Tuesday, October 13, 2015

पद्म सम्मान कुत्ते के गले में पट्टे की तरह:निदा फाजली


पद्म सम्मान कुत्ते के गले में पट्टे की तरह:निदा फाजली


[मोहम्मद  ज़ाकिर हुसैन ]

मुक्तदा हसन यानि निदा फाजली आज किसी तआर्रूफ के मोहताज नहीं हैं। देहली में पैदाइश और ग्वालियर में परवरिश पाने वाले निदा फाजली ने समाज की कड़वी हकीकतों को बेहद करीब से देखा और भोगा है इसलिए सब कुछ उनकी जुबां से किसी नज्म की तरह फूट पड़ता है। पिछले दिनों एक मुशायरे के सिलसिले में निदा फाजली भिलाई आए थे। मुशायरा रात 11 बजे शुरू होना था लिहाजा सुपला काफी हाउस में शाम तक मिलने वालों के साथ बैठने के अलावा भी उनके पास काफी वक्त था। ऐसे में उन्होंने पूरे इत्मिनान से बातचीत की। निदा फाजली से हुई बातचीत सवाल-जवाब की शक्ल में बिना ज्यादा काट-छांट के।

हमारे मुल्क में बहुत से तबके तरक्की से कोसों दूर है। उनकी इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है...?
दरअसल यह गवर्नमेंट की पालिसी है कि वो कुछ तबके को वोट बैंक बनाती है। जिसके लिए नए-नए तरीके सोचे जाते हैं जिसमें एक तरीका यह है कि लोगों को माइनारिटी और मेज्योरिटी में तकसीम कर दिया जाए। जहां तक गरीबी का सवाल है खराब सड़कों का सवाल है, रोशनी के अभाव का सवाल है उसका किसी मजहब से ताल्लुक नहीं है। लेकिन गवर्नमेंट जो होती है यह सब खेल करती है। यह खेल चला है पं. नेहरू के जमाने से। यह खेल चल रहा है और कुछ तबको को बेवकूफ बना कर उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। जरूरत इस बात की है कि लोग इसे समझें और समाज की मुख्य धारा में आएं।

बढ़ती नक्सली हिंसा पर आपका नजरिया.?
नक्सलवाद जो है वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है। यह इस बात की प्रतिक्रिया है कि हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है। अब मॉल कल्चर पैदा हो रहा है। उसमें अंडे वाले, भाजी वाले और दूसरे छोटे धंधे करने वाले बेकार हो रहे हैं। दिक्कत यह है कि कुछ लोग इन विडंबनाओं को भगवान की नाराजगी समझ कर खामोश हो जाते हैं। वहीं जो लोग इनके खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं उनको लोग नए-नए नामों से पुकारते हैं। उसे नक्सलवाद भी कहते हैं। नक्सलवाद या और भी किस्म के सामाजिक विद्रोह है उनको खत्म करने के लिए पहले नंदीग्राम को खत्म करो। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे हिस्सों से सांप्रदायिकता खत्म करो, सामाजिक विडंबनाएं खत्म करो।

...लेकिन यह तो सीधा-सीधा आतंकवाद है..?
आप आतंकवाद की बात कहते हो तो कौन सा आतंकवाद है यह...? एक अंदर का होता है एक बाहर का। आतंक एक बिजनेस है उससे राजनीति जुड़ी है। अंदर का आतंक उड़ीसा और मध्यप्रदेश में होता है 84 में दिल्ली में हुआ और गुजरात होता है। बाहर का आतंक 26/11 है। आतंक से आरोप-प्रत्यारोप के चक्कर में.... पाकिस्तान खुद आतंक से घिरा हुआ है। वह अपने एक्स प्राइम मिनिस्टर की हिफाजत नहीं कर सका। स्वात घाटी के डेढ़ लाख लोग घर से बेघर हो गए। यह सारी विडंबनाएं देश के विभाजन से उपजी हैं। जो कि हमारे नेताओं की सूझबूझ की एतिहासिक गलती थी। इसका खामियाजा कई नस्लें भुगत रही थीं भुगत रही हैं और आगे भुगतेंगी।

