डॉ वेद प्रकाश वैदिक की कलम से
यह हार, भाजपा की नहीं, मोदी की
बिहार में भाजपा की हार नरेंद्र मोदी की हार है। ऐसा इसलिए है कि पूरे चुनाव में भाजपा कहीं थी नहीं। सारी सभाओं, पोस्टरों, बोर्डों, अखबारों और टीवी चैनलों पर अगर कोई था तो बस नरेंद्र मोदी था। भाजपा में मोदी से कहीं बेहतर वक्ता हैं− सुषमा स्वराज की तरह और जनता से जुड़े बेहतर नेता हैं− राजनाथसिंह की तरह लेकिन कहीं आपने उनकी आवाज़ सुनी? बस मोदी और अमित शाह। इस संकरी गली में कोई तीसरा घुस ही नहीं सकता था। एक ने अपने आप को प्रधानमंत्री से प्रचारमंत्री बना लिया और दूसरे ने खुद को पार्टी अध्यक्ष सेअचार मंत्री बना लिया। बिहार में भाजपा का अचार निकल गया। मुझे 60 सीटों का अंदाज़ था। इतनी भी नहीं मिलीं। भाषणों में प्रधानमंत्री पद की गरिमा भी खटाई में पड़ती रही। प्रचारमंत्री और अचारमंत्री ने मिलकर भाजपा के लिए देश में खटाई ही खटाई फैला दी।
मोदी को यह गलतफहमी हो गई है कि वे देश के महान नेता हैं। वे भूल गए कि लोगों ने उन्हें इसलिए चुना था कि वे कांग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आ चुके थे। वे एक साफ−सुथरी सरकार चाहते थे। मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की चादर पर कोई दाग नहीं था। इसीलिए लोगों ने उनकी पीठ ठोकी और उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला। विकास का उनका नारा निरर्थक था। गुजरात में उन्होंने कोई चमत्कारी काम नहीं किया था। वे वहां राजधर्म का निर्वाह भी नहीं कर सके थे। भारत के लोगों ने उनकी 'मौत के सौदागर' की छवि को भी दरकिनार कर दिया था। ये बात अलग है कि चुनाव जीतने की चिंता में उन्होंने ही जनता को अनाप−शनाप सब्जबाग दिखा दिए थे। ये सब्जबाग ही उनको ले बैठे। शुरु−शुरु में जिन राज्यों में चुनाव हुए, उनमें आम−चुनाव की हवा का फायदा मोदी को मिला लेकिन दिल्ली के चुनाव ने साफ संकेत दे दिए थे कि हवा तेजी से निकल रही है। गाड़ी पंचर होने को है। फिर भी प्रधानमंत्रीजी ने कोई सबक नहीं लिया। वे बंडियां बदल−बदलकर बंडल मारते रहे। बिहार ने पूरी हवा ही निकाल दी।
इस तर्क में मुझे खास दम नहीं लगता कि बिहार की हार का ठीकरा मोहन भागवत के सिर फोड़ा जाए। आरक्षण का मुद्दा अखबारों और चैनलों पर उचकता रहा। आम जनता पर उसका क्या असर हुआ होगा? बिहार के गांवों के मतदाता को पता है क्या, कि मोहन भागवत कौन हैं और उनकी हैसियत क्या है? वे तो सिर्फ मोदी को देख−सुन रहे थे। मोदी बार−बार आरक्षण पर जोर दिए जा रहे थे। ये बात दूसरी है कि मोदी और शाह ने जो अन्य कई पत्ते फेंके, वे भी बेअसर हो गए। मज़हबी खाई तो पहले से हो खुदी हुई थी। शाह ने पाकिस्तान में फुलझडि़यों का फूहड़ बयान नहीं दिया होता तो भी क्या मुसलमान मोदी को वोट दे देते? हिंदुओं पर मजहब की बजाय जात भारी पड़ गई। संप्रदायवाद पर जातिवाद हावी हो गया। 2014 में जातिवाद इसलिए हवा हो गया था कि वह राष्ट्रीय चुनाव था, प्रांतीय चुनाव नहीं। उस समय मोदी की टक्कर नीतीश और लालू से नहीं, सोनिया और मनमोहन से थी। बिहार के इस चुनाव में लालू ने मोदी को लल्लू बना दिया, क्योंकि बिहार के नेताओं के खिलाफ वे एक भी बिहारी नेता खड़ा नहीं कर सके। खुद ही खड़े हो गए। मेरे बराबर कोई नहीं और मेरे अलावा कोई नहीं। न सुशील मोदी न शत्रुघ्न सिंहा, न यशवंत सिंहा। बस मैं और मेरा भाय। दोनों पीते रह गए चाय।। चाय की प्याली, 'अति पिछड़े' वाली भी घुमाई लेकिन उसे भी किसी ने नहीं छुआ।
