लंबूराम की मौत का दोषी कौन? ; भूख से मौत
Thursday, October 22, 2015
रायपुर | अन्वेषा गुप्ता: छत्तीसगढ़ के बगीचा में पहाड़ी कोरवा की मौत भूख से हो गई है. मृतक लंबूराम ने मरने से पहले कई दिनों तक खाना नहीं खाया था. उसके पास न हो राशन कार्ड था न ही स्मार्ट कार्ड. जाहिर है कि छत्तीसगढ़ सरकार की खाद्य सुरक्षा योजना उसके दरवाजे तक नहीं पहुंच पाई थी.
छत्तीसगढ़ कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल ने लंबूराम के गांव का दौरा करने के बाद संवाददाताओं को बताया कि उसके घर के पास के कई पहाड़ी कोरवाओं के घर में भी अन्न का एक दाना तक नहीं है. वे लौकी तथा कंदमूल उबालकर खा रहें हैं. इनमें से पचास फीसदी के पास राशन कार्ड नहीं हैं.
उल्लेखनीय है कि राज्य की कई तहसीलों को सूखाग्रस्त घोषित करने के साथ ही मुख्यमंत्री ने कहा था कि हर ग्राम पंचायत में एक क्विंटल राशन रखा जायेगा. मुख्यमंत्री की घोषणा को कितना अमलीजामा पहनाया गया है यह लंबूराम की भूख से हुई मौत से ही स्पष्ट है.
लंबूराम की भूख से हुई मौत के सुर्खियां बन जाने के बाद वहां का प्रशासन इलेक्ट्रानिक मीडिया में बयान देता नजर आ रहा है कि शायद लंबूराम की मौत शराब पीने से हुई है. उसने खाली पेट शराब पी होगी. उसका लीवर शराब के कारण खराब हो गया होगा, उस दिन पानी भी गिरा था, वगैरह-वगैरह.
अब लंबूराम लौट के नहीं आने वाला है. भूख दुनिया का सबसे क्रूरतम हत्यारा है जिसने लंबूराम को सदा के लिये खामोश कर दिया है. लंबूराम की मौत कई सवाल छोड़ कर गई है. लंबूराम की मौत का जिम्मेदार कौन है? उसकी गरीबी, उसके पास पैसे का न होना या उसका राशन कार्ड न बन पाना.
कुल मिलाकर लंबूराम जैसे तभी मीडिया की सुर्खियों में आते हैं जब भूख से उनकी मौत हो जाती है या उनकी मां-बहन-पत्नी के साथ रेप कर दिया जाता है.
हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने बालको, हिल्डाल्कों तथा मोनेट जैसे कंपनियों को कोल ब्लाक खरीदे जाने के बाद उसके स्टांप ड्यूटी में छूट दी है. कुछ लोग इसे तीन हजार करोड़ का बता रहें हैं तो कुछ पाच हजार करोड़ रुपयों का. देश के बड़े उद्योग घरानों को टैक्स में छूट दी जा रही है अन्यथा बेचारे संकट में फंस जायेंगे. उद्योगपतियों के संकट में पड़ जाने का अर्थ ही है कि उत्पादन में कमी तथा सकल घरेलू उत्पादन में कमी.
यह दिगर बात है कि छत्तीसगढ़ के सकल घरेलू उत्पादन के बढ़ने या घटने से लंबूराम जैसे लोगों को उससे असल में कोई फायदा नहीं पहुंच पाता है क्योंकि उत्पादन लंबूराम की मिल्कियत नहीं, बालको, हिल्डाल्कों तथा मोनेट की मिल्कियत होती है.
लंबूराम जैसो की जमीन पर बनने वाले कारखाने अपने आस-पास पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं तथा अपने आकाओं के बैंक बैलेंस में बढ़ोतरी करते हैं.
लंबूराम से पहले भी छत्तीसगढ़ में भूख से मौतें हुई हैं. उस समय भी काफी हो हल्ला मचा था. उसके बाद भी भूख से मरने वालों का सिलसिला रुका नहीं है. आज की समाज व्यवस्था में अन्न, सब्जी, कपड़े, दवायें तथा सभी कुछ बाजार से खरीदने पड़ते हैं. जिसके लिये दाम चुकता करना पड़ता है. बाजार इतना निष्ठुर होता है कि अनाज को सड़ने देगा लेकिन मुफ्त में नहीं देता है.
इस बाजार के बाजारूपन पर रोक लगाने के लिये सरकारे खाद्य सुरक्षा जैसी कई योजनायें जरूर बनाती हैं परन्तु उन पर अमल नहीं हो पाता है. अमल करें भी तो कौन, किसके पास समय है कि वोट मागने के अलावा अन्य समय किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर उसके रसोई का हाल-चाल पूछा जाये.
बहरहाल, अब जांच-वांच हो सकती है. लंबूराम कुछ दिनों तक राजनीतिज्ञों के जुबान पर रहेगा. इसके बाद कोई और एक छोटूराम भूख से मारा जायेगा तब उसके नाम को लेकर हो हल्ला मचाया जायेगा. भूख के कारणों को मिटाने की कोशिश कोई नहीं करेगा क्योंकि सभी यथास्थितिवादी हैं, भले ही मंगल ग्रह पर पानी की खोज में अरबो-खरबों डालर खर्च हो जाये परन्तु मजाल है कि किसी लंबूराम के घर कोई अनाज लेकर जाये.
एक सवाल अभी भी अनुउत्तरित रह गया है, लंबूराम की मौत का दोषी कौन है?
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