अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस
05, OCT, 2015, MONDAY 11:41:47 PM
गांधी जयंती 2 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ ने 'विश्व अहिंसा दिवसÓ के रूप में स्वीकार किया है। दुनिया भर के देश 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस मनाते हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में स्वीकार किया है। गांधीजी का जन्मदिन अहिंसा के रूप में मनाने और दुनिया को अहिंसा का संदेश देने की आज ज्यादा ही जरूरत महसूस की जा रही है। लेकिन यह आश्चर्य की बात दिखी कि 21 जून को विश्व योग दिवस को लेकर भारत सरकार जितनी उत्साहित हुई और देश में बड़े पैमाने पर योग दिवस सरकारी स्तर पर भी मनाया गया, वैसी ललक अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस पर सरकार ने नहीं दिखाई। एक तरह से बड़ा ठण्डा-ठण्डा सा ही रहा आया अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस। गांधीजी हमारे देश के हैं, उनके जन्मदिन पर अहिंसा दिवस मनाया जा रहा है। अत: हमारे लिए ज्यादा प्रसन्नता की बात है। योग दिवस पर सरकार व कुछ संगठन अति उत्साह में दिखे। कुछ ने योग करते समय सूर्य प्रणाम न करने की बात की तो ऐसा विचार रखने वालों को कुछ संगठनों के पदाधिकारियों ने लताड़ा- यहां तक कि योग न करने वालों को पाकिस्तान चले जाने तक की बात की। योग दिवस पर पूरा देश योग करने को झोंक दिया गया। मीडिया पर भी योग के महत्व को लेकर लम्बी-लम्बी बहस कराई जाती रही। इस बात का उल्लेख बार-बार किया जाता रहा कि भारत के प्रयास के कारण और विशेषकर प्रधानमंत्री मोदी के प्रयास के कारण यू.एन.ओ. को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस स्वीकार किया है। मीडिया में यह भी बताया जाता रहा कि कितने देश इस बात को लेकर प्रसन्न हैं और उत्साहित हैं कि भारत का एक योग पूरी दुनिया को स्वस्थ रखने के काम आ रहा है। भारत के इस अवदान को पूरी दुनिया सराह रही है यह भी मीडिया में आता रहा। 15 दिन देश योगमय बना दिया गया और 21 जून को मीडिया ने योग करते लोगों का स्कूली छात्र-छात्राओं का सीधा प्रसारण दिखाया। पूरे देश में योग को लेकर उल्लास पैदा किया जाता रहा। लेकिन वैसा उत्साह 2 अक्टूबर अहिंसा दिवस को लेकर नहीं दिखा। क्या हमारी सरकार वर्तमान परिदृश्य में, विशेषकर देश में फैल रहे तरह-तरह के हिंसक वारदातों व हिंसक प्रवृत्तियों के बढऩे को लेकर चिंतित नहीं है और क्या वह देश में हिंसा के उत्तर में अहिंसा को सामने रखकर अहिंसा के महत्व को प्रतिपादित करने में रुचि नहीं ले रही- क्या सरकार को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस उतना नहीं भा रहा जितनी जरूरत है। देश में और विश्व में हिंसा का दौर चल रहा है। लेकिन विडम्बना है कि सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस का उपयोग अहिंसा की भावना बढ़ाने के लिए नहीं किया। मीडिया में वैसी चर्चा भी नहीं कराई गई जैसी चर्चा योग दिवस की कराई गई थी। गांधी जयंती को स्वच्छता में समेट दिया गया।
अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस भारत सरकार मनाए या न मनाए, गांधी को कोई फर्क तो पड़ता नहीं। गांधी ने कहने भी नहीं आए थे यू. एन.ओ. से कि उनके जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाए। यह तो यूएनओ में महसूस किया और इस तिथि को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। दुनिया में चारों ओर अशांति है, पश्चिम एशिया के देशों में जबरदस्त हिंसा का वातावरण है। लाखों लोग देश छोड़कर बाहर जा रहे हैं और यूरोप के कुछ देशों में शरण ले रहे हैं। आतंकवाद अपने चरम पर है। रोज ही विस्फोट और सैकड़ों लोग मारे जाने की खबरें आ रही हैं। अपने देश में भी विभिन्न प्रकार की हिंसा का दौर शुरू हुआ है। गांधी के लिए अहिंसा का आशय के हत्या के खिलाफ ही नहीं था। मनुष्य को पीड़ा में डालने वाली हर नीति, हर कार्यक्रम उनके लिए हिंसा की श्रेणी में रखे जाते और मानव को पीड़ा से मुक्त करने अहिंसा का प्रयोग उन्होंने किया, उनका अर्थ भी यही था कि हर तरह की मानव विरोधी, मनुष्य को उत्पीडि़त करने वाली नीति के खिलाफ आवाज उठाना और हर तरह की हिंसा को रोकना ही अहिंसा है। किसी को धमकाना, उनकी मर्जी के खिलाफ काम लेना भी गांधी अर्थ में हिंसा ही है। अपने यहां इन वर्षों में धमकाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। शब्दों के प्रयोग में शालीनता का क्षरण सामने दिखाई पड़ रहा है। साम्प्रदायिक सौहाद्र्र बिगाडऩे वाली ताकतें कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो रही हैं। उन्हें देश का माहौल बिगाड़ कर अपना स्वार्थसिद्ध करने की पड़ी है। साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म किये जाने की कोशिश जोरों पर है और कुछ जगह साम्प्रदायिक दंगे भी कराये जा चुके हैं। ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल बढ़ा है जिससे किसी खास समुदाय की भावनाएं आहत हों। ऐसा लगता है सरकारों ने ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने की बात स्थगित कर रखी है। धार्मिक आयोजनों में साम्प्रदायिक प्रतीकों की बाढ़ सी आ गई है। एक तरह से देश में संदेह, भय, कुण्ठा, हताशा के भाव हवा में तैर रहा है। इन्हें और हवा दी जा रही है। बड़बोलों की पूछ-परख बढ़ी है। देश साम्प्रदायिकता की ओर ढकेला जा रहा है और इसमें अपने हित को चिन्हित किया जा रहा है। ऐसे हालात में भी सरकार की उपस्थिति नगण्य सी हो गई है।
गांधीजी के लिए किसी भी तरह पीड़ा पहुंचाना हिंसा है। किसानों की जमीन उनकी मर्जी के बगैर हड़प लेना भी हिंसा की श्रेणी में आएगी। भूमिअधिग्रहण केवल आर्थिक सवाल नहीं है यह परपीड़ा से जुड़ा मानवीय सवाल भी है। संत कवि तुलसीदास ने कहा है-
परहित सरिस धरम नहीं भाई,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
