Friday, October 30, 2015

साहित्यिक जंग का नया माहौल और सत्‍ता की प्रतिक्रिया

साहित्यिक जंग का नया माहौल और सत्‍ता की प्रतिक्रिया

आउटलुक

“साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाने का सिलसिला एक नई परिस्थिति का संकेत देता है और एक अभूतपूर्व माहौल की रचना भी करता है। परिस्थिति नई है, वरना अभी तक यह माना जाता रहा है कि कला और साहित्य में राज्य द्वारा सम्मानित किए जाने के लिए होड़ लगी रहती है। पुरस्कार लौटाने की व्यग्रता इस पैमाने पर पहले नहीं देखी गई।”
अवश्य कुछ ऐसा हुआ है जिससे रचनाकार और बौद्धिक आशंकित हैं। उनका कदम न प्रायोजित है, न नियोजित। उसे किसी एक हादसे पर उभरी भावुक प्रक्रिया के रूप में भी नहीं देखा जा सकता। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि एक अर्से से बढ़ती हुई घुटन इधर की कुछेक घटनाओं और उन पर राज्य की दृष्टि स्पष्ट होने के बाद बर्दाश्त के बाहर चली गई। विचार और रचना की गरिमा के प्रति हिकारत का वातावरण सघनता की सहनीय सीमा लांघ चुका है। साहित्य लिखने वाले तंग आ चुके हैं। इसका कारण सिर्फ यह नहीं कि पुस्तकों पर विवाद, प्रतिबंध की मांग और लेखकों पर हमले बढ़ते चले गए हैं। तंग आने का ज्यादा बड़ा कारण यह है कि विचार और कल्पना के प्रति कुढ़न फैलती चली गई है। पूर्वांचल की एक कहावत है, 'तंंग आयद, जंग आयद।’ जब आदमी तंग आ जाता है तो वह जंग पर उतर आता है। पुरस्कार लौटाकर लेखकों और कवियों ने सत्याग्रही जंग का नया माहौल बनाया है। 
सत्ता की ओर से आई प्रतिक्रियाएं दिखाती हैं कि पुरस्कार लौटाने वालों की संख्या और विविधता से सरकार चौंकी है। एक मंत्री ने राय दी है कि लेखकों को देश की छवि की चिंता करनी चाहिए। सत्ता और साहित्य का यह संवाद कुछ अवरुद्ध प्रश्नों को खोलेगा। सर्जना की प्रेरणा क्या होती है, यह प्रश्न सत्ता पर काबिज लोगों के लिए या तो निरर्थक है या फिर महज एक रस्मी प्रश्न है जिसका कोई तुच्छ उत्तर वे तपाक से दे देना चाहेंगे। साहित्य और कला के उद्देश्य सत्ता या ताकत की शब्दावली में व्यक्त नहीं किए जा सकते। फिर भी कलाकार और कवि को यह उम्मीद रहती है कि उनकी जरूरत को समाज ही नहीं, राज्य भी समझेगा। इस आशा के पीछे यह मान्यता छिपी रही है कि राज्य की जरूरत भी समाज को इसीलिए है कि जीवन संभव बना रहे। लेखक की चिंता भी यही है। जब वह पुरस्कृत किया जाता है तो सोचता है कि राज्य ने इस चिंता की कद्र की। 
नयनतारा सहगल को जिस उपन्यास के लिए साहित्य आकदमी पुरस्कार दिया गया था, वह आपातकाल की राजनीतिक घुटन की कहानी है। यदि वित्तमंत्री ने यह कृति पढ़ी होती तो वे यह टिप्पणी करने से सकुचाते कि पुरस्कार लौटाने वालों ने आपातकाल का विरोध क्यों नहीं किया। समस्या शायद यह है कि पुरस्कृत हो जाने के बाद लेखक एक प्रतीक बन जाता है। कृति की जगह उसकी हैसियत महत्वपूर्ण हो जाती है। तब कई लोग उसे सत्ता का अंग मानते हैं। इसलिए जब वह अपना पुरस्कार लौटाता है तो इसे एक प्रकार की धृष्टता समझा जाता है। आज जो लोग पुरस्कार लौटाने वालों की आलोचना कर रहे हैं, वे भूल गए हैं कि कृति का उद्देश्य पुरस्कार पाना नहीं था। पर इसे भूल कहना गलत है। उन्हें नहीं मालूम कि कृति की खातिर कृतिकार इतनी मेहनत क्यों करता है। 
एक के बाद एक लेखक का पुरस्कार लौटा देना ऐसे समवेत स्वर का निर्माण सिद्ध हुआ है जैसा स्वतंत्र भारत ने कभी नहीं सुना। ये अलग-अलग भाषाओं के रचनाकार हैं और उनकी रचनाएं भी अलग-अलग किस्म की हैं। उनके कदम में निहित सामूहिकता की विवेचना यदि साहित्य अकादमी भी ठीक से नहीं कर पा रही है तो यह कोई अचरज की बात नहीं है। घुटन में संस्थाएं जी लेती हैं, रचनाशीलता मर जाती है। भारत एक देश के रूप में इसी किस्म के संकट से गुजर रहा है। उसकी लोकतांत्रिक संस्थाएं जीवित हैं, पर रचनाशक्ति हांफ रही है। भारत सिर्फ एक सरकार नहीं है, एक समाज भी है। उसकी सामाजिकता को कमजोर करने वाले विष हवा में हमेशा रहे हैं, पर किसी गंभीर विष को सत्ता ने इतने निश्चिंत भाव से देखा हो जिस तरह आज देख रही है, इस बात के लंबे उदाहरण नहीं मिलते। इस स्थिति से उत्पन्न आशंकाएं ठीक से व्यक्त नहीं की जा सकतीं। साहित्यकारों का विक्षोभ इसी कठिन परिस्थिति का संकेत है। 

इस संकेत में सत्ता की विचाराधारा के प्रति असंतोष पढ़ना पर्याप्त न होगा। वैचारिक टकराव लोकतंत्र का लक्षण है, पर टकराव तभी तक लोकतंत्र में रचनाशील योगदान देता है जब तक वह शब्दों में व्यक्त होता रहता है। हिंसा का सहारा लेते ही वह विनाशक हो जाता है। जो विचारधारा हिंसा का सहयोग लेती है, स्वयं नष्ट हो जाती है। सत्ता भले रचना को न समझे, उसे रचनाकार की व्यग्रता को जरूर समझना चाहिए। अच्छा रचनाकार कभी अपने लिए व्यग्र नहीं होता। उसे अकेले जीने की आदत होती है। पुरस्कार लौटाकर ये रचनाकार लिखते रहेंगे। उनकी जीवनी के अलावा साहित्य के राष्ट्रीय इतिहास में यह घटना लेखक की निस्पृहता सिद्ध करती रहेगी। सत्ता इसी निस्पृहता से डरती है। इस बार भी डरी है, भले यह बताने से डर रही हो। 

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