बिहार के बाद क्या?
ललित सुरजन
पहले तो लोग इस बात पर माथापच्ची करते रहे कि बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या होंगे। जिस दिन मतदान का आखिरी चरण सम्पन्न हुआ उस दिन तमाम विशेषज्ञ एक्जिट पोलों की चीर-फाड़ में लग गए। 8 नवंबर को जब बहुप्रतीक्षित परिणाम सामने आए तब से उन नतीजों का विश्लेषण करने का काम चल रहा है। यह स्वाभाविक है तथा अभी कुछ दिन और चलेगा। सोशल मीडिया की जहां तक बात है उसमें लतीफों की बहार आई हुई है। बल्कि दीवाली के समय यह कहना अधिक सही होगा कि फुलझडिय़ां और पटाखे छूट रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी के दौरान कई महीनों तक पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का जमकर उपयोग किया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई किन्तु इसके साथ यह भी हुआ कि नए-नवेले प्रधानमंत्री पर दोनों तरह के मीडिया में टीका-टिप्पणियां होना शुरु हो गईं, फिर बात चाहे उनकी परिधानप्रियता की हो, चाहे उनके मंत्रियों की योग्यता की। राजनीति में हर व्यक्ति को सार्वजनिक टीकाओं का सामना करना ही होता है। जो जितना बड़ा है उस पर उतनी ही ज्यादा बातें होती हैं। इस मामले में हमारे प्रधानमंत्री ने कमाल कर दिया। विगत डेढ़ वर्ष के दौरान उनको लेकर जितने कटाक्ष किए गए हैं वैसी स्थिति शायद कभी किसी सत्ता प्रमुख के सामने नहीं आई।
बहरहाल बिहार के परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक विश्लेषकों के समक्ष देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सोचने का समय शायद आ गया है। 2019 में लोकसभा के अगले चुनाव होंगे। इसमें अभी साढ़े तीन साल का वक्त है। इस बीच असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल, फिर उत्तरप्रदेश और अन्य प्रदेशों के चुनाव बारी-बारी होना है। पांच प्रदेशों के चुनाव होने में अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है। पूर्वोत्तर और एक छोटा प्रदेश होने के कारण असम पर बाकी देश का ध्यान अक्सर नहीं जाता। यद्यपि भौगोलिक और सामाजिक कारणों से वहां की राजनीति कई बार ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है, जिसका असर पूरे देश पर पड़ता है। अभी असम में तरुण गोगई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार काबिज है। श्री गोगई पिछले पन्द्रह वर्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हैं। उनका तीसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। कुछ समय पहले असंतुष्ट नेता हिमांता बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ली। वे अपने साथ लगभग एक दर्जन विधायकों को भी ले गए। याने भाजपा ने जिस तरह बिहार में दलबदल को प्रश्रय दिया वही काम अब असम में हो रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम हितों की बात करने वाले एक नेता बदरुद्दीन अकमल का भी वहां काफी प्रभाव है। इन दो पाटों के बीच कांग्रेस की रणनीति आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या होगी? वहां पार्टी को किसका साथ मिलेगा? मतदाता एक दलबदलू नेता पर कितना विश्वास करेगी और क्या अल्पसंख्यक समाज बिहार की तर्ज पर कांग्रेस का साथ देगा? ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं।
इसके साथ-साथ बात आती है पश्चिम बंगाल की। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार को बधाई देने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में क्या समीकरण बनेंगे। एक ओर ममता बनर्जी दूसरी ओर माकपा की अगुवाई में वाममोर्चा। चूंकि बिहार में वाममोर्चे ने अपना पृथक रास्ता चुना इसलिए अनुमान होता है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ उसका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। लेकिन क्या तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस का कोई गठबंधन संभव है? अगर इस दिशा में प्रयत्न हुए तो ममता दी उसकी क्या कीमत वसूलेंगी? और क्या कांग्रेस इस प्रदेश में अकेले लडऩे में सक्षम है? महागठबंधन के अन्य दो दलों की बंगाल में क्या भूमिका होगी? यदि लालू जी अथवा नीतीश जी की बिहार के बाहर अगर कोई महत्वाकांक्षा है तो क्या उसके बीजारोपण की शुरुआत ममता बनर्जी केेे साथ हाथ मिलाकर होगी? अगर तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े तो क्या इसका कोई लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल पाएगा? दिल्ली और बिहार में तो भाजपा के पास अनेक कद्दावर नेता थे। पश्चिम बंगाल में कौन हैं? इस कमी का क्या असर भाजपा पर पड़ेगा? गरज यह कि यहां भी सवाल बहुतेरे हैं।
