Thursday, October 23, 2014

भारतीय मुसलमान और मुस्लिम आरक्षण

भारतीय मुसलमान  और मुस्लिम आरक्षण 

इरफान इंजीनियर
लगभग 2 वर्ष पहले मुझे पटना में पिछड़े वर्ग के मुसलमानों के एक सम्मेलन को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था। इस सम्मेलन का आयोजन ‘‘तहरीक-ए-पसमांदा मुस्लिम समाज‘‘ ने किया था। सम्मेलन में लगभग 400 लोग उपस्थित थे। हर वक्ता को केवल तीन-चार मिनट बोलने के लिए कहा गया और संयुक्त राष्ट्र संघ के एक अधिकारी को छोड़कर, अन्य सभी के मामले में इस नियम का पालन हुआ। सम्मेलन 11 बजे सुबह शुरू हुआ और चाय या भोजन अवकाश के बिना 5 बजे तक चलता रहा। इस प्रकार, लगभग 150 लोगों ने सम्मेलन में भाषण दिया, जिसमें से केवल पांच हिन्दू दलित थे और एक दलितों के बीच काम करने वाला ईसाई सामाजिक कार्यकर्ता था। वक्ताओं ने मुस्लिम नेतृत्व को कोसने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसे मैं यहां दोहरा नहीं सकता। उन्होंने कहा कि उनके नेताओं को उनकी बदहाली की कोई परवाह नहीं है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि सभी पार्टियों के मुस्लिम नेतासमुदाय को केवल भावनात्मक मुद्दों पर भड़काने का काम करते आ रहे हैं। इनमें शामिल हैं बाबरी मस्जिद, मुस्लिम पर्सनल लॉ, शाहबानो व सेटेनिक वर्सेस पर प्रतिबंध जैसे मसले। उनका कहना था किमुस्लिम पिछड़े वर्गों की हालत, हिन्दू दलितों से भी बदतर है। उन्हें न केवल समाज अछूत मानता है वरन् उनके समुदाय के सदस्य भी उनके साथ कोई संबंध नहीं रखना चाहते। वक्ताओं में हलालखोर समाज के प्रतिनिधि शामिल थे। इस समाज के सदस्य, सिर पर मैला ढोने का काम करते हैं। मुस्लिम अशरफ, अपवित्रता और पवित्रता की अवधारणाओं में उतना ही विश्वास करते हैं जितना कि हिन्दू उच्च जाति के लोग। हलालखोरों को भी मस्जिदों में प्रवेश करने से हतोत्साहित किया जाता है और अगर इस समुदाय का कोई सदस्य, परिणामों की परवाह किए बगैर, मस्जिद में घुस भी जाता है तो उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह नमाजियों की सब से आखिर की पंक्ति में खड़ा हो। पिछड़े मुसलमानों की हालतहिन्दू दलितों से भी खराब है क्योंकि हिन्दू दलितों को कम से कम अनुसूचित जाति के बतौर, संवैधानिक और कानूनी लाभ प्राप्त हैं जबकि सन् 1950 के राष्ट्रपति के आदेश के अनुसार, किसी गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख या गैर-बौद्ध को अनुसूचित जाति के तौर पर अधिसूचित करने पर प्रतिबंध है। इस तरह, वे शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी नौकरियों और संसद व विधानसभाओं में आरक्षण के लाभ से वंचित हैं। इसी तरह, उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की सुरक्षा भी प्राप्त नहीं है। एक वक्ता, जो सारी मुसीबतों से जूझकर शिक्षा प्राप्त करने में सफल हो गया था, को तब भी अशरफ समुदाय में सम्मान प्राप्त नहीं था। केवल उसकी हलालखोर बिरादरी के सदस्य उस पर गर्व महसूस करते थे। एक हिन्दू नाम का उपयोग कर वह सरकारी नौकरी पाने में सफल भी हो गया था। इस्लाम में अपनी आस्था को उसे अपने दिल के एक कोने में छुपाकर रखना पड़ता था और उसके परिवार का सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन अलग-अलग था।