उनका तर्क यह था कि मैं बाहरी कैसे? क्या बिहार भारत में नहीं है? और क्या भारत का नेता मैं नहीं हूं। मैं तो विश्व−नेता हूं। अमेरिकी राष्ट्रपति को मैं बराक−बराक कहकर बुलाने की हैसियत रखता हूं। मैं और शी याने चीन के राष्ट्रपति साथ−साथ झूला झूलते हैं। भला, नीतीश और लालू की मेरे आगे औकात क्या है? मैं दो−तिहाई मत से जीतूंगा। अब आप एक−चौथाई भी नहीं रह गए। बिहार का 'डीएनए' ही ऐसा है कि उसने विश्व−नेता को जिला नेता भी नहीं रहने दिया। जिन 26 जिलों में हिंदू हृदय सम्राट ने सभाएं की थीं, उनमें से सिर्फ 12 ही वे जीत पाए और सोनिया गांधी ने जिन चार में की थीं, वे चारों ही जीत गईं। मोदी ने कांग्रेस का कर्ज चुकाया है,ब्याज समेत! क्या कांग्रेस बिहार में 27 सीटें जीत सकती थीं? यदि राहुल जैसे भोले बाबा के चेहर पर चमक लाने का श्रेय किसी को है तो हमारे प्रचारमंत्रीजी को है।
मोदी के व्यक्तित्व में अद्भुत गोंद है। शायद मोदी अकेला ऐसा नेता है, जो देश के सारे विरोधियों को एक छाते के नीचे इकट्ठा करवा सकता है। यदि बिहार की तरह पूरे देश में कोई संयुक्त मोर्चा खड़ा हो जाए तो मोदी को तानाशाह नहीं, लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक माना जाएगा। पक्ष और विपक्ष का जबर्दस्त संतुलन लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य का प्रमाण है। सबल विपक्ष अगले साढ़े तीन साल का इंतजार क्यों करेगा? वह अगले एक साल में ही ऐसा कोहराम खड़ा करेगा कि मोदी को इस्तीफा देना पड़ सकता है या संसद भंग करके चुनाव करवाना पड़ेगा। मोदी को मुश्किल से 30 प्रतिशत ही वोट तो मिले हैं। यदि मध्यावधि चुनाव हो गए तो भारत बिहार बने बिना नहीं रहेगा। शायद बिहार से भी बदतर परिणाम भाजपा को भुगतने पड़ेंगे ,
मोदी को यह गलतफहमी हो गई है कि वे देश के महान नेता हैं। वे भूल गए कि लोगों ने उन्हें इसलिए चुना था कि वे कांग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आ चुके थे। वे एक साफ−सुथरी सरकार चाहते थे। मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी की चादर पर कोई दाग नहीं था। इसीलिए लोगों ने उनकी पीठ ठोकी और उन्हें स्पष्ट बहुमत मिला। विकास का उनका नारा निरर्थक था। गुजरात में उन्होंने कोई चमत्कारी काम नहीं किया था। वे वहां राजधर्म का निर्वाह भी नहीं कर सके थे। भारत के लोगों ने उनकी 'मौत के सौदागर' की छवि को भी दरकिनार कर दिया था। ये बात अलग है कि चुनाव जीतने की चिंता में उन्होंने ही जनता को अनाप−शनाप सब्जबाग दिखा दिए थे। ये सब्जबाग ही उनको ले बैठे। शुरु−शुरु में जिन राज्यों में चुनाव हुए, उनमें आम−चुनाव की हवा का फायदा मोदी को मिला लेकिन दिल्ली के चुनाव ने साफ संकेत दे दिए थे कि हवा तेजी से निकल रही है। गाड़ी पंचर होने को है। फिर भी प्रधानमंत्रीजी ने कोई सबक नहीं लिया। वे बंडियां बदल−बदलकर बंडल मारते रहे। बिहार ने पूरी हवा ही निकाल दी।