तमिलनाडु में एक अलग ही दृश्य उपस्थित होता है। पिछले लगभग चालीस साल से हम वहां दो क्षेत्रीय दलों के बीच सत्ता की उलट-पुलट देखते आए हैं। इनका नेतृत्व जो दो बड़े नेता कर रहे हैं वे कब तक अपना दायित्व संभाल पाएंगे कहना कठिन है। डीएमके के करुणानिधि वृद्ध, अशक्त और अस्वस्थ हैं। उनके तीन पत्नियों वाले परिवार में राजनीतिक विरासत को लेकर जो कलह चल रही है वह सर्वविदित है। करुणानिधि राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में बेटी कनिमोझी को स्थापित करना चाहते हैं, जबकि प्रदेश में उनकी प्रकट इच्छा छोटे बेटे स्टालिन को राजनीतिक विरासत सौंपने की रही है। अनुमान कर सकते हैं कि आसन्न विधानसभा चुनाव स्टालिन के सक्रिय मार्गदर्शन में लड़े जाएंगे जिसमें कनिमोझी उनके साथ होंगी। बड़े भाई अजगीरी की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर जयललिता की सक्रियता भी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से बाधित हुई है ऐसा सुनने में आता है। अगर जयललिता पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतर सके तब भी क्या तमिलनाडु के मतदाता उन्हें लगातार दूसरा मौका देंगे? जयललिता और नरेन्द्र मोदी के बीच मधुर संबंध हैं, लेकिन क्या दोनों के बीच कोई औपचारिक गठबंधन होना संभव है? इसी तरह डीएमके और कांग्रेस के बीच जो गठबंधन लंबे समय तक चला क्या वह दुबारा बन सकेगा? इस दक्षिण प्रदेश में भाकपा और माकपा दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। यद्यपि राज्यसभा में जाने के लिए उन्हें कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता की चिरौरी करना पड़ती है। क्या तमिलनाडु में कांग्रेस समाजवादी और साम्यवादी दोनों मोर्चों को साथ लेकर कोई महा-महागठबंधन बना पाएगी?
एक अन्य दक्षिण प्रदेश केरल में भी कुछ ही दिनों में विधानसभा चुनाव होना है। केरल को राजनीतिक दृष्टि से एक अत्यन्त जागरुक प्रदेश माना जाता है। यहां सामान्यत: हर पांच साल में सरकार बदल जाती है। फिलहाल सरकार कांग्रेस की है इसलिए यह सोच लेना आसान है कि अगली सरकार माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे की बनेगी। लेकिन मामला इतना सरल नहीं है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास वी.एस. अच्युतानंदन के बाद कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। पिछले चुनावों में वी.एस. को किनारे कर दिया गया था, किन्तु यह उनकी ही छवि थी जिसके कारण माकपा लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के करीब पहुंच सकी। कांग्रेस में ओमन चांडी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्हें लगातार पार्टी की अंतर्कलह से और पार्टी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि केरल विधानसभा में भाजपा को आज तक एक भी सीट नहीं मिली है, फिर भी वह धीरे-धीरे अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते गई है। विगत नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा ने तिरुअनंतपुरम नगर निगम में अठाइस सीटें हासिल कीं। अभी हाल में सम्पन्न चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर पैंतीस-छत्तीस हो गई हैं और कांग्रेस वहां तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। याने कांग्रेस और माकपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। अगले साल जब कांग्रेस और माकपा के बीच मुकाबला होगा तब पहली बार भाजपा शायद विधानसभा में अपना खाता खोलने की उम्मीद कर सकती है।