इनका हल नहीं है...?
क्यों नहीं है, दिक्कत दरअसल यह है कि हमारे यहां एजुकेशन नहीं है इसलिए जागृति नहीं है। ऐसे में कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं सामाजिक अन्याय के खिलाफ। हमें चाहिए बहुत सारे अंबेडकर, खैरनार और अन्ना हज़ारे। शिक्षा के लिए आपके पास पैसा नहीं है बम बनाने पैसा है करप्शन के लिए पैसा है। ये पूरी समस्याएं हैं, किसी को एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखी जा सकी। जरूरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा एजुकेशन पैदा हो। आजादी की रोशनी वहां तक पहुंचे जहां बरसों से गरीबी का, गंदे पानी का, खस्ताहाल सड़कों का, बेरोजगारी का अंधेरा फैला हुआ है। सरकार चाहे किसी की भी हो हमारा संविधान कहता कुछ है और सरकार करती कुछ और हैं। अब हर काम को भगवान के हवाले कर दिया गया है। बच्चे पैदा करना भी भगवान के हवाले हो गया है। ''खुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को, बदलते वक्त पे कुछ अपना अख्तियार भी रख।ÓÓ जब तक बदलते वक्त पे अपना अख्तियार नहीं रखेंगे हर काम भगवान करता रहेगा, बच्चे भी भगवान पैदा करता रहेगा और जनसंख्या बढ़ती रहेगी, पतीली का आकार बढ़ेगा नहीं खाने वाले बढ़ते चले जाएंगे। और इस तरह की विडंबनाएं पैदा होती रहेंगी।

... तो इन विडंबनाओं के खिलाफ खड़े होने का एक ही तरीका है...?
मैं सही गलत की बात नहीं कर रहा। दो काम है या तो आप अन्याय को भगवान का नाम लेकर मंदिर-मस्जिद मेें बैठ जाएं, ''चाहे बनें अमीर तू चाहे बनें गरीब, ईश्वर अपने हाथ से लिखता नहीं नसीब ÓÓ, या फिर अन्याय और विडंबनाओं के खिलाफ खड़े हो जाएं। खड़े होने किसका तरीका कौन सा है वो अलग बात है। मैं अपने तौर पर अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले हर एक के साथ हूं। लेकिन सिर्फ भगवान का नाम लेकर कि उपर वाला ही अमीर को अमीर और गरीब को गरीब बनाता है इसका मैं कायल नहीं हूं। खुदा के और भी काम है उसको अपना काम करने दो। उसके कामों में बढ़ोत्तरी क्यों कर रहे हो।

आज शब्दों का कितना महत्व है...?
साफ-साफ कहूं तो आज के कल्चर में शब्दों का महत्व बिल्कुल नहीं है। ''क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान-दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान आज किक्रेट नजर आता है एक्टर नजर आता है पालिटिशियन नजर आता है। गालिब कहीं नजर आता है? एक फैशन बन गया है सिर्फ पार्लियामेंट में कोट करने गालिब , रहीम और कबीर की लाइनें होती हैं। इस गलतफहमी में मत रहिए कि शब्दों का आज महत्व है। यह इसलिए क्योंकि शब्द बाजार की चीज नहीं है। आज आलू और टमाटर ज्यादा बिकते हैं शब्द कम बिकते हैं।

आज मुशायरों में किस तरह का बदलाव देखते हैं...?
आज जिस तरह मुशायरे होते हैं उनमें आने वाले कितने लोग हैं जो कवियों और शायरों की किताबों की वाकिफ हैं। कौन से आयोजक यह कोशिश करते हैं कि अवाम के बीच स्टेज पर बुलाए जाने वालों का साहित्यिक महत्व भी हो। आज ब्यूटी पारलर से सजी-धजी लड़़कियां स्टेज पर आती हैं और दूसरों का लिखा अपनी आवाज में सुना कर तालियां बजवाती हैं। बुलाने वाले को भी नहीं मालूम कि गधे और घोड़े में क्या फर्क है।

