कोई समय ऐसा नहीं रहा जब लेखकों ने गलत का प्रतिरोध न किया हो
प्रियदर्शन
चाहे 1975हो या 1984 या
2002 या फिर 2015, लेखक
हर दौर के गलत का उतना ही तीखा प्रतिरोध करते रहे हैं
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या से लेकर दादरी तक पर लेखकों के संगठित प्रतिरोध के बाद साहित्य
अकादेमी ने जो बयान जारी किया है, उसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने क्रांतिकारी बताया है. पुरस्कारों, अनुवादों और दो पत्रिकाओं के बीच ऊंघती अकादेमी ने शायद पहली बार लेखकीय विरोध
के दबाव में वक्तव्य जारी कर अपने जीवित होने के प्रमाण दिए हैं. बेशक, लेखकों की यह शिकायत अपनी
जगह जायज है कि उसने यह वक्तव्य देने में बहुत देर की और यह बहुत कम है. लेकिन उनका यह प्रतिरोध इस
मायने में सफल है कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देशव्यापी
ध्यान खींचा है. इस दौरान लेखकों को लगातार यह
तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है. उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया
कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी
घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया.
यह तोहमत फिर से यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे
छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं.
जो लोग पूछ रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका थी, वे पलट कर उन
किताबों को पढ़ लें जिनमें आपातकाल के ढेर सारे ब्योरे हैं. 19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और
पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक
फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया. लेकिन इमरजेंसी के उस दौर में सम्मान लौटाना तो एक
मामूली बात थी, फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर
प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी. नेताओं के अलावा यह लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों की ही जमात थी जिसने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ सबसे
तीखी लड़ाई लड़ी.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी
शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके खिलाफ खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी. इसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने
का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी. बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी कुछ कविताएं अपने ढंग से सत्ता और इंदिरा पर बेहद तीखी चोट करती हैं.
1984 की सिख विरोधी हिंसा के विरोध में भी खुशवंत सिंह जैसे कांग्रेस समर्थक लेखक तक ने पद्मभूषण वापस कर दिया था. बेशक, वह हिंसा ख़ौफ़नाक और
शर्मनाक दोनों थी, लेकिन उसे राज्य की वैचारिकी का वैसा समर्थन नहीं था जैसा इन दिनों कई तरह के हिंसक और हमलावर विचारों को मिलता दिखाई
पड़ता है. फिर भी अपने-अपने शहरों में लेखकों ने प्रतिरोध किए, राहत देने की कोशिश की और उस विवेक का बार-बार आह्वान किया जो लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है.
चाहें तो याद कर सकते हैं कि उसी दौर में अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखीकविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर
लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश
शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो. / मैं उस
पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं / अगर
उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम
काट दो.’
यह अलग बात है कि अवतार सिंह पाश को कविता पढ़ते हुए आतंकवादियों ने गोली मार दी. इस पूरे दौर में लेखकीय और बौद्धिक प्रतिरोध अपने चरम
पर दिखता है. पंजाब में गुरुशरण सिंह जैसा नाटककार है जो जनवादी मूल्यों के पक्ष में और आतंकवादियों के
ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लड़ता रहा. इसी दौर में सफ़दर हाशमी मारे जाते हैं और पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा जैसे सुलग उठती है. छोटे-बड़े शहरों के नुक्कड़ों
पर प्रतिरोध की सभाएं सजने लगती हैं. 1989 में जब गैरकांग्रेसी दल राष्ट्रीय बंद का आह्वान करते हैं तो राजनीतिक दलों के समानांतर सांस्कृतिक जत्थे भी
पुलिस की लाठियां सहते हैं और जेल जाते हैं. 1992 में मुंबई के दंगों में राजदीप सरदेसाई अपनी रिपोर्ट्स में
कांग्रेस और एनसीपी की विफलता पर सवाल खड़े करते हैं और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट इन खबरों का भरपूर हवाला देती है. जाहिर है, यह सारा
विरोध कांग्रेसी सरकारों के ख़िलाफ़ था जिसमें बेशक, कुछ समाजवादी और वाम वैचारिकी की भूमिका थी, मगर उसका राजनीतिक या सत्तामूलक समर्थन नहीं था.
