Saturday, October 10, 2015

हमारी जड़ों को ही न कुतर दे यह असहिष्णुता -बद्री नारायण

हमारी जड़ों को ही न कुतर दे यह असहिष्णुता

Rising intolerance

हिंदी के प्रसिद्ध कवि मुक्तिबोध जब कह रहे थे कि अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब, तब शायद उन्हें भान रहा होगा कि धीरे-धीरे भारतीय समाज अपने भीतर अनेक तरह के मठों एवं गढ़ों को सृजित करता जा रहा है। ये मठ और गढ़ राज-सत्ता, सांप्रदायिक गढ़, जातिवादी गढ़ जैसे ढांचों को सृजित करते रहे हैं, जो हमारी अभिव्यक्तियों पर अनेक बार अंकुश लगाकर आलोचनात्मक जनचेतना के विकास में बाधा खड़ी करते रहे हैं। सांप्रदायिक, जातिवादी एवं क्षेत्रवादी चेतना अपने विचार एवं सोच से किसी भी तरह के भिन्न विचारों, शोधों एवं ज्ञान के रूप को सहन नहीं करना चाहती है। विभिन्नता, बहुलता एवं अनेक तरह के वाद-विवाद एवं संवाद को, जो भारतीय समाज की आंतरिक शक्ति रही है, यह खत्म कर देना चाहती है। चिंतनीय है कि धीरे-धीरे यह रूढ़िवादी चेतना, फासीवादी, अधिनायकवादी स्वरूप ग्रहण कर हिंसक रूप लेती जा रही है।

दादरी के बिसाहड़ा में खाने में विभिन्नता के कारण एवं खाने की पसंद के अधिकार का उल्लंघन कर इकलाख की हत्या, इतिहासकार जेम्स लेन की लिखी किताब शिवाजी- हिंदू किंग इन इस्लामिक इंडिया का विरोध, शिकागो यूनिवर्सिटी की संस्कृतिवेत्ता वैंडी डोनिगर की पुस्तक द हिंदूज- एन अल्टरनेटिव हिस्टरी का विरोध भारतीय समाज में विकसित हो रही इन्हीं ‘असहिष्णुता’ का प्रतीक है। इन प्रवृत्तियों के कारण बन रहे माहौल में न हम अपने मन की बात से भिन्न कुछ सुनना चाहते हैं, न कुछ समझना चाहते हैं। नेहरू और गांधी ने भारतीय समाज एवं राज्य में विभिन्नता एवं बहुलता के सम्मान का जो सामाजिक पर्यावरण तथा राज्य की सांस्कृतिक नैतिकता विकसित की थी, उसका हो रहा विरोध भी समाज में बढ़ रही असहनशीलता एवं सांप्रदायिकता की राजनीति की बढ़ती जा रही प्रक्रिया का गुणात्मक रूपांतरण है। यह एक भिन्न सामाजिक राजनीति का आगाज है, जिसमें बोलने, सोचने एवं विचार करने की छूट घातक होती जाएगी।

आज धार्मिक एवं जातीय भावनाओं के आहत होने के नाम पर पुस्तकों एवं इतिहास लेखन पर मुकदमा कर, एफआईआर दर्ज कर और परिजनों को डराकर बौद्धिकों की अभिव्यक्ति एवं ज्ञान सृजन की स्वतंत्रता छीनी जा रही है। डी एन झा के प्राचीन भारतीय समाज में मांस खाने की संस्कृति पर शोध का प्रश्न हो, कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या, अंधविश्वास का विरोध करने वाले नरेंद्र दाभोलकर की हत्या का या तमिल लेखक मुरुगन के दलित संस्कृति पर किए गए शोध के हिंसक विरोध का- सबको एक ही प्रक्रिया का हिस्सा माना जाना चाहिए।

अस्मिता चाहे जातीय हो, क्षेत्रीय एवं धार्मिक, अपने प्रारंभ में तो वे सामाजिक समूहों को पहचान दिलाती है, पर कुछ समय बाद अस्मिताओं की वही पहचान रूढ़ हो जाती है और ‘एकमात्र एक’ पहचान की वकालत करते हुए अपने ही सामाजिक समूह की बहुल एवं हर क्षण बदलते जाने वाले पहचानों के विकास को अवरुद्ध कर देती है। उसे जड़ अस्मिता में बदल देती है, जिसका नेतृत्व उन समाजों एवं धर्मों की अस्मिता की राजनीति की रोटी सेंकने वाली शक्तियां करने लगती हैं। लिहाजा हमें देखना होगा कि असहिष्णुता, भय एवं असंयम की चेतना समाज के आधार तलों में पहुंचकर कहीं हमारे समाज वृक्ष की जड़ों को कुतर न दे। ऐसे में आलोचनात्मक शक्तियों वाले चिंतनशील जन समाज को खुद को जगाना होगा एवं औरों में भी ऐसी प्रवृत्तियों के प्रति सजग रहने की चेतना विकसित करनी होगी।

-लेखक जेएनयू में प्राध्यापक है

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