पढऩा है तो आना होगा माओवाद की पाठशाला में
जिस सामुदायिक भवन में चलता था, उसे माओवादियों ने बारूद से उड़ा दिया। जो माओवादियों के खौफ के चलते गांव में ही कैद होकर रह गए। उनके चहेरों पर सपने दफन होने की छटपटाहट दिखती है
जगदलपुर/दंतेवाड़ा. किरंदूल से लगभग 10 किमी दूर माओवादी प्रभावित गांव चोलनार का 12 साल का सोरी बड़ा होकर डॉक्टर बनना चाहता है, लेकिन उसे गांव से बाहर जाने की इजाजत नहीं है। उसके गांव का स्कूल भी जिस सामुदायिक भवन में चलता था, उसे माओवादियों ने बारूद से उड़ा दिया। यही स्थिति गांव के अन्य बच्चों की भी है, जो माओवादियों के खौफ के चलते गांव में ही कैद होकर रह गए। उनके चहेरों पर सपने दफन होने की छटपटाहट दिखती है।
लाल गलियारे के गांवों में जो बात सबको परेशान करती है, वह है स्कूलों के खंडहर भवन। कमोवेश यह नजारा सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा और अबूझमाड़ के घोर माओवादी प्रभावित ज्यादातर गांवों में दिख जाएगा। गांव वालों और सरकारी अमले बताता है, ये भवन माओवादियों ने उड़ाए हैं। वे नहीं चाहते कि इन स्कूल या सामुदायिक भवनों में सीआरपीएफ का ठहराव हो या सरकारी पढ़ाई हो। माओवादी रह चुकी सूदा कहती हैं, माओवादी सरकारी स्कूल और सरकारी पाठ के विरोधी हैं।
सरकारी स्कूलों के सामानान्तर माओवादियों के आंध्रप्रदेश और� ओडिशा सीमा पर दक्षिण बस्तर में स्कूल संचालित हो रहे हैं। सूदा खुद ऐसे स्कूलों में चिकित्सा शिक्षा का ज्ञान लेकर माओवादी संगठन में पांच साल तक नर्स रह चुकी है। प्रदेश में सरकारी स्कूलों में जहां प्रवेशोत्सव मनाया जा रहा है, वही ंमाओवादियों के विद्यालयों में बच्चों की आवाजाही शुरू हो गई है।
तैयार हो रहा है माओवादी कैडर
संयुक्त राष्ट्र की ओर से पिछले साल� जारी हुई भारत की कंट्री रिपोर्ट में माना गया कि माओवादी छत्तीसगढ़ में खुद के विद्यालयों से कैडरों का चुनाव कर रहे हैं। इस तथ्य को केन्द्रीयगृह मंत्रालय भी स्वीकार कर चुका है। माओवादियों ने इन विद्यालयों के लिए आदिवासियों की धार्मिक मान्यताओं, संस्कृति, परंपराओं और व्यावहारिक ज्ञान से संबधित प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए अलग अलग पाठ्यक्रम बनाएं हैं। इनमें सैन्य शिक्षा और वनोपज का ज्ञान और वन औषधियों से चिकित्सा शिक्षा को अनिवार्य रखा है। ये पाठ्यक्रम गोंडी भाषा में हैं, जिन्हें उच्चशिक्षित और आदिवासी संस्कृति के जानकारों ने तैयार किए हैं।
नियमित होते हैं स्कूल
माओवादी संगठन में कमाडंर रह चुके भद्रू बताते हैं, कोई भी बच्चा इन स्कूलों में आने के बाद इसलिए टिके रहता है कि उसे इसमें जड़ से जोड़े रखने का व्यावहारिक पाठ़यक्रम पढऩे को मिलता है। इन स्कूलों में योग्य और अनुभवी शिक्षकों की भर्ती की गई है, जो नियमित स्कूल आकर बच्चों को पढ़ाते हैं। सरकारी स्कूलों में लगातार शिक्षकों की अनुपस्थिति और लचर शिक्षा व्यवस्था के कारण भी माओवादियों के स्कूल गांव वालों को प्रभावित करते हैं।
नए शिक्षा सत्र के साथ ही इन स्कूलों का टाइम टेबिल निर्धारित हो चुका है। सुबह साढ़े दस बजे से शाम 4 बजे स्कूल चल ते हैं। इनमें माओवादियों के शहीदी सप्ताह या बंद के दौरान अवकाश दिया जाता है। बारिश या अन्य कोई आपदा के समय भी स्कूल बंद रहते है। दंतेवाड़ा के पुलिस अधीक्षक कमलोचन कश्यप भी इन स्कूलों के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि गांव वालों की तरफ से सहयोग नहीं मिलने के कारण कार्रवाई में मुश्किल आ रही है।
यहां उम्मीद की 100 प्रतिशत किरणें
इन माओवादी प्रभावित गांवों में उम्मीद की भी किरणें चमकती हैं। जहां सीआरपीएफ के कैम्प चल रहे हैं, उसकेआसपास शासकीय सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल संचालित हैं। ऐसे स्कूलों में बच्चों में माओवाद से छुटकारे की तलब दिखती है। पारनाल गांव में माओवादियों के विरोध के बाद भी इस साल १२वीं की परीक्षा में 22 छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया। सभी पास हो गए। यानी १०० प्रतिशत परिणाम आया। दसवीं का परीक्षा परिणाम भी 98 प्रतिशत रहा।
गांव बदले पर नजारा नहीं
बस्तर संभाग के माओवादी प्रभावित गांवों में जब पत्रिका टीम पहुंची तो गांव वाले दहशतगर्दी की इन पाठशालाओं के बारे में बोलने से कतराते रहे। माओवादी प्रभावित एक ग्राम पंचायत के सरपंच कहते हैं, बंदूक का खौफ दिखा कर आदिवासी माता पिताओं को सरकारी स्कूलों की जगह पाठशालाओं में बच्चों का दाखिला करने को मजबूर किया जाता है। गांव में जिंदा रहना है तो उनकी पाठशालाओं में तो जाना होगा। पुलिस के आंकड़ों के अनुसार आंध्रप्रदेश की सीमा से लगे गावों जगरगुंडा, बासागुड़ा, मद्देड़, गंगालूर, बैरमगढ़ और किरंदुल के बीच पहुंचविहीन लगभग 90 गांवों में माओवादी पाठशाला चला रहे है।
वैकल्पिक व्यवस्था भी फेल
घने जंगलों के बीच पहुंच विहीन गांवों में रह रहे बच्चों तक सरकार स्कूली शिक्षा पहुंचाने में विफल रही है, जब कि शिक्षा मंत्री केदार कश्यप यहीं से प्रतिनिधित्व करते हैं। शिक्षा का माओवादी प्रभावित गांवों तक नहीं पहुंचने का प्रमुख कारण सड़क और आवागमन के� साधनों की कमी भी है। सुकमा के एक अधिकारी ब ताते हैं, माओवादियों के बारुद से बचाने के लिए दस बारह गांवों का कलस्टर बनाकर पोटा केबिन स्कूल ब नाए गए हैं। ये स्कूल भी माओवादियों के खौफ के कारण बच्चों को ज्यादा आकर्षित नहीं कर पाए हैं
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