सम्मेलन में दलित हिन्दू वक्ताओं ने दलित मुसलमानों की हालत पर चिंता और दुःख व्यक्त किया और यह मांग की कि गैर-हिन्दू, गैर-सिक्ख और गैर-बौद्ध दलितों को भी अनुसूचित जाति में शामिल किया जाना चाहिए। यहां यह महत्वपूर्ण है कि अन्य समुदायों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से आरक्षण के लाभ और बंट जायेंगे परंतु फिर भी हिन्दू दलित, अपने मुसलमान साथियों की खातिर यह त्याग करने को तैयार थे।
इस सम्मेलन से एक बार फिर यह स्पष्ट हुआ कि मुस्लिम ‘समुदाय’, दरअसल, समुदाय है ही नहीं। इसमें कई अलग-अलग बिरादरियां हैं जैसे हलालखोर, खटीक, तेली, तंबोली, जुलाहा, बागवान, पठान, सैय्यद, शेख इत्यादि।इन मुस्लिम बिरादरियों को मुख्यतः तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है-अशरफ (श्रेष्ठी वर्ग, हिन्दू उच्च जातियों के समकक्ष), अजलफ (ओबीसी के समकक्ष कारीगर वर्ग) व अरज़ल (दलित हिन्दुओं के समकक्ष वे मुस्लिम बिरादरियां जो ‘अपवित्र काम’ करती हैं)। अशरफअजलफ और अरज़ल शब्द किसी भारतीय भाषा के शब्द नहीं हैं। ये अरबी के शब्द हैं और इनका इस्तेमाल सल्तनत काल से होता आ रहा है। तब भी इस्लाम के मानने वालों में इतना भेदभाव था कि पिछड़े वर्गों से मुसलमान बनने वालों पर शरियत कानून लागू नहीं होते थे। मदरसे केवल अशरफ और अजलफ मुसलमानों के लिए थे और अरजल बिरादरियों के बच्चों को केवल सूफी संतों और उनकी दरगाहों का सहारा था-वे दरगाहें जहां सबका स्वागत था-हिन्दुओं और मुसलमानों का, दलितों और उच्च जातियों का, महिलाओं और पुरूषों का। जब इस्लाम और ईसाई धर्म, दक्षिण एशिया पहुंचे तब उनका सामना भारत में सदियों से स्थापित जाति व्यवस्था से हुआ। जहां तक ऊँची जातियों की बात है उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि शूद्र कौन सा धर्म, परंपराएं या कर्मकांड अपनाते हैं। उन्होंने वैसे भी शूद्रों को अपने समुदाय और समाज से बाहर कर रखा था। अतः उन्हें शूद्रों के इस्लाम या ईसाई धर्म अपनाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था। राज्य का मूल चरित्र सामंती था और वह हिन्दू और मुस्लिम श्रेष्ठी वर्ग के हितों का रक्षक था। वह ऊँचनीच और जन्म-आधारित भेदभाव को बनाए रखना चाहता था। आज भी मुस्लिम बिरादरियों की वफादारी, उनकी बिरादरी से जुड़े संगठनों (कुछ-कुछ जाति पंचायतों की तरह) के प्रति होती है। पारिवारिक विवादों के मामले में दारूलउलूम या मुस्लिम विधिशास्त्रीय संस्थाओं की बजाए बिरादरी से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया जाता है। शैक्षणिक संस्थाएं और वजीफे आदि देने वाले संगठन भी मुख्यतः अपनी-अपनी बिरादरी के सदस्यों के लिए ही होते हैं। बिरादरियों में आपस में ही विवाह होते हैं और बिरादरी से बाहर विवाह बहुत ही कम मामलों में स्वीकार किये जाते हैं। विभिन्न बिरादरियों के बीच रोटी का व्यवहार तो शायद होता भी हो परंतु बेटी का नहीं होता।
मुस्लिम समुदाय इसलिए पिछड़ा है क्योंकि उसकी अधिकांश बिरादरियां सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ी हैं। परंतु अशरफ बिरादरियों की समाज में अच्छी पकड़ है क्योंकि उनमें से कई गुजरे जमाने में नवाब और जमींदार थे। उसी तरह, गुजरात की तीन व्यवसायी बिरादरियों-बोहरा, कच्छी मेमन व खोजा-भी शिक्षा व रोजगार की दृष्टि से काफी अच्छी स्थिति में हैं। यद्यपि उन्हें भी मुसलमानों के दानवीकरण के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ता है परंतु फिर भी अपनी शैक्षणिक, सामाजिक व आर्थिक ताकत के कारण, उन्हें इस भेदभाव से बहुत नुकसान नहीं होने पाता। आधुनिक शिक्षा देने वाली मुसलमानों के जो चंद शैक्षणिक संस्थान हैं, उन पर अशरफों का नियंत्रण