यहाँ गांव में है सिर्फ़ कर्ज़, औरतें और बच्चे
- 9 अक्तूबर 2015साझा कीजिए
मकराजपेटा में अब सिर्फ़ औरतें और बच्चे ही रोते हैं. ये रूदन इतना ख़ामोशी से होता है कि शायद ही आप सुन पाएं.
औरतें रोती हैं अपने मर्दों के लिए और अपने बच्चों के लिए. बच्चे रोते हैं अपने उन पिताओं के लिए, जो ग़ायब हैं. कोई नहीं जानता वो कहां गए.
योगेंद्र यादव के साथ संवेदना यात्रा के दौरान जब मैं तेलंगाना के मेडक ज़िले के गाँव मकराजपेटा पहुँचा तो अँधेरा होने को था.
पढ़ें पहली कड़ीः पपड़ाती ज़मीन, सूखते होंठ, जर्जर जिस्म
बड़ी तादाद में महिलाएं गाँव के एक स्कूल के बाहर चौपाल पर इकट्ठा थीं. एकबारगी लगा कि शायद सूखे और क़र्ज़ में लिपटे इस गाँव की महिलाएं बड़ी जागरूक हैं और आवाज़ उठाने पहुँची हैं. मगर ऐसा नहीं था.
ज़्यादातर वो ख़ामोश थीं और उनके साथ मौजूद बुज़ुर्ग अपने उन बेटों और दामादों की बात बताने को बेताब थे, जिन्होंने या तो पिछले कुछ बरसों में जान दे दी है या जो गाँव छोड़कर कहीं गुम हो गए हैं.
सूखा यहां पहाड़ की तरह टूटा है.
पढ़ें, विस्तार से
तेलंगाना के मेडक ज़िले के चेगुंटा मंडल में मकराजपेटा वो गाँव है जहां मुश्किल से आधा घंटे में मेरे सामने सूखा, बर्बाद फ़सल और क़र्ज़ के बीच दबी औरतों की कराहें सुनाई पड़ने लगी थीं.
लक्ष्मी की उम्र मुश्किल से 20-22 साल होगी. गोद में बच्ची है और वो खुद विधवा हो चुकी हैं.
वो बताती हैं कि पिछले की तरह इस साल भी जब पानी नहीं गिरा तो उनके पति ने गाँव के एक साहूकार से पानी और बीज के लिए क़र्ज़ उठा लिया था.
पढ़ें दूसरी कड़ीः सिर्फ़ 1411 शेर बचे हैं, किसान अभी बहुत हैं!
ये क़र्ज़ दो साल में एक लाख 20 हज़ार रुपए पर पहुँच गया. मगर सूखी ज़मीन सब कुछ लील गई. पति ने मज़दूरी की कोशिश की, मगर नहीं मिली, क्योंकि गाँव में दूसरे किसानों की ज्वार की तक़रीबन पूरी खेती ही खराब हो चुकी है.
लक्ष्मी बताती हैं, "ज़्यादा बाक़ी (क़र्ज़) हो गया तो एक दिन उसने खेत में ही दवा पी ली. कुछ दिन बाद वो मर गया. हमने क़र्ज़ लिया था पर नहीं दे पाए. मेरे पति 30-35 साल के थे. बच्चा अभी छोटा है. क्या करें साहब."
लक्ष्मी से जब मैं बात कर रहा था तो पीछे खड़ी तीन बेटियों और एक बेटे की मां पद्मा चुपचाप रो रही थीं. पूछने पर पता चला कि उनके पति ने ख़ुद को पेड़ से लटका लिया था और मर गए.
क़र्ज़
पद्मा के पति ने पांच फ़ीसदी पर क़र्ज उठाया था. फ़र्क सिर्फ़ ख़ुदकुशी के तरीक़े का है.
वो बताती हैं, "यहां सबके ऊपर क़र्ज़ है, जो लोगों ने 4 से 5 फ़ीसदी पर उठाया है. जिनसे हमने क़र्ज़ लिया है वो इस गाँव में नहीं रहते. जिन्होंने पैसा दिया, उनका नाम क्यों लेना, उन्हें क्यों बदनाम करना. वो हमें परेशान नहीं करते. हम ही ख़ुद परेशान हैं."
मगर पद्मा साहूकारों का नाम नहीं लेना चाहतीं.
बच्चों और औरतों की इस भीड़ में खड़ी नपेर विजय का पति आठ साल पहले घर से भागा था. उन्हें पता नहीं कि वो कहां है, ज़िंदा है या मर गया है.
वो कहती हैं, "जब बारिश नहीं हुई तो उसने क़र्ज़ लिया पर उतार नहीं पाया. उसने नशा करना शुरू कर दिया. इससे बीमार हो गया और एक दिन हमें छोड़कर चला गया."
"मुझे कोई ख़बर नहीं कि कहां जा रहा हूँ. दो बच्चे हैं मेरे, जिन्हें स्कूल भेजती हूँ और दिन भर दूसरों के खेत में मज़दूरी करती हूँ. अब वो भी नहीं मिलती."
नपेर विजय के बाद मैंने जब उनके साथ खड़ी एक अधेड़ उम्र की महिला बालमणि से बात करनी शुरू की तो नई कहानी सामने थी.
सूखे ने सूना किया घर
ये कहानी सूखे खेत और सूखी ज़मीन की ही नहीं, सूखे हुए घर की भी है. उनकी बेटी की शादी ने क़र्ज़ इतना बढ़ाया कि घर का मुखिया हताशा में एक दिन बगैर बताए कहीं चला गया और फिर उसके मरने की ख़बर आई. गाँव के लोगों से बालमणि को इसका पता चला.
बालमणि ने बताया, "हमें कहीं उसका पता नहीं चला. वो बेटी की शादी करना चाहता था. इतना चावल और ज्वार नहीं पैदा कर पाए कि शादी कर सकें तो क़र्ज़ ले लिया था. फिर बेटी की डिलीवरी पर भी पैसा लिया. गाँव वालों ने पैसा वापस मांगा. नहीं दे पाया और एक दिन मुझे बताए बिना चला गया."
"दो महीने पहले घर आया था. बोलता था कि कर्ज़ चुकाऊंगा. मगर नहीं हुआ और फिर कहीं ग़ायब हो गया. हमें तो उसके मरने का ही पता है."बालमणि अब मज़दूरी करती हैं ताकि पेट भर सकें.
स्वराज अभियान के तेलंगाना कार्यकर्ता आदिल मोहम्मद के मुताबिक़, "जिसने सूद पर पैसा दिया अब वो भी सामने नहीं आते. मगर क़र्ज़ खड़े हैं और ब्याज भी. ब्याज दर इतनी है कि अच्छे से अच्छा कमाने वाला उद्योगपति भी नहीं भर सकता. अब गाँव में क़र्ज़ के सिवा कुछ दिखता है तो वो हैं औरतें और बच्चे."
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