6000 आदिवासी जेल में, आरोप- उनके पास माओवादी साहित्य पाया गया
रांची। पिछले कुछ सालों से नक्सल या फिर उनसे सहानुभूति रखने वालों की गिरफ्तारी की खबर को स्थानीय अखबार लगातार प्रकाशित कर रहे हैं। अक्सर ढँके हुए चेहरे, पिस्तौल, कारतूस और माओवादी साहित्य के साथ उनकी तस्वीर भी दिखाई जाती है। स्थानीय अखबार बिना तथ्यों की जांच पड़ताल किये सिर्फ पुलिस द्वारा बतायी गयी बातों को छापते हैं।
फरवरी 2012 में एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक ने चौंकाने वाली रिपोर्ट प्रकाशित की “लगभग 6000 आदिवासी जेल में हैं” और ज्यादातर के खिलाफ यहीं आरोप है कि उनके पास माओवादी साहित्य पाया गया और वे माओवादियों के सहयोगी हैं। हमने यह महसूस किया कि अगर यह सही भी है तो सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार उन्हें गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने 3 फरवरी 2011 को दिए गए आदेश में कहा था कि “केवल प्रतिबंधित संगठन की सदस्यता किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं साबित करती”। 15 अप्रैल 2011 को बिनायक सेन को जमानत देते समय सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि “केवल माओवादी साहित्य रखने से कोई व्यक्ति माओवादी नहीं हो जाता”
बगईचा प्रशिक्षण और शोध केंद्र के सदस्यों ने यह महसूस किया कि पुलिस के दावों को सत्यापित करना जरूरी है। एक वैज्ञानिक अध्ययन की रूप रेखा तैयार कर, जेल के अधिकारियों से झारखंड के विभिन्न जेलों में जाकर विचाराधीन कैदियों से मिलने की इजाजत माँगी गयी। हमारे आवेदन को सीधे अस्वीकार कर दिया गया। इसके बाद झारखंड के 26 जेलों अधीक्षकों से सूचना के अधिकार के तहत एक प्रश्नावली तैयार कर सूचना माँगी गयी। 26 में से केवल 12 ने जवाब दिया, वह भी आधा अधूरा।
तब हमने यह महसूस किया कि ज्यादा से ज्यादा ऐसे विचाराधीन दोषियों से मिलने की जरुरत है जो जमानत पर बाहर हैं। एक योग्य शोधकर्ता के दिशा निर्देश में हमने तीन टीम बनायी और तीन महीनों तक झारखंड के 24 में से 18 जिलों में गए। हमारी टीम ने 102 विचाराधीन व्यक्तियों, उनके परिवार के सदस्यों और उनके गाँव के लोगों से मुलाक़ात की
हमारे अध्ययन के नतीजे इस प्रकार हैं
98% ऐसे लोग जिन्हें नक्सलवादी बता कर गिरफ्तार किया गया है, का नक्सल संगठनों से कोई ताल्लुक नहीं है
102 में से मात्र 2 विचाराधीन दोषियों ने माना है कि उनका नक्सल संगठनों से कोई सम्बन्ध था। बाकी ने बताया कि वे दोषी नहीं हैं और उन्हें उनके संवैधानिक और मानव अधिकार जैसे जमीन और आजीविका के स्त्रोतों के अधिकार के उल्लंघन के खिलाफ आवाज उठाने के कारण गिरफ्तार किया गया है।
यह एक गंभीर स्थिति है जहाँ विरोध करने के अधिकार को अपराध माना जा रहा है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपना निर्णय दे दिया है। यह गरीब आदिवासियों के साथ अन्याय है।
युवाओं का जीवन तबाह और परिवार अभावग्रस्त
जिन विचाराधीन दोषियों से हम मिले उनमें 68 % युवा और मध्यम उम्र के हैं और 78% शादी शुदा हैं। परिवार की आय का 63% हिस्सा खेती और 17% आकस्मिक श्रम से आता है। उनके बच्चे छोटे हैं और स्कूल जाने की उम्र के हैं। उन्हें पिता का प्यार और दुलार की जरूरत होती है। लेकिन घर का अकेला कमाने वाला या तो जेल में है या कोर्ट की सुनवाई की हाजरी लगा रहा होता है। कमाई नहीं होने के बावजूद उन्हें ट्रायल कोर्ट में कभी न ख़त्म होने वाले सुनवाई में जाना पड़ता है और कभी कभी तो जिला के बाहर। ऐसे में उन्हें अपनी छोटी मोटी संपत्तियों जैसे मवेशी और यहाँ तक कि जमीन भी बेचना पड़ती है या फिर स्थानीय साहूकार से बहुत ही ऊँचे ब्याज दर पर ऋण लेना पड़ता है। यह इसलिए नहीं कि उन्होंने गलती की है बल्कि इसलिए कि पुलिस ने उन्हें “नक्सल” घोषित कर दिया है। यह एक मानवीय त्रासदी है।
दलितों और आदिवासियों के खिलाफ ही यह क्रूरता क्यों?
