विरोध के प्रतीकों का वज़न न करिए
- 13 अक्तूबर 2015
ये विरोध अभूतपूर्व है. आज़ाद भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है जब इतने बड़े पैमाने पर लेखकों ने अपने सम्मान लौटाए हैं या अपने पदों से इस्तीफ़े दिए हैं.
इसका संदेश पूरी दुनिया में गया है. कश्मीर से लेकर केरल तक जो अभूतपूर्व एकजुटता लेखकों ने बर्बरता के ख़िलाफ़ दिखाई है, वो इस बात की तसल्ली भी है कि मुखौटों और बुतों के बाहर भी जीवन धड़क रहा है और बेचैनियों का ताप बना हुआ है.
कन्नड़ विद्वान कालबुर्गी की हत्या और दादरी की घटना के बाद साहित्यकारों के विरोध पर लेखक के ये निजी विचार हैं. |
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क्षोभ और प्रतिरोध की थरथराहटें कमज़ोर नहीं हुई हैं.
फिर भी एक तसल्ली बनती है कि देर से ही सही, लेखक आगे आए हैं. और ये अब सिर्फ़ लेखक बिरादरी का मामला ही नहीं रह गया है.
प्रतिरोध की धीरे-धीरे इकट्ठा हो रही इस सामूहिकता का दायरा फैलेगा, फैल रहा है, रचनाधर्मी-संस्कृतिकर्मी-पत्रकार इस एकजुटता में आ रहे हैं. ये सिर्फ़ सोशलमीडियावाद नहीं है. वास्तविक संसार की व्याकुलताएं और हैरानियां अब एक सही भावना के निर्माण के लिए चक्कर काट रही हैं.
विरोध का उपहास
इस बीच एक पूरा खेमा इस प्रतिरोध के प्रकाश को मिटाने पर पुरज़ोर तुला हुआ है. न जाने क्यों. कुछ इसे निजी शौक की तरह भी कर रहे हैं. वे भर्त्सना कर रहे हैं, मज़ाक उड़ा रहे हैं और सदाशयता पर सवाल उठा रहे हैं.
कुछ लोगों को लगता है कि ये साज़िश हो रही है. अकादमी प्रशासन के ख़िलाफ़. कुछ को लगता है कि ये मीडिया इवेंट की तरह बस चंद रोज़ की बात है और फिर सब अपनी अपनी ऊब में लौट जाएंगें. सब कुछ वैसा ही चलता रहेगा. हिंसा भी, दमन भी, लिखने पढ़ने वालों का रवैया भी और साहित्य अकादमी भी.
लेकिन अभी जिस तरह से लेखकों ने साहस के साथ सम्मान लौटाए हैं वो अब चीज़ों को वैसा का वैसा तो नहीं रहने देगा.
ये सम्मान लौटाना कोई रस्म अदायगी या मौकापरस्ती नहीं है. ये अभिव्यक्ति के दमन, समाज में फैलती जा रही बर्बरता, अल्पसंख्यकों पर हमलों के विरोध में साहस की लहर है.
नाइंसाफ़ी और दमन के ख़िलाफ़ विरोध की प्रतीकात्मकता का एक दूरगामी महत्व है. प्रतीकों का वजन मत कीजिए. हल्के या भारी. इन्हें जमा होने दीजिए.
अब आप इस साहस को कन्डेम नहीं कर सकते हैं. लड़ाई भले ही न बनी हो लेकिन इसे नकली या भोथरा नहीं बताया जा सकता है.
आत्मसम्मान की खातिर और बर्बरता के ख़िलाफ़ इस असाधारण प्रदर्शन के गहरे निहितार्थ होंगें. पदक उपाधियां अलकंरण आदि अभी और लौटाए जाएंगें. ये सिलसिला प्रतिरोध की अंडरकरेंट की तरह बन गया है.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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