यह परपीड़ा हिंसा है इस तरह जबरदस्त भूमिअधिग्रहण का विधेयक हिंसा की श्रेणी में आता है। यह तो भला हो कि सरकार को सद्बुद्धि आई, किसी भी कारण से आई, कांग्रेस व अन्य विरोधी दलों के जबरदस्त विरोध से आई कि उसने फिलहाल भूमिअधिग्रहण विधेयक पर विराम लगा दिया है। गांधीजी अपनी अहिंसा को किसी पर लादते नहीं थे वरन ''सत्याग्रहÓÓ सत्य के साथ ''आग्रहÓÓ उनका हथियार रहा। दुनिया भर में, अपने देश में भी जो हिंसा का वातावरण है वह समतावादी समाज निर्माण, आर्थिक गैरबराबरी दूर करने, सबको रोटी-कपड़ा-मकान देने की नीति व कार्यक्रम अख्तियार करने से नियंत्रण में आ सकती है। घोर गरीबी और जबरदस्त अमीरी के बीच लोकतंत्र में शांति की किस तरह उम्मीद की जाए। गरीबी में लोकतंत्र नहीं रह सकता। गरीबी के साथ लोकतंत्र केवल दिखावा है और कुछ चतुर-चालाक लोगों को लाभ पहुंचाने वाली व्यवस्था है। शिक्षा, स्वास्थ्य, हर क्षेत्र में भयानक गैरबराबरी है। गरीबों की भूख मिटाने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था हमेशा असफल ही रही है। बैंकों से लाखों रुपये कर्ज लेकर वापस न करने वाले वर्ग के प्रति नरमी और जरूरत के लिए थोड़ा कर्ज लेकर समय पर वापस न करने वाले वर्ग को प्रताडऩा, लोकतंत्र में यह भेदभाव घोर असंतोष को जन्म देता है। असंतोष से कभी-कभी हिंसा का उदय हो जाता है। अत: लोकतंत्र को कायम रखने के लिए भेदभाव की नीति का परित्याग भी जरूरी है। यह सरकारी हिंसा है- गांधीजी ऐसी सरकारी हिंसा का भी प्रतिकार करते रहे। अपना देश इस समय भयानक पाखण्ड के दौर से गुजर रहा है। इस पाखंड को खत्म करना भी जरूरी है।
2 अक्टूबर गांधी जयंती को व्यापक पैमाने पर अहिंसा दिवस मनाना था- सरकार से बड़ी चूक हुई है। इस तरह दिवस मनाने से स्कूली बच्चों, कॉलेज के विद्यार्थियों, नौजवानों और समाज तक एक सकारात्मक संदेश पहुंचाया जा सकता था। लेकिन सरकार ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया।
prabhakarchaube@gmail.com
अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस भारत सरकार मनाए या न मनाए, गांधी को कोई फर्क तो पड़ता नहीं। गांधी ने कहने भी नहीं आए थे यू. एन.ओ. से कि उनके जन्मदिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाए। यह तो यूएनओ में महसूस किया और इस तिथि को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया। दुनिया में चारों ओर अशांति है, पश्चिम एशिया के देशों में जबरदस्त हिंसा का वातावरण है। लाखों लोग देश छोड़कर बाहर जा रहे हैं और यूरोप के कुछ देशों में शरण ले रहे हैं। आतंकवाद अपने चरम पर है। रोज ही विस्फोट और सैकड़ों लोग मारे जाने की खबरें आ रही हैं। अपने देश में भी विभिन्न प्रकार की हिंसा का दौर शुरू हुआ है। गांधी के लिए अहिंसा का आशय के हत्या के खिलाफ ही नहीं था। मनुष्य को पीड़ा में डालने वाली हर नीति, हर कार्यक्रम उनके लिए हिंसा की श्रेणी में रखे जाते और मानव को पीड़ा से मुक्त करने अहिंसा का प्रयोग उन्होंने किया, उनका अर्थ भी यही था कि हर तरह की मानव विरोधी, मनुष्य को उत्पीडि़त करने वाली नीति के खिलाफ आवाज उठाना और हर तरह की हिंसा को रोकना ही अहिंसा है। किसी को धमकाना, उनकी मर्जी के खिलाफ काम लेना भी गांधी अर्थ में हिंसा ही है। अपने यहां इन वर्षों में धमकाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। शब्दों के प्रयोग में शालीनता का क्षरण सामने दिखाई पड़ रहा है। साम्प्रदायिक सौहाद्र्र बिगाडऩे वाली ताकतें कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो रही हैं। उन्हें देश का माहौल बिगाड़ कर अपना