हमारी अध्ययन के मुताबित विचाराधीन दोषियों में से 69% दलित और आदिवासी हैं। झारखंड के आदिवासी और दलितों में साक्षरता दर बहुत कम और गरीबी दर बहुत ज्यादा है। वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं और समाज के हाशियें पर हैं। वे दैनिक आधार पर आजीविका चलाते हैं। सरकारी विकास योजना और विशेष योजना से उनके जीवन में बेहतरी नहीं आयी है। यहाँ तक कि उनके लिए बनायी गयी योजनाओं के लिए दी जाने वाली राशी अक्सर आधारभूत संरचनाओं के प्रोजेक्ट में विचलित कर दी जाती है। उनकी असुरक्षीत सामाजिक और आर्थिक स्थिति ने उन्हें हर तरह से इतना कमजोर बना दिया है कि वे राज्य दमन और शोषण का आसानी से शिकार बन जाते हैं।
अमीर और अमीर हुए और गरीब को मिला जेल
यह गौर करने वाली बात है कि 97% विचाराधीन दोषियों के परिवार की आय 5000 रु प्रति महीने से भी कम है। वे गरीबी रेखा के नीचे हैं। ज्यादातर को अभी तक खाद्य सुरक्षा कानून का लाभ नहीं मिला है। उनके पुराने राशन कार्ड निरस्त कर दिए गए हैं और नए कार्ड अभी तक नहीं मिले हैं। झारखंड के सुदूर आदिवासी गाँवों में लोग बिना किसी मुलभूत सुविधाओं के जी रहे हैं और स्थानीय प्राशासन पुरी तरह से उदासीन है। लेकिन जब उन्हें कथित रूप से नक्सल बताना होता है तब पुलिस और पारा मिलट्री बल पूरी क्षमता के साथ उनके गाँवों को घेर लेते हैं, उनके घरों को तोड़ दिया जाता है, घर के बर्तन बर्बाद कर दिए जाते हैं, घर के अनाज को बाहर फ़ेंक दिया जाता है, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। परिवार का हर सदस्य चाहे वो किसी भी उम्र का हो संदिग्ध हो जाता है और उन्हें निर्दयता के साथ पीटा जाता है और पुलिस थाने ले जाया जाता है जहाँ उन्हें काफी समय तक भूखे प्यासे पशुओं की तरह रखा जाता है और अंत में कुछ को छोड़ दिया जाता है और अन्य को जेल में डाल दिया जाता है। यह सब सामान्य प्रक्रिया है और यह किया जाता है नक्सलाद को रोकने के नाम पर
क्या इन्हें पुलिस ने भागते हुए पकड़ा?
मीडिया द्वारा यही जताने की कोशिश की जाती है। हमारे अध्ययन के मुताबिक़ 87 % को सामान्य परिस्थिति में गिरफ्तार किया गया। 57% को उनके घर से गिरफ्तार किया गया था जब वे आराम कर रहे थे या खाना खा रहे थे या परिवार के साथ समय बिता रहे थे और 30% को नजदीक के शहर या सफर के दौरान गिरफ्तार किया गया। निश्चित तौर पर वे पुलिस से भाग नहीं रहे थे।
सरकार को यह स्पष्ट कर देना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि उसका इरादा नक्सलवाद को रोकना नहीं बल्कि आदिवासियों की खनिज बहुल जमीन को माईनिंग कम्पनियों को सौंपना है। कथित “लाल गलियारा”, “खनिज गलियारा” भी है। अन्य इलाके जहाँ खनिज कम हैं, की तुलना में खनिज बहुल इलाकों से ज्यादा युवाओं की गिरफ्तारी हुई है। राज्य और पुलिस का दमन गाँवों में ज्यादा है जो खुले जेल की तरह हैं जहाँ लोगों के सभा करने, अभिव्यक्ति और आने जाने के अधिकार पर निषेध है। बहुत बड़ी तादाद में युवा केरल जैसे राज्यों में पलायन कर रहे हैं, जहाँ वे मजदूरी करते हैं और कुछ पैसे घर भेजते हैं। आदिवासी लड़कियों का महानगरों में पलायान लगातार जारी है, जहाँ वे घरेलू कामगार बन जाती हैं।
हालाकि स्थानीय और बृहद आंदोलनों के द्वारा लोग अपने जल जंगल और जमीन को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, कुछ कार्पोरेट घराने झारखंड में प्रवेश कर चुके हैं। सरकार पर कारर्पोरेट दबाव जितना बढ़ रहा है, गरीब आदिवासियों पर नक्सलवाद रोकने के नाम पर राज्य का दमन उतना ही बढ़ रहा है।
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