मुनादी से महानाद तक! -- शीबा असलम फ़हमी
किसने सोचा था की सहारा ढूंढने की उम्र वाले कलमकार सवा सौ करोड़ अवाम वाले इस नौजवान देश का इतना मज़बूत सहारा बनेंगे? शशदर हम जब नाउम्मीदी के दलदल में बेरोक धंस रहे थे, जब जंतर-मंतर में हमारे गले सूख गए थे, जब हुकूमत से शह पाये हत्यारे-गिरोह इस मिटटी के कालबुर्गी की दोनों आँखों के बीच नली रख दाग़ रहे थे, जब सत्ता के अभयदान प्राप्त हमारे दाभोल्करों को सुबह सवेरे गोली मार रहे थे, जब किसी भी बेचारे को घर-बिस्तर से खींच कर कुचल कुचल के मारा जा रहा था, और ऐलान हो रहा था की मौत का ये नंगा नाच जारी रहेगा, जब सीनाजोरी सबसे निर्लज्ज अवस्था में आँख में आँख डाले खड़ी थी, जब अँधेरा सबसे ज़्यादा घना हो चला था, तभी अवाम के कलमकारों ने उम्मीद की डोर थाम ली। 2010 में 'साहित्य और मीडिया' पर अविनाश दास द्वारा मोहल्ला डॉट कॉम के मंच से आयोजित 'बहसतलब' गोष्ठी में हिंदी साहित्यकार राजेंद्र यादव ने कहा था की 'साहित्यकार बेहतर प्रवक्ता हो सकते हैं समाज के'. आज साहित्यकार प्रवक्ता से आगे जा कर कर्णधार हो गए इस गरु दौर के. यक़ीनन ये 1975 की इमरजेंसी से कहीं ज़्यादा भयावह दौर है, उस घोषित इमरजेंसी में कम से कम सत्ता सामने से वार कर रही थी, लेकिन इस दुरूहकाल का तो कहना ही क्या जब अनेक हत्यारे-गिरोह संस्कृति रक्षा के नाम पर छुट्टे छोड़ दिए गए हैं, जो संविधान और क़ानून से ऊपर का दर्ज रखते हैं.
अश्लील पूँजी का ये कैसा घना कुहासा था की अर्थतंत्र की धुरी पर घूमती दुनिया की कान पर जूं नहीं रेंग रही थी, विदेशों में बसे इंसाफ़पसन्द भारतीय हर बार अपना विरोध दर्ज कर रहे थे, भारत के पीड़ित और इंसाफ़पसन्द हर वैकल्पिक मंच पर गुहार लगा रहे थे. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में दुनिया की सबसे ग़रीब अवाम के बीच, दुनिया के सबसे अमीर भी बस्ते हैं लेकिन पूँजी के इन शहंशाहों को सिर्फ अपनी लूट से मतलब है- उन्होंने हर मीडिया-मंच खरीद लिया है, इस तरह वो दुनिया को भरमा कर खुश हैं की बात दबी रह जाएगी, कि तभी हिंदी के हरदिल अज़ीज़ लेखक उदय प्रकाश ने एक ऐसी मुनादी लगा दी जो देखते ही देखते महानाद में बदल गयी. उदय प्रकाश पर आरोप रहा है की कुछ साल पहले उन्होंने गोरखपुर के विवादास्पद योगी अदित्यानाथ जैसे हिंदुत्वा और साम्प्रदायिकता के प्रतीक पुरुष से सम्मान ले लिया था, इस लिहाज़ से ये सबसे मुनासिब भी था की उदय प्रकाश ही हिंदुत्वा के भस्मासुर पर पहला वार करें. 12 सितम्बर को उन्होंने साहित्य अकादमी द्वारा दिया गया पुरस्कार, शाल, 100,000 /- नक़द और ताम्रपत्र अकादमी को वापिस लौटा दिया ये कहते हुए की अकादमी द्वारा सम्मानित कन्नड़ साहित्य के लेखक एम एम कालबुर्गी की नृशंस हत्या और अन्य लेखकों पर हमलों पर साहित्य अकादमी बेशर्मी से खामोश है.