इस तर्क में मुझे खास दम नहीं लगता कि बिहार की हार का ठीकरा मोहन भागवत के सिर फोड़ा जाए। आरक्षण का मुद्दा अखबारों और चैनलों पर उचकता रहा। आम जनता पर उसका क्या असर हुआ होगा? बिहार के गांवों के मतदाता को पता है क्या, कि मोहन भागवत कौन हैं और उनकी हैसियत क्या है? वे तो सिर्फ मोदी को देख−सुन रहे थे। मोदी बार−बार आरक्षण पर जोर दिए जा रहे थे। ये बात दूसरी है कि मोदी और शाह ने जो अन्य कई पत्ते फेंके, वे भी बेअसर हो गए। मज़हबी खाई तो पहले से हो खुदी हुई थी। शाह ने पाकिस्तान में फुलझडि़यों का फूहड़ बयान नहीं दिया होता तो भी क्या मुसलमान मोदी को वोट दे देते? हिंदुओं पर मजहब की बजाय जात भारी पड़ गई। संप्रदायवाद पर जातिवाद हावी हो गया। 2014 में जातिवाद इसलिए हवा हो गया था कि वह राष्ट्रीय चुनाव था, प्रांतीय चुनाव नहीं। उस समय मोदी की टक्कर नीतीश और लालू से नहीं, सोनिया और मनमोहन से थी। बिहार के इस चुनाव में लालू ने मोदी को लल्लू बना दिया, क्योंकि बिहार के नेताओं के खिलाफ वे एक भी बिहारी नेता खड़ा नहीं कर सके। खुद ही खड़े हो गए। मेरे बराबर कोई नहीं और मेरे अलावा कोई नहीं। न सुशील मोदी न शत्रुघ्न सिंहा, न यशवंत सिंहा। बस मैं और मेरा भाय। दोनों पीते रह गए चाय।। चाय की प्याली, 'अति पिछड़े' वाली भी घुमाई लेकिन उसे भी किसी ने नहीं छुआ।
उनका तर्क यह था कि मैं बाहरी कैसे? क्या बिहार भारत में नहीं है? और क्या भारत का नेता मैं नहीं हूं। मैं तो विश्व−नेता हूं। अमेरिकी राष्ट्रपति को मैं बराक−बराक कहकर बुलाने की हैसियत रखता हूं। मैं और शी याने चीन के राष्ट्रपति साथ−साथ झूला झूलते हैं। भला, नीतीश और लालू की मेरे आगे औकात क्या है? मैं दो−तिहाई मत से जीतूंगा। अब आप एक−चौथाई भी नहीं रह गए। बिहार का 'डीएनए' ही ऐसा है कि उसने विश्व−नेता को जिला नेता भी नहीं रहने दिया। जिन 26 जिलों में हिंदू हृदय सम्राट ने सभाएं की थीं, उनमें से सिर्फ 12 ही वे जीत पाए और सोनिया गांधी ने जिन चार में की थीं, वे चारों ही जीत गईं। मोदी ने कांग्रेस का कर्ज चुकाया है,ब्याज समेत! क्या कांग्रेस बिहार में 27 सीटें जीत सकती थीं? यदि राहुल जैसे भोले बाबा के चेहर पर चमक लाने का श्रेय किसी को है तो हमारे प्रचारमंत्रीजी को है।
मोदी के व्यक्तित्व में अद्भुत गोंद है। शायद मोदी अकेला ऐसा नेता है, जो देश के सारे विरोधियों को एक छाते के नीचे इकट्ठा करवा सकता है। यदि बिहार की तरह पूरे देश में कोई संयुक्त मोर्चा खड़ा हो जाए तो मोदी को तानाशाह नहीं, लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक माना जाएगा। पक्ष और विपक्ष का जबर्दस्त संतुलन लोकतंत्र के उत्तम स्वास्थ्य का प्रमाण है। सबल विपक्ष अगले साढ़े तीन साल का इंतजार क्यों करेगा? वह अगले एक साल में ही ऐसा कोहराम खड़ा करेगा कि मोदी को इस्तीफा देना पड़ सकता है या संसद भंग करके चुनाव करवाना पड़ेगा। मोदी को मुश्किल से 30 प्रतिशत ही वोट तो मिले हैं। यदि मध्यावधि चुनाव हो गए तो भारत बिहार बने बिना नहीं रहेगा। शायद बिहार से भी बदतर परिणाम भाजपा को भुगतने पड़ेंगे ,
No comments:
Post a Comment