...लेकिन इन्ही स्टेजों पर तो निदा फाजली को भी बुलाया जाता है..?
निदा फाजली को इसलिए बुलाया जाता है क्योंकि उसका थोड़ा सा संबंध फिल्मों और कुछ सीरियलों से हैं। थोड़ा सा मेहंदी हसन और जगजीत सिंह के लिए लिखी गजलों से है। निदा फाजली को इसलिए नहीं बुलाया जाता है कि उसने हिंदी, उर्दू, गुजराती मराठी, इंग्लिश में 23 किताबें लिखी हैं। कोई नहीं जानता कि निदा फाजली को साहित्य अकादमी अवार्ड, गालिब अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड मिला है। यह पब्लिसिटी का युग है। जिसका भोंपू जितना बड़ा होता है उसकी आवाज उतनी ज्यादा चलती है।

...तो क्या आज का दौर बाजार का है..?
जी हां, यह दौर बाजार का ही है। जिसकी कीमत जितनी ज्यादा होती है उसका नाम उतना ज्यादा होता है। बंबई के कब्रिस्तान में मधुबाला फेस की वैल्यू ज्यादा होने की वजह से उनकी कब्र मार्बल की थी, आवाज की कीमत ज्यादा थी तो वजह से रफी साहब की कब्र ग्रेनाइट की थी। वहीं साहिर लुधियानवीं की कब्र लफ्जों से बनी थी इसलिए मार्केट में वैल्यू नहीं होने के कारण एक बरसात में ढह गई।

क्या कलम से इंकलाब मुमकिन है..?
आप इस धोखे में मत रहिए कि कलम से इंकलाब आ सकता है। आज हमारे समाज के बदलावों ने कलम का दायरा बेहद छोटा कर दिया है। हां, यह जरूर है कि कलम से बेदारी (जागृति) पैदा की जा सकती है कि अवाम अपने हक के लिए लडऩा सीखे।

इतिहास को लेकर हमेशा विवाद की स्थिति रहती है, ऐसे में साहित्यकारों की लेखनी में झलकता इतिहास कितना प्रमाणिक मानते हैं आप..?
मैं मानता हूं कि हमारे अदीबों (साहित्यकारों)ने जो भी लिखा उसमें प्रमाणित इतिहास है। इस पर मैनें काम भी किया है। मेरी नई किताब 'आदमी की तरफ नाम से आई है। जब एनडीए गवर्नमेंट में इतिहास को खत्म किया जा रहा था और इतिहास के कैरेक्टर को हिंदू-मुसलमान में तक्सीम किया जा रहा था। तब मैनें अलाउद्दीन खिलजी के पीरियड के अमीर खुसरो से लेकर मौजूदा दौर तक के तमाम क्लासिकल पोएट के छंदों में गजलें लिखीं। यह दिखाने के लिए और खुद ये जानने के लिए कि शायरों ने जो इतिहास लिखा है वह बेहद प्रमाणिक है। उसमे आम लोगों की उंगली पकड़ कर साहित्यकार चलता है। उसमें धार्मिक भेदभाव विभाजन नहीं होता। जब औरंगजेब के दौर में वली दक्कनी कहते हैं-''मुफलिसी सब बहार खोती है, मर्द का एतबार खोती है यहां उनका 'मर्द हिंदू है ना मुसलमान है सिक्ख है ना इसाई है। ये 'मर्द वो आदमी है जो गरीबी में जिंदगी बसर कर रहा है। जब अलाउद्दीन खिलजी के दौर में अमीर खुसरो कहते हैं कि ''जो यार देखा नैन भर मन की गई चिंता उतर, ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर तो मालूम पड़ रहा है कि वो सूफी निजामुद्दीन औलिया की खानकाह में बैठ कर आम लोगों की बात कर रहे हैं। सिकंदर लोधी के दौर में जब कबीर कहते हैं कि ''आत्मज्ञान बिना जग झूठा, क्या मथुरा क्या काशी  यानि साहब आप अपने आप को पहचानो। यही बात बहादुर शाह जफर के दौर में गालिब ने कही थी कि ''बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना, तो मां के पेट से पैदा होने वाला आदमी होता है लेकिन अपनी कोशिशों से आदमी इंसान बनता है। हमारे पोलिटीशियन जो हैं वो आदमी तो हैं लेकिन इंसा बनने का पूरा रास्ता कैद कर रखे हैं। पहली बात तो ये कि हमारे पॉलिटिशियन लोग इतिहास नहीं पढ़ते हैं। अगर पढ़ते भी हैं तो सिर्फ अपने फायदे के लिए।