शुरुआत में वही हुआ जिसके लिए हिंदी साहित्य की दुनिया जानी जाती है, नैतिकता के सवाल यहाँ बहुत अखरते हैं, यानी सरकार से उम्मीद लगाये बैठे मठाधीश तिलमिला गए, सोशल मीडिया पर उनके चाकर अपनी सारी मेधा झोंक के उपहास उड़ाने आ गये. लेकिन जो क़दम इतिहास की ज़रुरत होता है, अगर वो ले लिया जाये तो इतिहास बना देता है.
उदय प्रकाश के बाद मशहूर और बेख़ौफ़ लेखक नयनतारा सहगल, जिन्होंने इंदिरा गांधी का इमरजेंसी के दौरान विरोध किया था, ने अपना अकादमी अवार्ड वापिस कर दिया और देखते ही देखते देश भर के 43 (ये लेख लिखे जाने तक) बड़े लेखक, रंगकर्मी, बुद्धिजीवी इस कारवां में जुड़ गये. यानी इस नाज़ुक लम्हे में कश्मीर से केरल तक भारत का दिल और दिमाग़ एक जुट है। लेकिन देखने की बात है की नैतिकता की बात उन्हें सबसे ज़्यादा अखर रही है जो मौजूदा व्यवस्था के साथ अनुकूलन कर चुके हैं, ऐसे मठाधीश अपने सबसे छिछले तर्कों से वार कर रहे हैं कि 'एमर्जेन्सी में क्यों नहीं किया? 1984 में क्यों नहीं किया? गोधरा पर क्यों नहीं बोले? मुज़फ्फरनगर पर क्यों नहीं बोले? कोई और रास्ता क्यों नहीं अपनाया?',
अरे, कोई इन चाटुकारों से पूछे की ख़ुद आपने तब-तब क्या किया था जब-जब का आप ज़िक्र कर रहे हैं? दुसरे ये कि इन्हे कोई ऐसा 'चिर-विद्रोही' चाहिए जिसने हर घटना पर साहित्य अकादेमी सम्मान वापिस किया हो, जो कभी कोई मौक़ा चूका न हो विरोध करने का, वही पात्रता रखता है आज की हत्याओं के विरोध में साहित्य अकादेमी का सम्मान लौटाने की।
सरकार के कर्णधारों को जिन हत्याओं पर मुखर हो सन्देश देना था, अपराध के ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्यवाही करनी थी, वोही अपनी दक्षिणपंथी विचारधारा से जन्मे अंडे-बच्चों को हौसला देते रहे, बल्कि उन्होंने लेखकों के ख़िलाफ़ खड़ा होना तय किया? ये कैसी अश्लील धृष्टता है की विश्व् हिन्दू परिषद, श्री राम सेने, हिन्दू महासभा, शिव सेना जैसे आपराधिक संघटनों पर लगाम कसने के बजाय अरूण जेटली और महेश शर्मा जैसे मंत्रीगण इस देश की सामूहिक बुद्धिमता पर वार करने खड़े हो गये? बहरहाल, ये सरकार देश के बुद्धिजीवियों के सरोकारों को नहीं खरीद सकी यही इस ऐतिहासिक प्रकरण का सबसे आशाजनक पहलु है.
देश की अब तक की सबसे संवेदनहीन सरकार जिसके कृषि मंत्री कहते हैं की किसान नाकाम-इश्क़ और नाकाम-सेक्स के कारण आत्महत्या कर रहे हैं, जिसकी वरिष्ठ मंत्री देश के संविधान के बजाय अपने धर्म की किताब को राष्ट्रीय ग्रन्थ घोषित करती हैं, जिसके मंत्री मीडिया को वैश्या जैसा बिकाऊ बता कर नामकरण करते हैं 'प्रेस्टीट्यूट',
जिसके नेता विपक्ष को 'हरामज़ादे' कहते हैं, जिसके मंत्री संविधान को धता बता कर भारत को एक धार्मिक राष्ट्र मानते हों, और जिसके मंत्री बात-बात पर पाकिस्तान भेज देने का हांका लगाते हों, और अवाक अवाम इस सब को बर्दाश्त कर रही हो, उस मजबूर दौर में अपने होने को सार्थक करते ये बुद्धिजीवी, अपने त्याग और दुस्साहस के लिए उस सूची में दर्ज रहेंगे जिसमे प्रतिरोध का इतिहास जगमगाएगा.
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