Tuesday, May 26, 2015

कौन देगा हिसाब -- वसीम अकरम त्यागी


कौन देगा हिसाब

वसीम अकरम त्यागी
[जनसत्ता ]

यहां कोई घटना नहीं, घटनाओं के सिलसिले हैं। जनवरी 2008 में कर्नाटक के हुबली में आतंकवादियों ने बम धमाका किया। इस हमले के आरोप में जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया, वे सभी एक ही समुदाय के थे। पुलिस ने उन्हें सिमी और लश्कर के सरगना आतंकवादी जैसे ‘खिताब’ दिए। बिना किसी जांच के मीडिया ने इसे जनता तक पहुंचा दिया। मगर क्या सचमुच वे आतंकवादी थे? अदालत का कहना है कि पकड़े गए लोग आतंकवादी नहीं थे। इसी महीने की पहली तारीख को अदालत ने हुबली बम धमाके के आरोपियों को बाइज्जत बरी कर दिया। पहले भी दर्जनों तथाकथित आतंकवादी बरी हुए हैं। सात साल जेल में गुजारने के बाद अब जो सत्रह युवक बरी हुए हैं, उन्हें कर्नाटक, केरल और मध्यप्रदेश से गिरफ्तार किया गया था। इनमें से कई इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी थे। वे अब अपनी बाकी जिंदगी का सफर यह सफाई देते हुए तय करेंगे कि वे आतंकवादी नहीं हैं।
बगैर किसी सबूत के पुलिस ने उन विद्यार्थियों के पूरे भविष्य पर प्रश्न-चिह्न लगा दिया। एक ही समुदाय के इंजीनियरिंग और मेडिकल के सत्रह विद्यार्थियों का इस तरह भविष्य खराब कर देना आखिर किस कानून में लिखा है? यह देश कानून से चलता है या फिर पूर्वग्रह की गंध में लिपटे खाकी के कुछ कुत्सित मानसिकता वाले अधिकारियों को यह अधिकार दे दिया गया है कि वे जब चाहें किसी की जिंदगी बरबाद कर सकते हैं? किस व्यवस्था के तहत वे जिसे चाहे आतंकवादी करार दे सकते हैं, सिमी या लश्कर के नाम पर उठा कर दस-बारह या पंद्रह साल जेल में सड़ा सकते हैं?
जिन पुलिसकर्मियों या अधिकारियों के आदेश पर इन विद्यार्थियों को गिरफ्तार किया गया था, क्या अब उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? क्यों आतंकवाद के नाम पर उठाए जा रहे युवक अदालतों से बरी हो रहे हैं? अगर पुलिस के अनुसार वे आतंकवादी ही हैं तो उनके मामले अदालत में क्यों नहीं टिक पाते? सोलह मई को लोकसभा चुनाव के नतीजे आए थे। उसी दिन सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला भी आया था। उसमें उसने अक्षरधाम हमले के आरोपियों को बरी करते हुए कहा था कि इन लोगों को मुसलमान होने की सजा मिली है; गुजरात की तत्कालीन सरकार ने पूर्वग्रहग्रस्त होकर इनको फंसाया है। मगर प्रचंड बहुमत की खबर के शोर में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर रह गया।
गलत तरीके से एक या दो मामलों में कार्रवाई हो सकती है। मगर क्या सभी मामले में ऐसा संभव हो सकता है? क्या अदालत में मामला झूठा साबित होने पर संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए? क्या मीडिया के उन धुरंधरों पर कार्रवाई नहीं होनी चाहिए जो बगैर जुर्म साबित हुए पुलिस की कहानी को ही सच मान कर प्रसारित कर देते हैं? अखबारों से लेकर, इंटरनेट, टीवी तक सब जगह किसी गिरफ्तार व्यक्ति को किस तर्क पर सीधे आतंकवादी लिख दिया जाता है? क्या यह समुदाय विशेष के दिल में खौफ पैदा करने की साजिश है या फिर देश भर में उसकी छवि को बट्टा लगाने की कोशिश? यह तो वे अधिकारी जानते होंगे जिन्होंने इन सत्रह नौजवानों के सात साल बरबाद किए।
मगर सवाल यह है कि क्या सात साल जेल में गुजारने, यातनाएं सहने के बाद समाज में उनके लिए सब कुछ वैसा ही रह गया है, जैसा वे छोड़ कर गए थे? ऐसे ही एक मामले के आरोपी इकबाल जकाती ने मुझे बताया था कि अदालत से बाइज्जत बरी होने के बाद भी समाज ने उसका अघोषित बहिष्कार कर रखा है; उससे कोई बात करना पसंद नहीं करता, मस्जिद में कोई साथ में खड़ा होकर नमाज तक नहीं पढ़ना चाहता। सवाल है कि छह-सात या दस साल बाद आतंकवादी होने के आरोपों से बाइज्जत बरी हुए मेडिकल और इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों को क्या पहले की तरह समाज का भरोसा मिल सकेगा? उनके जेल में काटे गए वक्त का हिसाब कौन देगा?
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