उर्दू के वजूद पर खतरा देखते हैं..?
आप उर्दू को मजहब से जोडऩा बंद नहीं करेंगे, उसे एक भारत के कल्चर का हिस्सा नहीं मानेंगे और जब तक उसे सियासत के घेरे से आजाद नहीं करेंगे तब तक उर्दू अपने वजूद के लिए जद्दोजहद करती रहेगी। पहले नारायण प्रकाश मेहर, राजिंद्र सिंह बेदी, दत्तात्रेय कैफी, कृष्णचंदर, प्रेमचंद की जुबान उर्दू थी। इसे एक मजहब से जोडऩे का काम जिन्होंने अपने सियासी फायदे के लिए किया वे भारत का पूरा नक्शा नहीं देखते। काजी नजरूल इस्लाम ने बंगाली, बशीर वाहिद अंबी ने तमिल तो शैदा ने गुजराती में अपनी शायरी की जबकि ये तीनों मुसलमान थे। दरअसल एक गलतफहमी पैदा हो गई या कर दी गई। जिससे लोगों को लगने लगा उर्दू तो 'मुसलमान है। जबकि यह पूरी तरह गलत है। अगर मजहब के हिसाब से जुबान तय होती तो मुसलमान हर जगह अरबी में बात करता होता। हकीकत ये है कि मुसलमान जहां रहता है वहां की बोली बोलता है। दिक्कत ये है कि हमारे रहनुमाओं को इतिहास नहीं मालूम। अलाउद्दीन खिलजी और बलबन के पीरियड की भाषा हिंदुस्तानी है। हजरत अमीर खुसरो ने उस दौर में कहा-''खुसरो रैन सुहाग की.... ये वो भाषा का रूप है जहां से आगे चल कर आज की हिंदी और आज की उर्दू सामने आई।

मजहबी किताबें लोगों को किस हद तक जोड़ती है..?
मजहबी किताबें तो लोगों को जोडऩे के लिए ही होनी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही हमारे देश में बदकिस्मती की बात यह है कि लोग बाइबिल, कुरआन और गीता के शब्दों पर लड़ते तो हंै लेकिन जुड़ते नहीं है। यह हमारी ट्रेजडी है। हम इन किताबों में लिखी बातों को ज्यादा अहमियत नहीं देते। यह इसलिए हो गया कि हमारे यहां शिक्षा नहीं है। कुरआन में कहा गया है 'अलहम्दो लिल्लाहि रब्बुल आलमीन यानि वो तमाम आलमों का खुदा है। तमाम आलमों में तो सोनिया का इटली भी है मुजीब का बांग्लादेश भी है और ओबामा का अमेरिका भी है। जब हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि कण-कण में नारायण व्याप्त है तो जर्ऱे-जर्ऱे में जब उस ख़ुदा का ज़हूर है तो वो जर्ऱा इटली भी होगा अमरीका भी होगा बग़दाद भी होगा। जब बाइबिल में 2010 साल पहले खुदा ने रौशनी को सारे आलम में फैलने का हुक्म दिया था तो यह नहीं कहा था कि फलां हिस्से में नहीं जाओ या सिर्फ किसी खास मुल्क के चंद घरों में जाओ। अब आलम यह है कि क्रिश्चियन ना तो ईसाईयत को मानता है ना हिंदू अपने धर्म को मानता है ना ही मुसलमान अपने इस्लाम को मानता है। सब बिजनेस कर रहे हैं। आज जेहाद भी बिजनेस है और आतंकवाद भी बिजनेस है, हद तो यह है कि राजनीति भी बिजनेस है।

