मुसलमान-वध वर्णाश्रम की जरूरत है!
भारत की सबसे निर्धन-कमजोर-सत्ताहीन आबादी-दलितों और मुसलमानों को बे-रोक, बेहिचक मारना और भी आसान हो गया है
जनता चुनाव की रैलियों में ये सवाल क्यों नहीं पूछती अपने इस अंतर्राष्ट्रीय नेता से? क्या जनता सिर्फ इस बात से खुश है कि और कुछ हुआ हो या न हुआ हो लेकिन म्लेच्छ-मुसलमानों को सही काटा जा रहा है? क्योंकि डेढ़ साल में सिर्फ यही फर्क आया है कि भारत की सबसे निर्धन-कमजोर-सत्ताहीन आबादी-दलितों और मुसलमानों को बे-रोक, बेहिचक मारना और भी आसान हो गया है. तो क्या इस देश को बस यही चाहिए? क्या वह सिर्फ इस बात से राजी-खुशी है कि और कुछ करो न करो बस मुसलमानों को ‘ठीक’ कर दो? दलितों का सिर कुचल दो? विकास की वे बातें सब छलावा थीं.
सवाल यही है कि मुस्लिमों के प्रति हिंसा को बढ़ाने के लिए इतिहास की किताबों तक को प्रोपेगेंडा पम्फलेट में बदल रही ये व्यवस्था किस लक्ष्य को पाना चाहती है? 13 प्रतिशत की आबादी वाले सबसे निर्धन और हशियाग्रस्त मुस्लिम समाज से दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देश को क्या वाकई खतरा हो सकता है? भारत के किसी भी हिस्से में इतने मुसलमान एक साथ नहीं रहते कि देश की संप्रभुता को कोई खतरा बन जाएं. भारत का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं जहां इनकी एकछत्र मर्जी चलती हो. कृषि-उद्योग-कारीगरी-श्रम में ये न सिर्फ दूध में चीनी की तरह घुले हुए हैं बल्कि सबसे निचले पायदान पर हैं. राजनीति, नीति और अर्थतंत्र में ये अपने सभी हकों से वंचित हैं, ऐसे में मुस्लिम-वध के लिए इतनी संवेदनहीन और खून की प्यासी जमीन कैसे तैयार की गई? और सबसे बड़ा सवाल यह कि इसकी जरूरत क्यों है?
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