धरने में जन्मे आंदोलन, संग्राम और क्रांति
महासमुंद से 20 किमी दूर परसाहीदादर गांव के जंगलों में 53 आदिवासियों का परिवार सालों से रह रहा था, लेकिन इन्हें एकाएक जमीन से बेदखल कर दिया गया
रायपुर. राजधानी रायपुर से 55 किमी दूर महासमुंद कलक्टर कार्यालय के सामने कुछ बच्चों की भीड़। उम्र एक साल से लेकर आठ दस साल तक। माथे पर काला टीका। आंखों में गुस्सा और भिची हुईं मुठ्ठियां। जैसे ही हमारी गाड़ी उनके सामने रुकी, वे मुर्दाबाद... मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। उत्सुकतावश बच्चों का नाम पूछा, तो तोतली भाषा में आवाज आई, आंदोलन, संग्राम और क्रांतिवीर। नाम सुनकर हम चौंके। मासूमों में यह आक्रोश और गुस्सा। पता चला, इसकी वजह प्रशासन की घोर उपेक्षा और हठवादिता है। ये मासूम उन आदिवासियों के हैं, जो पिछले 485 दिनों से यहां धरना दे रहे हैं। इनका कसूर यह था कि ये वर्षों से एेसी वनभूमि पर काबिज थे, जो तथाकथित सरकारी थी। अब इन्हें वहां बेदखल कर दिया गया है। वे अपनी भूमि की मांग कर रहे हैं और प्रशासन उन्हें अतिक्रमणकारी बता रहा है।
जमीन से बेदखली धरने की वजह
महासमुंद से 20 किमी दूर परसाहीदादर गांव के जंगलों में 53 आदिवासियों का परिवार सालों से रह रहा था, लेकिन इन्हें एकाएक जमीन से बेदखल कर दिया गया। तमोरा ग्राम पंचायत की सरपंच मीना टंडन और सचिव हीरालाल साहू ने 10 मई 2008 को ग्रामसभा में प्रस्ताव भी पारित किया, परसाहीदादर के 53 परिवार लंबे समय से यहां खेती-बाड़ी कर रहे हैं, इसलिए उन्हें वन अधिकार अधिनियम के तहत पट्टा दिया जाए। कुछ रसूखदार, वन व राजस्व विभाग के अफसरों ने उन्हें उजाड़ दिया। कुछ को जेल भी भेजा। इसके बाद कांक्रीट के जंगल में आ गए सभी आदिवासी परिवार। तब से उनका यही आशियाना है। वे अपनी मांगों को लेकर धरना दे रहे हैं।
नहीं मानी� रिपोर्ट
शिकायत हुई तोप्रशासन ने आदिवासी विकास परिषद के अध्यक्ष एसपी ध्रुव और आदिम जाति कल्याण विभाग बागबहरा के एसएल नाग को जांच अधिकारी बनाया। दोनों ने लिखित रिपोर्ट दी कि कमार, खरिया और और गोंड जनजाति के 53 परिवार भूमिहीन हो गए हैं, उन्हें वन अधिकार का पट्टा देना न्यायोचित होगा। मामले के निरीक्षण के लिए देशभर के कई आदिवासी नेताओं ने परसाहीदादर का भ्रमण भी किया। मामले की गूंज विधानसभा तक में भी हुई, लेकिन प्रशासन नहीं पिघला।
एक एकड़ जमीन भी नहीं
महासमुंद के विधायक विमल चोपड़ा ने कहा, परसाहीदादर के आदिवासियों की अपनी कोई जमीन नहीं थी, लेकिन जब सरकार दावा करती है कि कोई भूखा नहीं सोएगा, कोई बेघर नहीं होगा तो फिर आदिवासियों की बसाहट से पीछे क्यों हट रही है। कलक्टर मुख्यमंत्री को गलत रिपोर्ट देकर उनकी छवि खराब कर रहे हैं। उन्होंने मुख्यमंत्री को बताया, आदिवासी अपने मूल गांव नहीं लौटना चाहते। वे घुमंतू जाति के हैं। यदि वे घुमंतू हैं तो 485 दिनों तक एक ही जगह पर धरना कैसे दे रहे हैं। उनकी मांग तो यह है कि वे एक साथ रहना चाहते हैं। सरकार एक एकड़ नजूल की भूमि देकर उनकी मांग पूरी कर सकती है।