हाल ही में भाजपा ने अपने अधिवेशन में फिर एक बार मंदिर का मुद्दा उठाया है..?
जो लोग मंदिर और मस्जिद की बातें करते हैं उनसे मैं यह पूछना चाहता हूं कि पहले वो पटना से दरभंगा तक बेहतर सड़क क्यों नहीं बनाते। झोपडिय़ों में पीने के लिए जो गंदा पानी है उसे हाइजिनिक क्यों नहीं बनाते। मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं इस भूखे-नंगे देश में माल कल्चर की क्या वैल्यू है। जहां तक मंदिर-मस्जिद की बात है, इसका अपना एहतराम है। ''अंदर मूरत पे चढ़े घी-पूरी मिष्ठान्न,मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर मांगे दान जहां छोटे-छोटे घरों मे बड़े-बड़े परिवार रहते हैं वहां एक बच्चा खड़े होकर कहता है-''बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान दिक्कत यह है कि वे (पालिटिशियन) आम लोगों का ध्यान नहीं रखते। आम लोगों का शोषण सदियों से हो रहा है।

पद्म सम्मानों को लेकर हर साल विवाद की स्थिति रहती है। आपको आज तक ये सम्मान नहीं मिले..?
आज हर चीज बिजनेस है। मैं कभी पद्म सम्मानों की दौड़ में नहीं रहा। मिलने पर मैं इन्हें ठुकरा भी सकता हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि कुत्ते के गले में पट्टा डाल दिया जाए तो कुत्ता एक का हो जाता है। मुझे चाहिए आम लोगों की दाद। मैं आम लोगों के लिए लिखता हूं और अगर आम लोग मुझे एप्रिशिएट करते हैं तो मेरा काम हो जाता है। पद्म सम्मान आज जिस तरह दिए जा रहे हैं उसकी वजह यह है कि हमारे जिम्मेदार लोगों अवेयरनेस है ही नहीं। हद तो यह है कि बेकल उत्साही को पद्मश्री मिल जाता है और अली सरदार जाफरी को नहीं मिलता। क्योंकि हमारे जिम्मेदार लोग कुछ जानते नहीं, यह उनकी गलती नहीं है। बाइबिल में भी कहा गया है कि- या खुदा, उन्हें माफ कर दो वो जानते नहीं वो क्या कर रहे हैं।

आपने फिल्मों में बहुत कम गीत लिखे, इसकी कोई खास वजह...?
मैं शुरू से सलेक्टिव रहा हूं और अपने समय का दुरूपयोग नहीं करता। फिल्में आती हैं तो मैं मना नहीं करता। जहां गुंजाइश होती है वहीं लिखता हूं। मैनें महेश भट्ट की 'सुर में गीत लिखे। मैनें 'सरफरोश में 'होशवालों को खबर क्या लिखने के बाद लड़ाई लड़ ली थी। क्योंकि उन्हें गज़ल बनानी भी नहीं आती थी। खैर, मैनें बीते दौर के म्यूजिक डायरेक्टर्स के साथ भी काम किया और मुझे आज के किसी म्यूजिक डायरेक्टर के साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। जब वो ये सोचते हैं कि मैं उनके काम के लिए उपयोगी हूं तो वो खुद आते हैं। मैं किसी के पास नहीं जाता हूं।

