'मर जाएंगे लेकिन पहाड़ को नहीं जाने देंगे'
- 2 घंटे पहले
सूखा और अकाल को खोजते-खोजते जब संवेदना यात्रा के साथ मैं रात को राजस्थान के अलवर ज़िले के गांव खोहबास पहुँचा तो वहां नज़ारा कुछ और था.
लोग बेहद ग़ुस्से में थे. ज़ाहिर है कि यहां सूखे के बजाय कुछ और उबल रहा था.
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गांव खोहबास के लोग अपने उस पहाड़ के लिए सरकार के आमने-सामने हैं, जिसे रक्षा मंत्रालय के अधीन डीआरडीओ ने अपने एक प्रोजेक्ट के लिए ले रखा है.
मैंने जब गांववालों से पूछा कि उनके लिए पहाड़ ज़रूरी क्यों है तो उनका जवाब था कि पहाड़ के बग़ैर उनका जीवन अधूरा है.
खोहबास के रज़ा ख़ान बताते हैं, ‘‘इस पहाड़ से गांव के लोग लकड़ी लाते थे, हमारे पशु यहीं चरते थे. वहीं कुआँ भी है. हमारे पीर भी वहीं हैं, जिनकी गांव में मान्यता है. मेला भी होता है वहां. अब ये सब काम बंद पड़े हैं.’’
रमज़ान का कहना था कि सबसे पहले पहाड़ों पर बोरिंग शुरू हुई और यह कहा गया कि यहां सोना-चांदी निकलेगा जो गांव वालों को मिलेगा लेकिन गांव वालों ने इसके लिए मना कर दिया तो पुलिस ने इसे शुरू करवा दिया.
रमज़ान ने आगे कहा, ''हमें ये मज़दूरी पर भी लगाने लगे. बाद में तस्वीर बदल गई.''
गांववासी रमज़ान कहते हैं, ‘‘डीआरडीओ वाले यहां पहाड़ में सुरंग खोद रहे हैं. अगर हम या हमारे बच्चे पहाड़ के गेट पर भी पहुँच जाएं, तो वो हमें थाने ले जाते हैं और 10 हज़ार रुपए लेकर छोड़ते हैं. हमारी गाय-बकरियों को और हमें नहीं जाने देते. कई जगह हमारा आधा घर उनकी सीमा में आ रहा है. हमारे घरों के चबूतरों पर उन्होंने खंभे गाड़ दिए हैं. प्रशासन आंख मूंदकर बैठा है. कोई नहीं सुनता हमारी. हम प्रशासन के लोगों से मिले. वो कहते हैं कि ये रक्षा मंत्रालय का काम है. हम ग़रीब आदमी हैं. किसी के पास दो-पांच बिस्वा ज़मीन है, किसी के पास वह भी नहीं. हम पशुओं से गुज़ारा करते हैं.’’
गांव वाले बताते हैं कि अरावली पर्वतश्रंखला का यह पहाड़ जाजोर कभी शामलाती ज़मीन का हिस्सा था और इसकी सीमा में क़रीब 850 हैक्टेयर ज़मीन और 40 गांव आते हैं.
पहाड़ बचाने के लिए संघर्ष कर रही मेवात किसान पंचायत का दावा है कि 2010 में डीआरडीओ ने पहली बार इस पहाड़ के अधिग्रहण की मांग की थी जिसके बाद राजस्थान सरकार, वन विभाग और अलवर प्रशासन ने क़ानूनों की अनदेखी कर उसे यह अलॉट कर दिया. किसान पंचायत नेता वीरेंद्र विद्रोही का आरोप है कि प्रशासन ने फ़र्ज़ी तौर पर गांव वालों से अनापत्ति प्रमाण पत्र हासिल किया जिसके बाद डीआरडीओ ने वहां काम शुरू कर दिया है.
रमज़ान ने मुझसे बताया कि ‘‘हम मर जाएंगे लेकिन पहाड़ को नहीं जाने देंगे. हम अपने बच्चों को यतीम कर जाएंगे लेकिन पहाड़ को नहीं जाने देंगे.’’
जब मैं रमज़ान से बात कर रहा था तो क़ासिम भी वहां मौजूद थे, जिन्हें कुछ समय पहले डीआरडीओ की ओर से तैनात ठेकेदारों के सुरक्षाकर्मियों ने पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया था.
वह बताते हैं, ‘‘मैं पहाड़ में गया था. मेरी बकरी वहां थीं, जिन्हें सरदारों ने भगाया. मैंने कहा कि इन्हें मत भगाओ. वो पत्थरों से उन्हें भगा रहा था. मैंने कहा कि यूं ही भगा दो. बस सरदार ने मुझे पकड़कर पुलिस के हवाले कर दिया. पुलिस मुझे ले गई और मारा-पीटा. मैं पांच हज़ार रुपए में छूटकर आया. मुझ पर धारा 151 लगाई.’’
क़रीब 700 घरों और 2400 मतदाताओं के इस गांव की बस एक ही मांग है कि उनके पहाड़ को तहस-नहस न किया जाए क्योंकि जाजोर पहाड़ उनका जीवन है और इसी पर उनकी ज़िंदगी निर्भर है. 14 अक्तूबर को खोहबास से किसानों ने एक पदयात्रा भी निकाली ताकि उनकी आवाज़ सुनी जा सके.
मेरे मन में सवाल है कि पहाड़ और वन किसके हैं? उन लोगों के जो वहां रहते हैं या उनके जो सत्ता में रहते हैं? अगर इस सवाल का जवाब नहीं मिलता तो ऐसे संघर्ष शायद चलते रहेंगे. नियामगिरी और खोहबास ख़ुद को दोहराते रहेंगे.
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