स्वार्थसिद्ध करने की पड़ी है। साम्प्रदायिक सद्भाव खत्म किये जाने की कोशिश जोरों पर है और कुछ जगह साम्प्रदायिक दंगे भी कराये जा चुके हैं। ऐसे प्रतीकों का इस्तेमाल बढ़ा है जिससे किसी खास समुदाय की भावनाएं आहत हों। ऐसा लगता है सरकारों ने ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने की बात स्थगित कर रखी है। धार्मिक आयोजनों में साम्प्रदायिक प्रतीकों की बाढ़ सी आ गई है। एक तरह से देश में संदेह, भय, कुण्ठा, हताशा के भाव हवा में तैर रहा है। इन्हें और हवा दी जा रही है। बड़बोलों की पूछ-परख बढ़ी है। देश साम्प्रदायिकता की ओर ढकेला जा रहा है और इसमें अपने हित को चिन्हित किया जा रहा है। ऐसे हालात में भी सरकार की उपस्थिति नगण्य सी हो गई है।
गांधीजी के लिए किसी भी तरह पीड़ा पहुंचाना हिंसा है। किसानों की जमीन उनकी मर्जी के बगैर हड़प लेना भी हिंसा की श्रेणी में आएगी। भूमिअधिग्रहण केवल आर्थिक सवाल नहीं है यह परपीड़ा से जुड़ा मानवीय सवाल भी है। संत कवि तुलसीदास ने कहा है-
परहित सरिस धरम नहीं भाई,
पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।
यह परपीड़ा हिंसा है इस तरह जबरदस्त भूमिअधिग्रहण का विधेयक हिंसा की श्रेणी में आता है। यह तो भला हो कि सरकार को सद्बुद्धि आई, किसी भी कारण से आई, कांग्रेस व अन्य विरोधी दलों के जबरदस्त विरोध से आई कि उसने फिलहाल भूमिअधिग्रहण विधेयक पर विराम लगा दिया है। गांधीजी अपनी अहिंसा को किसी पर लादते नहीं थे वरन ''सत्याग्रहÓÓ सत्य के साथ ''आग्रहÓÓ उनका हथियार रहा। दुनिया भर में, अपने देश में भी जो हिंसा का वातावरण है वह समतावादी समाज निर्माण, आर्थिक गैरबराबरी दूर करने, सबको रोटी-कपड़ा-मकान देने की नीति व कार्यक्रम अख्तियार करने से नियंत्रण में आ सकती है। घोर गरीबी और जबरदस्त अमीरी के बीच लोकतंत्र में शांति की किस तरह उम्मीद की जाए। गरीबी में लोकतंत्र नहीं रह सकता। गरीबी के साथ लोकतंत्र केवल दिखावा है और कुछ चतुर-चालाक लोगों को लाभ पहुंचाने वाली व्यवस्था है। शिक्षा, स्वास्थ्य, हर क्षेत्र में भयानक गैरबराबरी है। गरीबों की भूख मिटाने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था हमेशा असफल ही रही है। बैंकों से लाखों रुपये कर्ज लेकर वापस न करने वाले वर्ग के प्रति नरमी और जरूरत के लिए थोड़ा कर्ज लेकर समय पर वापस न करने वाले वर्ग को प्रताडऩा, लोकतंत्र में यह भेदभाव घोर असंतोष को जन्म देता है। असंतोष से कभी-कभी हिंसा का उदय हो जाता है। अत: लोकतंत्र को कायम रखने के लिए भेदभाव की नीति का परित्याग भी जरूरी है। यह सरकारी हिंसा है- गांधीजी ऐसी सरकारी हिंसा का भी प्रतिकार करते रहे। अपना देश इस समय भयानक पाखण्ड के दौर से गुजर रहा है। इस पाखंड को खत्म करना भी जरूरी है।
2 अक्टूबर गांधी जयंती को व्यापक पैमाने पर अहिंसा दिवस मनाना था- सरकार से बड़ी चूक हुई है। इस तरह दिवस मनाने से स्कूली बच्चों, कॉलेज के विद्यार्थियों, नौजवानों और समाज तक एक सकारात्मक संदेश पहुंचाया जा सकता था। लेकिन सरकार ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया।
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