...यानि फिल्मों के लिए गीत लिखना आपकी जरूरत नहीं है..?
दाग़ के दौर में बिहार के शायर शाद अजीमाबादी की मशहूर लाइन है कि ''मैं खुद आया नहीं लाया गया हूं  आप समझ लीजिए मेरे साथ भी यही हुआ है। घर से बेघर हुआ,सांप्रदायिकता के कारण हर शहर में घर की तलाश की। बंबई में ठिकाना मिल गया। जिस ने भी बुलाया, जहां रोटी नजर आती थी चले जाते थे। फिल्म वालों ने बुलाया चले गए, अखबार वालों ने बुलाया चले गए। ये फिल्म लाइन कोई मेरी च्वाइस नहीं है। अभी भी कोई मेरे घर आ जाता है मैं लिख देता हूं उनके लिए। मैंनें म्यूजिक डायरेक्टर या प्रोड्यूसर के चक्कर लगाने में पहले अपना वक्त ज़ाया किया ना अब करता हूं। हां,यह जरूर है कि जब मेरे लिखे हुए नग्मों को मकबूलियत मिलती है। मसलन ''कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता या ''तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है  जैसे फिल्मी गीत और ''दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है , ''अपनी मर्जी से कहां अपने सफर पर हम हैं और ''हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी जैसे गैर फिल्मी गीत हमारे बोलचाल के मुहावरे बन गए हों तो खुशी मिलती है। वैसे फिल्मों से मैं पूरी तरह दूर नहीं हुआ हूं अभी इस्माइल श्राफ की आने वाली फिल्म 'एक नाजुक सा मोड़ के लिए लिए गीत लिख रहा हूं।

फिल्मों में इंस्पिरेशन (प्रेरणा) के नाम पर कॉपी (नकल) का दौर थमता नहीं दिखता..?
यह आज की बात नहीं है ऐसा हमेशा से होता रहा है। तकलीफ इस बात की है कि इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जाता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता थी 'इब्न बतूता पहन के जूता। उसका इस्तेमाल आज की फिल्म 'इश्किया में हुआ यानि सर्वेश्वर दयाल को पुस्तक से बाहर आने के में 33 साल लगे? मैं साहित्य को साहित्य के इतिहास से पहचानता हूं। मुझे मालूम है कि शब्दों का क्या महत्व होता है। अगर मैं राइटर हूं और पोएट हूं तो दूसरों के शब्दों और दूसरों की रचनाओं की हिफाजत करना भी मेरा फर्ज है। मिर्जा गालिब का शेर उठा कर 'दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन गीत अपने नाम से लिखने का काम मैं नहीं करूंगा। मैं खुद नई बात लिखने की कोशिश करूंगा। 250 साल की उम्र के गालिब को निजामुद्दीन की अपनी कब्रगाह से निकल कर बंबई आने में काफी वक्त लगेगा और अब वह इतने बूढ़े हो चुके हैं कि आएंगे भी नहीं। इसलिए आप गालिब को आसानी से एक्सप्लाइट कर सकते हैं। अब छत्तीसगढ़ का लोकगीत है ''ससुराल गेंदा फूल। इस पर किसी और को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिल जाता है क्योंकि यह पब्लिसिटी का युग है और इसे कुबूल करना चाहिए यही हकीकत है।

फिल्मों में म्यूजिक के नजरिए से किस तरह का बदलाव देखते हैं?
बदलाव तो हर दौर में होता रहा है। असल में अब जो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर और म्यूजिक डायरेक्टर का लाट आया है, उसमें ज्यादातर लोगों को लैंग्वेज (हिंदी-उर्दू)का भाषा का ज्ञान नहीं है। सारे कान्वेंट में पढ़े हुए हैं। पहले मदनमोहन,आरडी बर्मन और खय्याम साहब जैसे लोग थे जो लैंग्वेज को अच्छी तरह समझते थे। इसलिए पहले लिखे हुए पर धुन बनाई जाती थी अब बनी हुई धुन पर लिखवा लिया जाता है। साहिर लुधियानवी और जां निसार अख्तर जैसे लोग पहले से शायर थे फिर कहीं उन्होंने फिल्मों में लिखना शुरू किया। अब ये होने लगा है कि फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को कल्चर का कोई अवेयरनेस नहीं है। इसलिए अब अगर आप शब्दों के थोड़े बहुत इतिहास से परिचित हैं तो भी आप अपना काम कर सकते हैं।

