खनन का नासूर, छिन गया चैन, बरबाद हो रही मैनपाट की आबोहवा
पत्रिका के लिए मैनपाट से श्वेता शुक्ला की रिपोर्ट)
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पहले यहां की हरी-भरी वादियों में आकर लोगों का दिल खुशी से झूम उठता था। मौसम की रूमानियत ऐसी होती कि लोग बार-बार यहां आने के लिए लालायित रहते, लेकिन अब एेसा नहीं है।
रायपुर. पहले यहां की हरी-भरी वादियों में आकर लोगों का दिल खुशी से झूम उठता था। मौसम की रूमानियत ऐसी होती कि लोग बार-बार यहां आने के लिए लालायित रहते, लेकिन अब यहां बॉक्साइट खनन का मंजर देखकर बरबस ही मुख से निकल पड़ता है, ओह! ये क्या हो गया..? चारों तरफ खनन की वजह से पेड़ों की अंधाधुंध कटाई होने से हरियाली का दिलखुश कर देना वाला नजारा जैसे ओझल हो गया है।
आदिवासियों की अधिकांश उपजाऊ जमीनें खनन कंपनियां निगल चुकी हैं। जगह-जगह बड़े-बड़े गड्ढों के रूप में गहरे जख्म दिखते हैं। बारूदी धमाकों के प्रदूषण से जमीनें बंजर हो रही है। बॉक्साइट निकालने के बाद जमीनों के घावों को जस का तस छोड़ दिया गया है और वे अब नासूर बनकर पूरे इलाके की खूबसूरती को तबाह कर रहे हैं। इनमें न तो खेती हो पा रही है और न ही कोई अन्य उपयोग।
एनएमडीसी और एसईसीएल की चार बॉक्साइट खदानें कुदारीडीह, बरिमा, केसरा और सपनादर से आदिवासियों को रोजगार मिल जाता था, लेकिन खनन कार्य बंद होने के बाद अब यह भी नहीं बचा। प्रदेश का शिमला माने जाने वाला यह खूबसूरत पर्यटन स्थल खुद को जिंदा रखने के लिए सिसकियां भरता नजर आ रहा है।
खनन ने लील ली नदियां
बॉक्साइट की खदानों में उत्खनन से उजड़ रहेहरे-भरे जंगल की मार सबसे ज्यादा यहां की जीवनदायिनी नदियों पर पड़ी है। सामाजिक कार्यकर्ता रजनीश पांडे कहते हैं, उत्खनन के लिए हजारों पेड़ों की बलि दे दी गई। पहले यहां 20 से भी ज्यादा छोटी-बड़ी नदियां बहती थीं। बरिमा, केसरा, मछली, घुनघुट्टा और मांड डूमढ़ोडग़ा नदियां सिकुड़ती जा रही हैं। बाकी नदियां लगभग खत्म हो चुकी हैं।
कुदारीडीह के कपिल राम माझी बताते हैं, एक समय एेसा भी था, जब जंगल जाते थे तो पहाड़ी नदियों का कल-कल मन मोह लेता था। आज प्यास बुझाने के लिए भी पानी के लाले पड़े हैं। ग्रामीणों के मुताबिक, पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण बारिश का पानी बहकर चला जाता है। अब हमें जलसंकट से भी जूझना पड़ रहा है। पहले 40 से 50 फीट पर बोरिंग में पानी मिल जाता था। अब 200 से 250 फीट खुदाई पर पानी मिलता है। कुआं, तालाब और अन्य जलस्रोत नहीं होने से हमारी जिंदगी बोरिंग के पानी के भरोसे है। खेती पूरी तरह बारिश के पानी पर ही निर्भर हो गई है।
गायब हो गया जिंदगी का चैन
कुदारीडीह के कमलेश कुमार का कहना है, खनन ने पूरे मैनपाट को खोखला कर दिया है। जब खदानें चालू थीं, तब धमाकों से पूरा क्षेत्र थर्राता था। हमारे मकानों में दरारें पड़ गईं। धूल के गुबार की परतों ने खेती घटा दी। आलू, टाउ व अन्य पैदावार पहले जितनी नहीं होती। चमरू माझी की पीड़ा है कि कम्पनियों नेहमारी जमीनों से एल्युमिनियम के पत्थर तो निकाल लिए, लेकिन खेतों के गड्ढे नहीं भरे। ये जानवरों की मौत का कारण बन रहे हैं। खेतों में दूर-दूर तक सिर्फ बॉक्साइट के बड़े-बड़े पत्थर बिखरे पड़े हैं। ग्रामीणों के मुताबिक, खदानों में पहले जमीन गई, फिर वो बंद हुई तो मजदूरी भी नहीं रही। अब दूसरों के यहां जाकर चाकरी करने के सिवाय कोई काम नहीं बचा है।
अक्टूबर में अब नहीं दिखती बर्फ की चादर
नर्मदापुर के शिक्षक कमलेश ठाकुर बताते हैं, अब पहले जैसी शीतलहर महसूस नहीं होती। अक्टूबर के महीने में सुबह जमीन और पेड़ों पर बर्फ की सफेद चादर दिखाई देती थी, लेकिन अब ऐसा नजारा विरले ही दिखता है। लगता है कुछ सालों से यहां का तापमान गड़बड़ा गया है। मौसम विभाग के सहायक वैज्ञानिक अक्षय मोहन भट्ट के मुताबिक, मैनपाट का औसत तापमान बढ़ रहा है।
सामान्य स्थिति में मैनपाट का तापमान अंबिकापुर के बराबर ही रहता है, लेकिन सर्दियों के मौसम या बारिश के बाद इसमें चार डिग्री का अंतर आ जाता है। मैनपाट का अधिकतम तापमान 37 डिग्री आंका गया है। यहां पहले जितना ठंडा मौसम नहीं रहा। मैनपाट का न्यूनतम तापमान ० या इसके आसपास ही सिमट गया है। पहले के अपेक्षा तापमान में कितना अंतर आया है, यह सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है, क्योंकि मैनपाट के पहले के डाटा मौसम विभाग के पास उपलब्ध नहीं हैं।
पत्रिका के लिए मैनपाट से श्वेता शुक्ला की रिपोर्ट)
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