लेकिन नब्बे के दशक में जब बीजेपी ने सांप्रदायिकता के राक्षस को नए सिरे से खड़ा किया तो विरोध की धुरी कांग्रेस से मुड़कर उसकी तरफ़ चली आई. 2002 की गुजरात की हिंसा के ख़िलाफ़ बहुत सारी कविताएं लिखी गईं. मंगलेश
डबराल की सुख्यात कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जितनी बड़ी राजनीतिक कविता है, उससे कहीं ज़्यादा बडी मानवीय कविता है. मंगलेश अपनी
मद्धिम आवाज़ में लिखते हैं- ‘और जब मुझसे पूछा गया
तुम कौन हो / क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन
का नाम / कोई मज़हब कोई ताबीज / मैं कुछ नहीं कह
पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था / सिर्फ एक रंगरेज़ एक
मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार / जब मैं अपने
भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की /
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे / अल्युमिनियम के तारों की
साइकिल के नन्हे पहिये / तभी मुझ पर गिरी एक आग,
बरसे पत्थर / और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ
फैलाये / तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई
जवाब नहीं आता.‘
गुजरात की इसी हिंसा के त्रासद
पहलुओं को लेकर असगर वजाहत ‘शाह आलम की रूहें’ जैसी नायाब किताब तैयार कर देते हैं. बहरहाल, लेखकीय प्रतिरोध की यह सूची बहुत लंबी है और वह सिर्फ भाजपा विरोधी नहीं है. कुछ ही साल पहले हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद को लेकर
दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के रवैये से नाराज़ सात लेखकों ने अपने हिंदी अकादमी सम्मान लेने से इनकार कर दिया था.
जाहिर है, लेखन सत्ता
का वह प्रतिपक्ष बनाता है जिससे कभी कांग्रेस नाराज़ होती है कभी भाजपा. एक ऐसे दौर में जब बाज़ार की चमक-दमक एक हिंसक भव्यता के साथ एक
समृद्ध भारत का मिथक रच रही है, जब आर्थिक संपन्नता को छोड़कर बाकी सारे मूल्य पुराने मानकर छोड़ दिए गए हैं, जब घर-परिवार और समाज तार-तार
होते दिख रहे हैं, जब सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं क्षरण की शिकार हैं, जब ज्ञान के दूसरे अनुशासन – समाजशास्त्र, इतिहास या अर्थशास्त्र – सत्ता की जी हुजूरी करते नज़र आ रहे हैं, तब यह साहित्य ही है
जो इस पूरी प्रक्रिया का अपने दम पर प्रतिरोध कर रहा है. लेकिन उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे
पहचान और मान्यता देने से इनकार किया जा रहा है, उसे बिल्कुल अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है.
मगर उसकी मद्धिम आवाज़ जब एक सामूहिक लय धारण करती है, जब उसका कातर प्रतिरोध अपने पुरस्कार
छोड़ने का इकलौता सुलभ विकल्प आज़माता है, तब सत्ता के पांव कांपते हैं और वह उसे अविश्वसनीय
साबित करने में जुट जाती है. यह पूछतेहुए कि इससे पहले तुमने विरोध क्यों नहीं किया.।
( नथमल शर्मा जी का पोस्ट )
प्रियदर्शन
चाहे 1975हो या 1984 या
2002 या फिर 2015, लेखक
हर दौर के गलत का उतना ही तीखा प्रतिरोध करते रहे हैं
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या से लेकर दादरी तक पर लेखकों के संगठित प्रतिरोध के बाद साहित्य
अकादेमी ने जो बयान जारी किया है, उसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने क्रांतिकारी बताया है. पुरस्कारों, अनुवादों और दो पत्रिकाओं के बीच ऊंघती अकादेमी ने शायद पहली बार लेखकीय विरोध
के दबाव में वक्तव्य जारी कर अपने जीवित होने के प्रमाण दिए हैं. बेशक, लेखकों की यह शिकायत अपनी
जगह जायज है कि उसने यह वक्तव्य देने में बहुत देर की और यह बहुत कम है. लेकिन उनका यह प्रतिरोध इस
मायने में सफल है कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देशव्यापी
ध्यान खींचा है. इस दौरान लेखकों को लगातार यह
तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है. उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया
कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी
घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया.
यह तोहमत फिर से यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे
छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं.
जो लोग पूछ रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका थी, वे पलट कर उन
किताबों को पढ़ लें जिनमें आपातकाल के ढेर सारे ब्योरे हैं. 19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और
पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक
फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया. लेकिन इमरजेंसी के उस दौर में सम्मान लौटाना तो एक
मामूली बात थी, फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर
प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी. नेताओं के अलावा यह लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों की ही जमात थी जिसने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ सबसे
तीखी लड़ाई लड़ी.
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी
शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके खिलाफ खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी. इसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने
का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी. बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी कुछ कविताएं अपने ढंग से सत्ता और इंदिरा पर बेहद तीखी चोट करती हैं.
1984 की सिख विरोधी हिंसा के विरोध में भी खुशवंत सिंह जैसे कांग्रेस समर्थक लेखक तक ने पद्मभूषण वापस कर दिया था. बेशक, वह हिंसा ख़ौफ़नाक और
शर्मनाक दोनों थी, लेकिन उसे राज्य की वैचारिकी का वैसा समर्थन नहीं था जैसा इन दिनों कई तरह के हिंसक और हमलावर विचारों को मिलता दिखाई
पड़ता है. फिर भी अपने-अपने शहरों में लेखकों ने प्रतिरोध किए, राहत देने की कोशिश की और उस विवेक का बार-बार आह्वान किया जो लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है.