देहली में आपकी पैदाइश हुई और परवरिश ग्वालियर में। इस शहर के बारे में और आप के अब तक के सफर पर कुछ..?
मेरे दो आत्मकथात्मक उपन्यास 'दीवारों के बीच और 'दीवारों के बाहर नाम से उर्दू, हिंदी, मराठी और गुजराती में हैं। उसमें मैनें सब कुछ तफसील (विस्तार) से लिखा है। उन्हीं बातों को यहां करना दोहराव हो जाएगा। जहां तक ग्वालियर की बात है तो यह एक बहुआयामी सांस्कृतिक शहर है। यहां ग़ौस गवालियरी का मजार है। अकबर के नौ रत्नों में से एक तानसेन और अकबर के दौर के ही अबुल फजल फैजी का मजार है। दाग देहलवी के जां नशीं (उत्तराधिकारी)नारायण प्रसाद मेहर,जां निसार अख्तर के वालिद मुश्तर खैराबादी और हाफिज अली खां (सरोद नवाज उस्ताद अमजद अली खां के वालिद)भी इसी शहर के हैं। कहा तो यह भी जाता है कि गांधी जी को मारने के लिए गोड़से की तैयारी भी ग्वालियर में हुई थी।

अलग तेलंगाना मसले पर आपकी राय..?
आज सवाल किसी एक नए स्टेट का नहीं है। मेरा मानना है कि पावर चंद हाथों में नहीं बहुत से हाथों में होना चाहिए। दिल्ली में बैठकर मेरे घर के सामने जो सड़क खराब है उसमें सुधार नहीं हो सकता।

लंबे अरसे से लिखते हुए आज आपको वो मकाम मिल गया जिसकी तलाश थी..?
इसका फैसला मैं नहीं कर सकता। यह मेरे पाठक या श्रोताओं को तय करना है। मैं मानता हूं किसी रचना से रचनाकार का संबंध उसकी रचनात्मकता तक होता है। जब रचना कागज पर आ जाती है तो रचनाकार मर जाता है। फिर सारा अख्तियार पाठक या श्रोता पर होता है। एक दौर में कबीर दास को पंडितों ने कहा कि ये कवि नहीं है, इसे भाषा नहीं आती, ये अज्ञानी है। लेकिन आज मालूम पड़ता है कि अज्ञानी कहनो वालों को कोई नहीं जानता कबीर दास को सब जानते हैं। जहां तक मेरी बात है तो जैसे शकर के दाने की तरफ चींटी अपना सफर तय करती है बस वैसे ही मैं भी अपने काम में लगा हूं।

कुल मिला कर आप अपनी शख्सियत को कैसे बयां करेंगे?
सच कहूं तो मैं दरअसल भारतीय रेलवे की सवारी गाड़ी की तरह हूं। जिसमें एसी, सेकंड क्लास और जनरल कंपार्टमेंट भी है। मैं जिस कंपार्टमेंट में जिस वक्त होता हूं वहां के नियमों को निभाता हूं। जब मैं किसी अखबार या बीबीसी के लिए अपनी टेबल में बैठकर कालम लिखता हूं तो अलग मूड में होता हूं। जब अपनी किताब के लिए या फिर गजल लिखता हूं तो अलग मिजाज में होता हूं। मैनें अपने आप को इन अलग-अलग डिब्बों की तरह ढाल लिया है। मैं किसी एक कंपार्टमेंट में अपना ज्यादा वक्त खराब नहीं करता हूं। हां, यह सच है कि पहले समस्या रोटी और पानी की थी,अब समस्या अपनी कहानी की है।

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