सॉरी अशोक सिंघल, आपका सपना कचड़ा था
भारत सिंह [ ब्लॉगर ]
विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल को लंबी उम्र हासिल हुई, पर वह हिंदू राष्ट्र या राम मंदिर का अपना सपना सच होते नहीं देख सके। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सिंघल की मौत के बाद ट्वीट किया, 'अशोक सिंघल ने कई महान और सामाजिक कार्य किए, जिससे गरीबों को फायदा हुआ।' सिंघल को अनुसूचित जाति के लोगों के लिए मंदिर बनाने के लिए जाना जाता है। इस काम को उनके सामाजिक कार्यों में शुमार किया जाता है।
सिंघल ने भी सितंबर 2013 में पी वेंकटेश्वर राव जूनियर को दिए एक इंटरव्यू में कहा था कि 1981 में तमिलनाडु के मीनाक्षीपुरम में अनुसूचित जाति के लोगों के बड़ी संख्या में इस्लाम में कन्वर्ट होने पर वह वीएचपी की ओर से वहां गए। उन्होंने अनुसूचित जाति के नेताओं से बात की और उनकी मुख्य शिकायत ये थी कि उन्हें मंदिरों में नहीं जाने दिया जाता है। सिंघल का कहना था कि उन्होंने इन जाति के लोगों के लिए 200 मंदिर बनाए और इससे धर्मांतरण रुक गया।
दलितों का सवर्ण हिंदुओं के मंदिरों में प्रवेश होना चाहिए या नहीं, यह एक बहस है। इस मंदिर में जाने से दलितों का या किसी और का भी कितना फायदा हुआ, यह अलग बहस है। सिंघल ने दलितों के लिए अलग मंदिर बनवाए। सिंघल या किसी ने भी दलितों के लिए अलग मंदिर इसलिए बनवाए ताकि वह अपने मंदिरों में जाएं और सवर्णों के मंदिरों की शुद्धता बरकरार रहे। हिंदू धर्म की सभी जातियों के एक ही मंदिर में जाने का मसला छुआछूत से जुड़ा है। हिंदुओं के लिए मंदिर और रसोई सबसे पवित्र स्थलों में से एक होते हैं। दलितों को न तो हिंदू उच्च जाति के मंदिरों में प्रवेश की इजाजत होती है और न ही उनकी रसोई में। रसोई से संबंधित एक मजेदार किस्सा सुनाया जाता है।
एक बार एक दलित के घर मेहमान आए। दलित के घर में मेहमानों को खिलाने के लिए अच्छा बर्तन नहीं था। उसने पड़ोसी ब्राह्मण के घर से थाली उधार मांगी। ब्राह्मण ने अनिच्छा से थाली तो दे दी। दलित जब थाली लौटाने आया तो ब्राह्मण ने उत्सुकतावश पूछ लिया कि क्या बनाया था खाने में। दलित ने कहा- मांस। ब्राह्मण ने गोमूत्र छिड़कर थाली तो शुद्ध कर ली, पर उसके मन में यह बात चुभ गई। बाद में उसने बदला लेने की गरज से दलित से थाली उधार मांगी और उसे गंदा करने के मकसद से उसमें टट्टी खा ली और दलित को बता भी दिया।
यह तो खैर किस्सा हुआ। पर इससे हमें सबक मिलता है कि बिना तर्क के कोई भी सनक पालना सही नहीं। सवाल है कि दलितों को मंदिर जाने से कितना फायदा हो गया। आंबेडकर ने जब 1920 के अंत में दलितों के लिए मंदिर प्रवेश आंदोलन शुरू किया तो उनका मकसद अछूतों को यह दिखाना था कि उन्हें उच्च जाति का हिंदू समाज किस नजर से देखता है। इसके करीब 10 सालों बाद आंबेडकर ने कहा कि मंदिर प्रवेश आंदोलन का मकसद पूरा हो चुका, लोगों को इस धर्म में अपनी स्थिति का अंदाज लग चुका है। अब पढ़ाई करने और राजनीति में आने का समय है। इसके करीब 50 सालों बाद सिंघल ने दलितों का मंदिर प्रवेश तो दूर की बात है, उनके लिए अलग मंदिर बनवाए। तब से करीब 80 सालों बाद यानी आज भी दलितों के बीच मंदिर प्रवेश बड़ा मुद्दा है। मंदिर प्रवेश का मामला आंबेडकर ने 1930 के उत्तरार्ध में छोड़ दिया था और यह भी कहा था कि अछूत हिंदू नहीं हैं। ये मामला संविधान और कानून से भी जुड़ा है, क्योंकि मंदिर प्रवेश की मनाही के पीछे छुआछूत की मानसिकता है, जो कानूनन अपराध है, लेकिन दलितों में चेतना जगाने के लिए यह मुद्दा अप्रासंगिक हो चुका है।