हमारी उम्मीद है कि राजनैतिक अध्येता इन सारी स्थितियों का विश्लेषण कर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे कि आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी।
देशबन्धु में 11 नवंबर 2015 को प्रकाशितपहले तो लोग इस बात पर माथापच्ची करते रहे कि बिहार में विधानसभा चुनावों के नतीजे क्या होंगे। जिस दिन मतदान का आखिरी चरण सम्पन्न हुआ उस दिन तमाम विशेषज्ञ एक्जिट पोलों की चीर-फाड़ में लग गए। 8 नवंबर को जब बहुप्रतीक्षित परिणाम सामने आए तब से उन नतीजों का विश्लेषण करने का काम चल रहा है। यह स्वाभाविक है तथा अभी कुछ दिन और चलेगा। सोशल मीडिया की जहां तक बात है उसमें लतीफों की बहार आई हुई है। बल्कि दीवाली के समय यह कहना अधिक सही होगा कि फुलझडिय़ां और पटाखे छूट रहे हैं। नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी के दौरान कई महीनों तक पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया दोनों का जमकर उपयोग किया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आई किन्तु इसके साथ यह भी हुआ कि नए-नवेले प्रधानमंत्री पर दोनों तरह के मीडिया में टीका-टिप्पणियां होना शुरु हो गईं, फिर बात चाहे उनकी परिधानप्रियता की हो, चाहे उनके मंत्रियों की योग्यता की। राजनीति में हर व्यक्ति को सार्वजनिक टीकाओं का सामना करना ही होता है। जो जितना बड़ा है उस पर उतनी ही ज्यादा बातें होती हैं। इस मामले में हमारे प्रधानमंत्री ने कमाल कर दिया। विगत डेढ़ वर्ष के दौरान उनको लेकर जितने कटाक्ष किए गए हैं वैसी स्थिति शायद कभी किसी सत्ता प्रमुख के सामने नहीं आई।
बहरहाल बिहार के परिणाम आ जाने के बाद अब राजनैतिक विश्लेषकों के समक्ष देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सोचने का समय शायद आ गया है। 2019 में लोकसभा के अगले चुनाव होंगे। इसमें अभी साढ़े तीन साल का वक्त है। इस बीच असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पुड्डुचेरी, केरल, फिर उत्तरप्रदेश और अन्य प्रदेशों के चुनाव बारी-बारी होना है। पांच प्रदेशों के चुनाव होने में अब बहुत अधिक समय नहीं बचा है। पूर्वोत्तर और एक छोटा प्रदेश होने के कारण असम पर बाकी देश का ध्यान अक्सर नहीं जाता। यद्यपि भौगोलिक और सामाजिक कारणों से वहां की राजनीति कई बार ऐसे मोड़ पर पहुंच जाती है, जिसका असर पूरे देश पर पड़ता है। अभी असम में तरुण गोगई के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार काबिज है। श्री गोगई पिछले पन्द्रह वर्ष से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हैं। उनका तीसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है। कुछ समय पहले असंतुष्ट नेता हिमांता बिस्वा सरमा ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ली। वे अपने साथ लगभग एक दर्जन विधायकों को भी ले गए। याने भाजपा ने जिस तरह बिहार में दलबदल को प्रश्रय दिया वही काम अब असम में हो रहा है। दूसरी ओर, मुस्लिम हितों की बात करने वाले एक नेता बदरुद्दीन अकमल का भी वहां काफी प्रभाव है। इन दो पाटों के बीच कांग्रेस की रणनीति आसन्न विधानसभा चुनाव में क्या होगी? वहां पार्टी को किसका साथ मिलेगा? मतदाता एक दलबदलू नेता पर कितना विश्वास करेगी और क्या अल्पसंख्यक समाज बिहार की तर्ज पर कांग्रेस का साथ देगा? ऐसे अनेक प्रश्न उठते हैं।
इसके साथ-साथ बात आती है पश्चिम बंगाल की। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने नीतीश कुमार को बधाई देने में जरा भी वक्त नहीं गंवाया। सवाल उठता है कि पश्चिम बंगाल में क्या समीकरण बनेंगे। एक ओर ममता बनर्जी दूसरी ओर माकपा की अगुवाई में वाममोर्चा। चूंकि बिहार में वाममोर्चे ने अपना पृथक रास्ता चुना इसलिए अनुमान होता है कि पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे के साथ उसका कोई तालमेल नहीं बैठेगा। लेकिन क्या तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस का कोई गठबंधन संभव है? अगर इस दिशा में प्रयत्न हुए तो ममता दी उसकी क्या कीमत वसूलेंगी? और क्या कांग्रेस इस प्रदेश में अकेले लडऩे में सक्षम है? महागठबंधन के अन्य दो दलों की बंगाल में क्या भूमिका होगी? यदि लालू जी अथवा नीतीश जी की बिहार के बाहर अगर कोई महत्वाकांक्षा है तो क्या उसके बीजारोपण की शुरुआत ममता बनर्जी केेे साथ हाथ मिलाकर होगी? अगर तृणमूल कांग्रेस, वाममोर्चा और कांग्रेस तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े तो क्या इसका कोई लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल पाएगा? दिल्ली और बिहार में तो भाजपा के पास अनेक कद्दावर नेता थे। पश्चिम बंगाल में कौन हैं? इस कमी का क्या असर भाजपा पर पड़ेगा? गरज यह कि यहां भी सवाल बहुतेरे हैं।