चाहें तो याद कर सकते हैं कि उसी दौर में अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखीकविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर
लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश
शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो. / मैं उस
पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं / अगर
उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम
काट दो.’
यह अलग बात है कि अवतार सिंह पाश को कविता पढ़ते हुए आतंकवादियों ने गोली मार दी. इस पूरे दौर में लेखकीय और बौद्धिक प्रतिरोध अपने चरम
पर दिखता है. पंजाब में गुरुशरण सिंह जैसा नाटककार है जो जनवादी मूल्यों के पक्ष में और आतंकवादियों के
ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लड़ता रहा. इसी दौर में सफ़दर हाशमी मारे जाते हैं और पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा जैसे सुलग उठती है. छोटे-बड़े शहरों के नुक्कड़ों
पर प्रतिरोध की सभाएं सजने लगती हैं. 1989 में जब गैरकांग्रेसी दल राष्ट्रीय बंद का आह्वान करते हैं तो राजनीतिक दलों के समानांतर सांस्कृतिक जत्थे भी
पुलिस की लाठियां सहते हैं और जेल जाते हैं. 1992 में मुंबई के दंगों में राजदीप सरदेसाई अपनी रिपोर्ट्स में
कांग्रेस और एनसीपी की विफलता पर सवाल खड़े करते हैं और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट इन खबरों का भरपूर हवाला देती है. जाहिर है, यह सारा
विरोध कांग्रेसी सरकारों के ख़िलाफ़ था जिसमें बेशक, कुछ समाजवादी और वाम वैचारिकी की भूमिका थी, मगर उसका राजनीतिक या सत्तामूलक समर्थन नहीं था.
लेकिन नब्बे के दशक में जब बीजेपी ने सांप्रदायिकता के राक्षस को नए सिरे से खड़ा किया तो विरोध की धुरी कांग्रेस से मुड़कर उसकी तरफ़ चली आई. 2002 की गुजरात की हिंसा के ख़िलाफ़ बहुत सारी कविताएं लिखी गईं. मंगलेश
डबराल की सुख्यात कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जितनी बड़ी राजनीतिक कविता है, उससे कहीं ज़्यादा बडी मानवीय कविता है. मंगलेश अपनी
मद्धिम आवाज़ में लिखते हैं- ‘और जब मुझसे पूछा गया
तुम कौन हो / क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन
का नाम / कोई मज़हब कोई ताबीज / मैं कुछ नहीं कह
पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था / सिर्फ एक रंगरेज़ एक
मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार / जब मैं अपने
भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की /
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे / अल्युमिनियम के तारों की
साइकिल के नन्हे पहिये / तभी मुझ पर गिरी एक आग,
बरसे पत्थर / और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ
फैलाये / तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई
जवाब नहीं आता.‘
गुजरात की इसी हिंसा के त्रासद
पहलुओं को लेकर असगर वजाहत ‘शाह आलम की रूहें’ जैसी नायाब किताब तैयार कर देते हैं. बहरहाल, लेखकीय प्रतिरोध की यह सूची बहुत लंबी है और वह सिर्फ भाजपा विरोधी नहीं है. कुछ ही साल पहले हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद को लेकर
दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के रवैये से नाराज़ सात लेखकों ने अपने हिंदी अकादमी सम्मान लेने से इनकार कर दिया था.
जाहिर है, लेखन सत्ता
का वह प्रतिपक्ष बनाता है जिससे कभी कांग्रेस नाराज़ होती है कभी भाजपा. एक ऐसे दौर में जब बाज़ार की चमक-दमक एक हिंसक भव्यता के साथ एक
समृद्ध भारत का मिथक रच रही है, जब आर्थिक संपन्नता को छोड़कर बाकी सारे मूल्य पुराने मानकर छोड़ दिए गए हैं, जब घर-परिवार और समाज तार-तार
होते दिख रहे हैं, जब सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं क्षरण की शिकार हैं, जब ज्ञान के दूसरे अनुशासन – समाजशास्त्र, इतिहास या अर्थशास्त्र – सत्ता की जी हुजूरी करते नज़र आ रहे हैं, तब यह साहित्य ही है
जो इस पूरी प्रक्रिया का अपने दम पर प्रतिरोध कर रहा है. लेकिन उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे
पहचान और मान्यता देने से इनकार किया जा रहा है, उसे बिल्कुल अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है.
मगर उसकी मद्धिम आवाज़ जब एक सामूहिक लय धारण करती है, जब उसका कातर प्रतिरोध अपने पुरस्कार
छोड़ने का इकलौता सुलभ विकल्प आज़माता है, तब सत्ता के पांव कांपते हैं और वह उसे अविश्वसनीय
साबित करने में जुट जाती है. यह पूछतेहुए कि इससे पहले तुमने विरोध क्यों नहीं किया.।
( नथमल शर्मा जी का पोस्ट )
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