खैर, विषयांतर से बचकर सिंघल पर लौटते हैं। पढ़ाई से इंजिनियर रहे सिंघल का यह भी मानना था कि गौ भक्ति और गंगा भक्ति से अच्छे शासन का रास्ता निकलेगा। उन्होंने लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी को इसकी सलाह भी दी थी। अच्छे शासन के लिए दुनिया में इससे ज्यादा अवैज्ञानिक सोच किसी भी इंजिनियर द्वारा शायद ही कहीं दी गई हो। मोदी सरकार भी इसी पर अमल करती दिख रही है। गाय के मुद्दे पर देश की राजधानी दिल्ली के पास एक आदमी की हत्या हो गई। यूं तो भारत जैसे देश में दिन भर में हादसों से, नैचरल तरीके या फिर साजिशन कई मौतें होती हैं और एक देश का पीएम हर हत्या पर बोले यह जरूरी भी नहीं और संभव भी नहीं। पर देश की राजधानी के पास हुई इस हत्या की घटना ऐसी नहीं थी कि किसी को इसकी खबर न हो। मीडिया में इसे भरपूर तवज्जो मिली। विशेषज्ञों ने ऐसी हरकत पर चिंता जाहिर की, अल्पसंख्यक नेताओं ने डर जाहिर किया, बहुसंख्यक नेताओं ने फिर से सबक सिखाने की धमकी दी।
यहां पर हत्या भले ही एक थी, लेकिन उसका असर व्यापक था। हद तो तब हो गई जब अप्रत्याशित तौर पर राष्ट्रपति को इस घटना की निंदा करने के लिए आगे आना पड़ा। इसके बाद जाकर पीएम ने राष्ट्रपति के शब्दों पर अमल करने की सलाह दी। क्या जिस मसले पर देश का राष्ट्रपति बोले, उस मसले पर सरकार के प्रमुख की कोई राय नहीं थी? यह घटना इतनी ही छोटी थी या इसका विरोध साजिशन था तो विदेशी मीडिया में मोदी सरकार को सवालों के घेरे में क्यों लिया गया? उन्हें ब्रिटिश दौरे पर चुभते सवालों का जवाब क्यों देना पड़ा? अगर वे यहां पर कुछ कह देते तो उन्हें वहां सफाई नहीं देनी पड़ती। इन्हीं पीएम ने गाय की सेवा करने का संदेश देने वाले सिंघल की प्राकृतिक मौत पर ट्वीट कर उन्हें याद किया है। यानी उनकी नजर हर खबर पर रहती है, बस उनकी चुप्पी सोची-समझी होती है।
राम मंदिर आंदोलन के प्रणेता रहे सिंघल ने 1980 के दशक में दिल्ली में साधुओं की धर्म संसद आयोजित कर हिंदू और मुस्लिम समाज के बीच नफरत के बीज बोने शुरू कर दिए थे। मंदिरआंदोलन 1992 में बाबरी मस्जिद को ढहाने के साथ अपने चरम पर पहुंचा। इसकी विभीषिका से आजतक देश नहीं संभल सका है। शायद इसलिए भी बीजेपी वादे करके भी राम मंदिर बनाने की हिम्मत नहीं कर सकी है। इस मुद्दे की आढ़ में ही सरकारों ने देश के संसाधनों को चुनिंदा लोगों के हाथों में देने का काम बखूबी किया है।
सिंघल ने बीजेपी के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद कहा था कि भारत को हिंदू राष्ट्र और दुनिया को हिंदू विश्व बनने में देर नहीं है। किसी भी देश या दुनिया की बुरी गत करनी हो तो वहां, धर्म का शासन शुरू कर दीजिए। धर्म और विज्ञान का बैर तो जगजाहिर है ही। लोकतांत्रिक शासन प्रणाली भी धार्मिक शासन प्रणाली से ज्यादा वैज्ञानिक और नागरिकों को अधिकार देने वाली है। मौजूदा वैश्विक व्यवस्था में किसी भी लोकतंत्र में या दूसरे देश में धर्म का राज फैलाने का रास्ता हिंसा से होकर ही जा सकता है।
हिंदू धर्म इतना ही मानववादी था तो नेपालियों ने ही दुनिया की सबसे ताजा जनक्रांति करने के बाद इस धर्म को क्यों त्याग दिया। जबकि उसे तो इस कदम के कई नुकसान उठाने पड़ सकते थे। हमारे पड़ोस में ही घोषित मुस्लिम देश पाकिस्तान में इस्लाम का राज चाहने वालों और लोकतांत्रिक सरकार के बीच का खूनखराबा किससे छुपा है। हम अक्सर पाकिस्तान के पिछड़ेपन की तुलना हिंदुस्तान के विकास से कर पाते हैं तो इसकी वजह यह है कि हम हिंदू राष्ट्र नहीं बने। हम भी सिंघल के सपनों का देश बन गए तो फिर किसी से तुलना करने लायक नहीं रह जाएंगे। याद रहे कि इन्हीं सिंघल साहब ने हिंदुओं को पांच बच्चे पैदा करने की भी सलाह भी दी थी। सिंघल साहब हिंदुओं के सच्चे हमदर्द होते तो कभी उन्हें इतनी बुरी सलाह नहीं देते। आज के समय में पांच बच्चे पालना आम लोगों के बस की बात नहीं है। हिंदुओं को भी सिंघल साहब के सपने को कचड़ा मानकर अपना काम-धंधा करना चाहिए।
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