तमिलनाडु में एक अलग ही दृश्य उपस्थित होता है। पिछले लगभग चालीस साल से हम वहां दो क्षेत्रीय दलों के बीच सत्ता की उलट-पुलट देखते आए हैं। इनका नेतृत्व जो दो बड़े नेता कर रहे हैं वे कब तक अपना दायित्व संभाल पाएंगे कहना कठिन है। डीएमके के करुणानिधि वृद्ध, अशक्त और अस्वस्थ हैं। उनके तीन पत्नियों वाले परिवार में राजनीतिक विरासत को लेकर जो कलह चल रही है वह सर्वविदित है। करुणानिधि राष्ट्रीय स्तर पर अपने प्रतिनिधि के रूप में बेटी कनिमोझी को स्थापित करना चाहते हैं, जबकि प्रदेश में उनकी प्रकट इच्छा छोटे बेटे स्टालिन को राजनीतिक विरासत सौंपने की रही है। अनुमान कर सकते हैं कि आसन्न विधानसभा चुनाव स्टालिन के सक्रिय मार्गदर्शन में लड़े जाएंगे जिसमें कनिमोझी उनके साथ होंगी। बड़े भाई अजगीरी की क्या भूमिका होगी यह स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर जयललिता की सक्रियता भी स्वास्थ्य संबंधी कारणों से बाधित हुई है ऐसा सुनने में आता है। अगर जयललिता पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में उतर सके तब भी क्या तमिलनाडु के मतदाता उन्हें लगातार दूसरा मौका देंगे? जयललिता और नरेन्द्र मोदी के बीच मधुर संबंध हैं, लेकिन क्या दोनों के बीच कोई औपचारिक गठबंधन होना संभव है? इसी तरह डीएमके और कांग्रेस के बीच जो गठबंधन लंबे समय तक चला क्या वह दुबारा बन सकेगा? इस दक्षिण प्रदेश में भाकपा और माकपा दोनों के अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र हैं। यद्यपि राज्यसभा में जाने के लिए उन्हें कभी करुणानिधि तो कभी जयललिता की चिरौरी करना पड़ती है। क्या तमिलनाडु में कांग्रेस समाजवादी और साम्यवादी दोनों मोर्चों को साथ लेकर कोई महा-महागठबंधन बना पाएगी?
एक अन्य दक्षिण प्रदेश केरल में भी कुछ ही दिनों में विधानसभा चुनाव होना है। केरल को राजनीतिक दृष्टि से एक अत्यन्त जागरुक प्रदेश माना जाता है। यहां सामान्यत: हर पांच साल में सरकार बदल जाती है। फिलहाल सरकार कांग्रेस की है इसलिए यह सोच लेना आसान है कि अगली सरकार माकपा के नेतृत्व में वाममोर्चे की बनेगी। लेकिन मामला इतना सरल नहीं है। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसके पास वी.एस. अच्युतानंदन के बाद कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। पिछले चुनावों में वी.एस. को किनारे कर दिया गया था, किन्तु यह उनकी ही छवि थी जिसके कारण माकपा लगातार दूसरी बार सत्ता में आने के करीब पहुंच सकी। कांग्रेस में ओमन चांडी मुख्यमंत्री हैं, लेकिन उन्हें लगातार पार्टी की अंतर्कलह से और पार्टी नेताओं पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझना पड़ रहा है। यह उल्लेखनीय है कि केरल विधानसभा में भाजपा को आज तक एक भी सीट नहीं मिली है, फिर भी वह धीरे-धीरे अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाते गई है। विगत नगरीय निकाय चुनावों में भाजपा ने तिरुअनंतपुरम नगर निगम में अठाइस सीटें हासिल कीं। अभी हाल में सम्पन्न चुनाव में उसकी सीटें बढ़कर पैंतीस-छत्तीस हो गई हैं और कांग्रेस वहां तीसरे नंबर पर पहुंच गई है। याने कांग्रेस और माकपा के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। अगले साल जब कांग्रेस और माकपा के बीच मुकाबला होगा तब पहली बार भाजपा शायद विधानसभा में अपना खाता खोलने की उम्मीद कर सकती है।
हमारी उम्मीद है कि राजनैतिक अध्येता इन सारी स्थितियों का विश्लेषण कर हमारा ज्ञानवर्धन करेंगे कि आने वाले दिनों में देश की राजनीति की दिशा क्या होगी।
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