कलक्टर तो चाहते हैं हम माओवादी बन जाएं
यहां कई आंदोलनकारियों का कहना है कि माओवादी भी एक नाम है। हम चाहते तो अपने बच्चों का नाम माओवादी रमन्ना और चमन्ना रख सकते थे। अभी इसकी नौबत नहीं आई है, लेकिन यह सच है यदि अन्याय की कोख से माओवादी पैदा होते हैं तो इलाके के कलक्टर की पूरी कोशिश आदिवासियों को माओवादी बना देने की है। कलक्टर चाहते हैं कि हम कंधे पर बंदूक लेकर बीहड़ चले जाएं... बस उनका इलाका छोड़ दें...।
धरनास्थल पर तीन बच्चों का जन्म
प्रदेश में सुरक्षित प्रसव के नारे के बीच धरनास्थल पर ही अब तक तीन बच्चों की पैदाइश हो चुकी है। आदिवासी महिला सरस्वती ने एक बच्चे को बरसात के दिनों में जन्म दिया था। धरने पर बैठे लोगों ने इसका नाम संग्राम सिंह रख दिया है। अन्नपूर्णा ने यहां एक लड़की को जन्म दिया, इसका नाम क्रांति है। अन्नपूर्णा ने ही 15 दिन पहले ही एक और बच्ची को जन्म दिया। धरना देने वाले लोगों ने बताया दो-चार दिनों में एक और मेहमान आने वाला है।
काला टीका लगाकर बैठते हैं बच्चे
कलक्टर कार्यालय के ठीक सामने नीली पन्नियों से तनी कुछ झुग्गियां के भीतरी हिस्सों के चूल्हों में खाना तैयार होता है। पुरुष जब इधर-उधर मजदूरी के लिए चले जाते हैं, तब आदिवासी माताएं अपने बच्चों को नहला-धुलाकर काला टीका लगाकर धरने पर बैठा देती हैं। 53 परिवारों के 35 से ज्यादा बच्चे खेलने और पढऩे की उम्र में विरोध की भाषा सीख गए हैं। जैसे ही यहां से गाड़ी गुजरती है, वे मुर्दाबाद... मुर्दाबाद के नारे लगाने लगाते हैं। इनमें से एक बच्चा भी स्कूल नहीं जाता। पूछने पर महिलाएं कहती हैं, कैसे कोई जाएगा स्कूल। तेज धूप, ठंड और बरसात में खुले आसमान इनकी रात बीतती है। क्या किसी डॉक्टर ने बच्चों को पोलियों की दवा पिलाई। यह पूछने पर एक महिला कहती है, झुग्गी के पीछे एक पानी टंकी है। वहीं से पीने का पानी आता था। कलक्टर साहब ने पानी तक बंद करवा दिया, डॉक्टर को कहां से आने देंगे।� बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की चिंता किसे है। कई बच्चे तो कुपोषण के शिकार हैं।
कुछ लोग आदिवासियों को बरगला रहे हैं। आदिवासियों को पता है कि जिस जमीन पर वे खेती-बाड़ी कर रहे थे, वह उनकी अपनी नहीं थी। हमारा प्रयास है कि उन्हें सभी सुविधाएं दें। यदि वे अपने मूल गांव लौट जाएं तो उन्हें सभी सुविधाओं को दिलाने का प्रयास किया जाएगा।
उमेश अग्रवाल, कलक्टर, महासमुंद
हमने अपने बच्चों का नाम शिवानी, नूतन, पुष्पा और गोपाल रखा था। लेकिन, प्रशासन ने हमें मजबूर किया। कब इनके नाम आंदोलन, क्रांति, संग्राम, जीत और मुक्ति जैसे नामों में तब्दील हो गए नहीं पता।
पुष्पा के पिता सूरज
धरनास्थल से लौटकर राजकुमार सोनी
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