Tuesday, June 2, 2015

प्रेमनगर, जिला सूरजपुर में भूख हड़ताल पर बैठे आदिवासी ग्रामीणों के मांगों का समर्थन-छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन”

शहरीकरण की आड़ में अनुसूचित क्षेत्रों के ग्राम सभाओं को पेसा, वनाधिकार आदि अधिकारों से वंचित करना अन्यायपूर्ण व असंवैधानिक है.
“छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन” प्रेमनगर, जिला सूरजपुर में भूख हड़ताल पर बैठे आदिवासी ग्रामीणों के मांगों का समर्थन करता है और महामहिम राज्यपाल से आग्रह करता है कि उन पर गंभीर विचार किया जाये.

1996 में संसद ने ऐतिहासिक पेसा क़ानून (Panchayat (Extension to Scheduled Areas) Act) पारित कर पांचवी अनुसूची के संवैधानिक ढाँचे के अनुरूप, आदिवासी बहुल इलाकों में ग्राम सभाओं के माध्यम से, प्रत्यक्ष लोकतंत्र की एकव्यवस्था कायम की है, जिससे ग्राम सभाएं विकास योजनाओं को नियंत्रित कर सकते है, आदिवासी ज़मीनों का संरक्षण कर सकते है और 2006 के बाद व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार भी सुनिश्चित कर सकते है. हालाँकि छत्तीसगढ़ का करीब 60.57% हिस्सा अनुसूचित क्षेत्र है, परन्तु पेसा कानून का अमल कम और उल्लंघन ज्यादा मिलता है, और पेसा कानून को समुचित रूप से लागू करने की मांग आदिवासी क्षेत्रों की एक प्रबल मांग है, जिसे “छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन” भी पिछले 4 वर्षों से लगातार उठाता आया है. इसका एक ज्वलंत उदहारण जिला सूरजपुर स्थित ग्राम (अब नगर पंचायत) प्रेमनगर का है.

प्रेमनगर की ग्राम सभा बड़ी सशक्त तथा सक्रिय थी. उसने वहा के घने और जैव विविधता से परिपूर्ण प्राकृतिक जंगल के संरक्षण के लिए, 1 करोड़ से ज्यादा पेड़ों की कटाई कराने वाले प्रस्तावित विशालकाय औद्योगिक परियोजना का कई बार बहुत तार्किक तथा मज़बूत विरोध किया. इसलिए गाँव वालों के पीठ पीछे प्रेमनगर को अचानक 2009 में नगर पंचायत बनाया गया, जो संविधान के अनुच्छेद 243ZC के विरुद्ध है. उक्त अनुच्छेद के अनुसार अनुसूचित क्षेत्र में नगरी निकाय तब तक स्थापित नहीं किये जा सकते जब तक संसद इस हेतु आदिवासी समुदायों के हित संरक्षण के शर्तों को जोड़ते हुए कोई कानून नहीं बनाता – अर्थात मेसा कानून 
(Municipalities(Extension to Scheduled Areas) Act) नहीं पारित करता. (सन 2001 में मेसा बिल राज्य सभा में पेश होकर पारित हुआ था परन्तु लोक सभा में प्रक्रिया पूरी नहीं होने पर कालातीत हो गया. आज जब नए कानूनों को पारित करने की इतनी जल्दबाजी और मुस्तैदी दिखाई जा रही है, तब मेसा बिल को पुनः पेश किया जाना चाहिए था. इस कानून के आभाव में, गैर कानूनी नगरी निकाय स्थापित कर और गैर आदिवासियों को ज़मीने हथियाने के मौके देकर, अनुसूचित क्षेत्रो में पेसा कानून को कमज़ोर किया जा रहा है.)

प्रेमनगर को भी, कुछ निहित स्वार्थों की शह पर, बिना किसी सूचना/ मुनादी/ चस्पा के, फर्जी ग्राम सभा प्रस्ताव और बढाए हुए जनसँख्या आंकड़ों के आधार पर, नगर पंचायत बनाया गया. इससे प्रेमनगर ना केवल पेसा के अधिकारों से, बल्कि मनरेगा और आदिवासी विकास योजनाओं की सुविधाओं से वंचित हो गया, वन अधिकारों से वंचित हो गया, और उसपर नगरीय निकाय के अनुसार करारोपण हुआ.

प्रेमनगर के ग्रामीणों ने कलेक्टर से लेकर, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के लिए ज़िम्मेदार महामहिम राज्यपाल और राष्ट्रपति तक को गुहार लगाई. उनके द्वारा 2010 में उच्च न्यायलय में बहुत प्रयासों से लगाई गई रिट याचिका अंततः 2015 में इस तकनीकी आधार पर ख़ारिज की गयी कि उसमे जुलाई 2009 के नगर पंचायत गठन की प्रारंभिक अधिसूचना को चुनौती दी गयी थी, दिसंबर 2009 की अंतिम अधिसूचना को नहीं. जबकि ग्रामीणों ने जब जब नगर पंचायत गठन की जानकारी मांगी थी तब उन्हें जुलाई 2009 की अधिसूचना की प्रति ही दी गयी थी.
11 मई 2015 से प्रेमनगर के आदिवासी ग्रामीण निरंतर नगर पंचायत कार्यालय के सामने क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठकर उसे पुनः ग्राम पंचायत बनाने की मांग कर रहे है. उनके द्वारा महामहिम राज्यपाल को दिए गए ज्ञापन पर विचार का मात्र आश्वासन दिया जा रहा है.

ज्ञातव्य हो कि हाल में ओडिशा के अनुसूचित सुंदरगढ़ जिले में भी आदिवासी ग्रामों को ज़बरदस्ती राउरकेला नगर निगम में शामिल करने पर भारी विरोध और आर्थिक नाकेबंदी हुई थी, अनेक ग्रामीणों के साथ मार पीट कर उन्हें फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार किया गया था. पर अंततः ओडिशा विधान सभा में प्रस्ताव पारित हुआ और उच्च न्यायलय ने समबन्धित अधिसूचना पर स्थगन आदेश ज़ारी किया था.


“छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन” प्रेमनगर के ग्रामीणों की जायज़ मांग का पुरजोर समर्थन करता है और शासन से मांग करता है किप्रेमनगर को पुनः ग्राम पंचायत का दर्ज़ा दिया जाये, तथा पेसा, वनाधिकार, मनरेगा कानून समेत समस्त आदिवासी विकास योजनाओं का लाभ प्रदान किया जाये.

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