Manufactured Rebellion बनाम Manufactured Silence
कुछ समय पहले जब लोग प्याज़ की माला पहने बैंकों में जमा करने जा रहे थे, एक क़मीज़ के साथ एक किलो प्याज़ देने का दावा कर रहे थे तब चैनलों पर ऐसी तमाशाई ख़बरें बन रही थीं । प्याज के दाम चुनाव के बाद भी बढ़े लेकिन वो लोग माला पहने नज़र नहीं आए । तब वो बिना प्याज़ खाने का उपाय बताने लगे । दाल के दाम तो आसमान तक चढ़े लेकिन कोई दाल लेकर बैंक जाते नहीं दिखा । प्याज़ की माला पहनने वाले ने दाल की माला क्यों नहीं पहनी ? बैंक क्यों नहीं गए ? क्या प्याज़ पर विरोध करने वालों का विरोध manufactured rebellion था ? क्या दाल पर चुप रहने वालों की चुप्पी manufactured silence है ?
लेखकों ने जब पुरस्कार लौटाने शुरू किये तो वित्त मंत्री जेटली ने इसे मोदी और मोदी सरकार के विरोध में ‘ manufactured rebellion’ का नाम दिया । जो भी सत्ता में होता उसे धरना प्रदर्शन बनावटी और साज़िशन विद्रोह लगता है । इसलिए हर राज्य में प्रदर्शन करने वाले लठियाये जाते हैं । खदेड़े जाते हैं । वित्त मंत्री ने जो कहा वो नया नहीं है । शब्द ज़रूर नया और दिलचस्प है । सत्ता के इस रवायती चरित्र को एक नया और आक्रामक नाम दिया है जो हर आवाज़ को साज़िश की नज़र से देखती है । जिस तरह से manufactured rebellion होता होगा उसी तरह से manufactured argument भी होता ही होगा !
पुरस्कार लौटाने के संदर्भ में एक नई थ्योरी लाँच हुई है । दीवार फ़िल्म में विजय अपने थानेदार भाई से कहता है कि मैं अपराधी हूँ तो वो दुनिया भी अपराधी है जिसने मुझे बनाया है । वो कहने लगता है ” जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर लिखा मेरा बाप चोर है ।” विजय इस संवाद को कहते कहते झुँझलाने लगता है । थानेदार भाई बिना झुँझलाये सुन रहा होता है । विजय जितनी बार ये कहता है, थानेदार भाई की नज़र में अपराधी साबित होता जाता है । वो उस आदमी का साइन लेने नहीं जाता है बल्कि अपने भाई को गिरफ़्तार करने का इरादा मज़बूत कर लेता है ।
क्या आपने तब पुरस्कार लौटाया? क्या आपने चौरासी के दंगों का विरोध किया ? क्या आपने आपातकाल का विरोध किया ? यह नया पैमाना है । नेता कांग्रेसी से रातों रात भाजपाई हो सकता है, भाजपाई से सपाई हो सकता है लेकिन लेखक फ़िल्मकार और वैज्ञानिक को सवाल उठाने से पहले कांग्रेस विरोधी होने का प्रमाण देना होगा । क्या यह साबित किया जा रहा है कि कांग्रेस राज में हुए ज़ुल्मों सितम का कोई विरोध ही नहीं हुआ ? सिख दंगों की रिपोर्टिंग न हुई होती तो आप जानते कैसे ? काश उस वक्त भी गुजरात दंगों के वक्त की तरह चैनलों की भरमार होती ।
इसके बाद भी क्या यह सभी सरकारों( यूपीए एनडीए ) की नाकामी नहीं है कि सिख विरोधी नरसंहार में एक भी दोषी जेल नहीं गया । सवाल पूछने वालों से सवाल पूछा जाए कि क्या आपने गुजरात दंगों के वक्त आपातकाल के वक्त विरोध किया था ? आपने क्यों नहीं इस्तीफ़ा दिया था ? आपने भागलपुर दंगों के वक्त क्या किया था या हाशिमपुरा दंगों के वक्त आपने लेख लिखा था ? क्या वे बीजेपी समर्थक प्रतीत नहीं होते हैं ? बीजेपी तो तब वजूद में नहीं थी फिर उसके कई बड़े नेताओं ने आपातकाल की क्रूरता को भुगता तो था ही लेकिन क्या मौजूदा बहस में जीत हासिल करने के लिए संघ के प्रतिष्ठित हस्ती नानाजी देशमुख का लेख भी बाहर किया जाए कि उन्होने सिख नरसंहार में शामिल किन संगठनों का नाम लिया है ?
