ में आईएस के लड़ाकों में सैकड़ों यूरोपीय और हज़ारों विदेशी लड़ रहे हैं लेकिन आईएस पर नज़र रखने वाली एजेंसियों के अनुसार हज़ारों की इस कट्टरपंथी सेना में भारत का एक भी मुसलमान शामिल नहीं है.
भारत में अहिंसा की परंपरा सदियों पुरानी है. भारतीय इस्लाम की जड़ें पूर्व एशिया, ईरान और भारत की तहज़ीब नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों में आधारित हैं.
कई धर्मों और संस्कृतियों से भरा लोकतंत्र व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अवधारणाओं की गारंटी देता है.
यहाँ हर तरह के दबाव के बावजूद नागरिक अभी तक घुटन और पहचान के संकट का शिकार नहीं हुआ है.
कट्टरता के इस दौर में भी विरोध और परिवर्तन के सारे रास्ते खुले हैं. भारतीय समाज का सबसे सकारात्मक पहलू सहनशीलता और आशावाद है.
और आशा है आईएस और अलक़ायदा जैसे संगठन अपनी सारी ताक़त के साथ भी भारतीय इस्लाम को नहीं हरा सकेंगे.
(बीबीसी हिन्दी
No comments:
Post a Comment