इस तू तू मैं मैं या is equal too या जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ से क्या लाभ ? क्या किसी को बीजेपी में रहने के बाद बीजेपी पर सवाल करने का हक नहीं ? क्या उसका सवाल इसलिए सवाल नहीं कि वो कभी बीजेपी में रहा । तब तो बीजेपी में ही कई बड़े लोग कांग्रेस में रह चुके हैं । ये दीवार फ़िल्म के संवाद का नया रूप है बल्कि ‘ जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ’ का ‘manufactured improvisation’ है । हम ऐसी दलीलों से कहीं नहीं पहुँचेंगे ।
सवाल है क्या हिंसा और भय मुक्त समाज और राजनीति का माहौल बनाने में दोनों पक्ष सक्रिय हैं ? ईमानदार हैं ? इन सवालों को कांग्रेस बनाम बीजेपी के चक्कर में मत डालिये ? दोनों को खुद से पूछना चाहिए और सबको दोनों से । बीजेपी विरोध अंध विरोध न हो लेकिन उसी तरह कांग्रेस विरोध अंध विरोध न हो । दोनों दलों की अहमीयत है और दोनों ही हकीकत हैं । हिंसा और भय का माहौल सरकार सापेक्ष भी होता है और सरकार से इतर भी । दोनों ही स्थिति में भरोसा दिलाने का काम सरकार का ही है । हिंसक हरकतें भले ही गुमनाम और अनौपचारिक संगठनों की होती है पर क्या औपचारिक संगठन उनकी हिंसा की निंदा करते करते सोच का समर्थन नहीं करने लगते हैं ? जैसे सोशल माडिया में भाड़े के गुमनाम लठैत रखे जाते हैं उसी तरह असली समाज में भी ऐसे लठैत रखे जाते हैं । इनका संबंध किन किन विचारधाराओं या दलों से है आप खुद देख सकते हैं । एक दल या एक संगठन से बात नहीं बनेगी ।
व्यक्तिगत रूप से पूछा जा रहा है कि आपने इख़लाक़ की हत्या पर कार्यक्रम किया तो पुजारी की हत्या पर की ? फिर तो मेरा सवाल सही है कि इख़लाक़ की हत्या पर प्रधानमंत्री क्यों चुप रहे ? वो क्यों नहीं गए दोनों जगहों पर? क्यों बीजेपी से जब पूछा जाता है कि प्रधानमंत्री क्यों चुप रहे तो जवाब मिलता है कि राजनाथ सिंह ने निंदा की, वित्त मंत्री ने निंदा की । बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह क्यों नहीं गए दादरी या वो क्यों नहीं गए पुजारी की हत्या पर शोक जताने ? क्या कलबुर्गी की हत्या पर शोक जताने के लिए येदुरप्पा का जाना बीजेपी का जाना नहीं माना जाए या केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का दादरी जाना नहीं माना जाए क्योंकि उनसे बड़े नेता तो गए नहीं ? दलितों पर नरसंहार के ख़िलाफ़ बोलने वाले क्या सिर्फ कांग्रेसी थे ? हरियाणा में मिर्चपुर या महाराष्ट्र में खैरलांजी में दलितों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा जितना कांग्रेस बीजेपी ने नहीं बोला होगा उससे कहीं ज्यादा स्वतंत्र रूप से लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बोला होगा । कोई तुक है कि संघ प्रमुख मिर्चपुर क्यों नहीं गए ? संघ प्रमुख दादरी क्यों नहीं गए ? ये बहस का तू तू मैं मैं पैमाना है । बात किसी को बहस में हरा देने की नहीं है ।
हिंसा हिंसा है । लेकिन जो हिंसा सामूहिक प्रवृत्ति की हो उससे सभी को सतर्क रहना चाहिए । ऐसी हिंसा का बचाव करती हुई कोई पार्टी भले ही बहस जीत ले लेकिन उसका अपना चरित्र भी बदल जाता है । वो आने वाले दिनों में ऐसे संगठनों के भँवर में फँस जाती है । दर्शक या जनता को सतर्क रहना चाहिए । लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल जरूरी हैं । मगर यही अंतिम और अनिवार्य हैं कम से कम ऐसा सोचने से पहले आप जयप्रकाश नारायण को ही पढ़ लीजिये जो पार्टी विहीन लोकतंत्र की बात करते थे ।
शुक्रवार को मालवीय नगर मार्केट के पास लगी अपनी कार तक पहुँच रहा था । अंधेरे को चीरती आई उस आवाज़ ने मुझे मुड़ने के लिए विवश कर दिया । नफ़ीस अंग्रेजी बोलते हुए वो शख्स अपनी क़मीज़ का बटन खोलने लगा । मैंने पूछा कि ऐसा क्यों कर रहे हैं ? छाती पर चीरे के गहरे निशान दिखाते हुए उन्होंने कहा कि हमारे परिवार के लोगों ने एक साथ तीन फ़्लैट बुक किया । बिल्डर हमारी जीवन भर की कमाई का एक करोड़ लेकर भाग गया है । उस सदमे में मेरा और नौ सौ लोगों का परिवार टूट गया है । दो दो बार बाइपास सर्जरी हुई है । हम टूट गए हैं । कोई सरकार हमारी नहीं सुनती है । न कांग्रेस की न बीजेपी की ।
धार्मिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक विविधता के हक में खंड़े होना सीखिये । भीड़ के हक में खड़े होने वाले लोग एक दिन ठगे जाते हैं । भीड़ तंत्र की तरकीब ही यही है । किसी तरह भीड़ में शामिल करो ताकि सारे नागरिक सवालों को भावनात्मक सवालों से धकिया जाए । उस सज्जन ने बताया कि फ़रीदाबाद के जिस बिल्डर ने हमारी कमाई लूट ली उसकी वकालत करने वाले वक़ील सरकार के बहुत बड़े प्रतिनिधि हो गए हैं । आपको लगता है कि रवीश जी कि हमारा कुछ होगा ?
कायदे से सवाल तो जनता का होना चाहिए । उस सज्जन की हताशा के आगे मुझे यह सवाल कितना बेतुका लग रहा है कि पुरस्कार लौटाने की बहस में कांग्रेस जीतेगी या बीजेपी । बेतुका से ज्यादा डरावना लग रहा है कि क्या बीजेपी या कांग्रेस उस ताक़तवर बिल्डर या वक़ील से इन लोगों को इंसाफ़ दिला पाएगी ? हिन्दू राष्ट्र या सेकुलर राष्ट्र में कोई ठगे जाने के बाद बाइपास सर्जरी से क्यों गुज़र रहा है ? भीड़ तंत्र और उसकी हिंसा का विरोध कीजिये वर्ना एक दिन आप भी इसका शिकार होंगे । क्योंकि इस तंत्र के ऊपर वही बिल्डर और उद्योगपति बैठा है जो आपको शिकार बनाएगा । हर वक्त पत्रकार नहीं आएगा ।
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