है। पहली से चौदहवीं लोकसभा तक केवल पांच पिछड़े मुसलमान सदन के सदस्य बन सके। यही हालत राज्यसभा और विधानसभाओं की भी है। यद्यपि वर्तमान राज्यसभा में कई मुस्लिम सदस्य हैं परंतु उनमें से एक भी पिछड़े वर्ग का नहीं है। राजनैतिक पार्टियों में भी पिछड़े मुसलमानों का प्रतिनिधित्व न के बराबर है जबकि पिछड़े मुसलमान, कुल मुस्लिम आबादी के 90 प्रतिशत से भी अधिक हैं। इसके बावजूद, समुदाय का नेतृत्व अशरफों के हाथों में हैं जो पूरे समुदाय का प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं और समुदाय के सदस्यों को सेटेनिक वर्सेस, डच कार्टून, बाबरी मस्जिद और शाहबानो जैसे पहचान से जुड़े मुद्दों में उलझाये रखते हैं। इसके विपरीत, पिछड़े मुसलमानों के अधिवेशन में एक भी वक्ता ने इन मुद्दों की चर्चा नहीं की। वे बेशक इस्लाम से प्यार करते हैं परंतु उनके लिए उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, सामाजिक न्याय, शिक्षा इत्यादि सबसे महत्वपूर्ण हैं। इस्लाम उनके लिए एक निजी मामला है जिसके नियमों का पालन वे अपने घर की चहारदीवारी में करते हैं। इस्लाम उनके लिए आस्था का प्रश्न हैराजनैतिक हितों को बढ़ावा देने के लिए भीड़ जुटाने का हथियार नहीं। वे अशरफ मुसलमानों की तुलना में स्वयं को हिन्दू दलितों के अधिक करीब पाते हैं और वे उन लोगों से प्रभावित हैं, जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं। उनके लिए उनकी प्राथमिक पहचान ‘दलित’ है, ‘मुसलमान’ नहीं। अन्य मुसलमानों और स्वयं में वे जो चीज एक सी पाते हैं वह है आराधना करने का तरीका और धर्म। इसके अलावा कुछ भी नहीं। अन्य मामलों में वे मुसलमानों की बजाए दलितों के अधिक नजदीक हैं। हाल के आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के एक निर्णय पर हो रही बहस को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। क्या मुस्लिम ‘समुदाय’ शैक्षणिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़ा हुआ वर्ग है? मेरे विचार में, भारत के मुसलमान न तो कोई समुदाय हैं और न कोई वर्ग। काका कालेलकर आयोग और उसके बाद मंडल आयोग ने मुस्लिम पिछड़े वर्गों को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया था।
हमारा संविधान धर्मनिरपेक्ष है और पूरे मुस्लिम समुदाय को आरक्षण देना, धर्म के आधार पर भेदभाव करना होगा।मुसलमानों को आरक्षण देने में कानूनी बाधाएं तो हैं ही परंतु मेरी यह राय है कि ऐसा करना वांछनीय भी नहीं है क्योंकि इससे मुख्यतः वे अशरफ बिरादरियां लाभान्वित होंगी जो पहले से ही सामाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक दृष्टि से आगे हैं और जिन्हें आरक्षण की कतई आवश्यकता नहीं है। बोहरा, मेमन और खोजा समुदाय में एक बड़ा शिक्षित मध्यम वर्ग है। ये तीनों समुदाय  गुजरात के हैं और ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में बंबई में बंदरगाह बनने के बाद, पश्चिमी भारत में हुए विकास से लाभांवित हुए हैं। इन समुदायों की युवा पीढ़ी आरक्षण के बिना भी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद यद्यपि उनमें से कुछ डाक्टर, इंजीनियर, वकील, चार्टर्ड अकाउंटेंट आदि बतौर काम करते हैं परंतु कुछ अपने पारिवारिक व्यवसाय को चलाना ही बेहतर समझते हैं। मस्जिदों और मदरसों के अलावा, इस समुदाय के सदस्यों ने देशभर में कई शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों व अन्य सार्वजनिक संस्थाओं की स्थापना भी की है। भारत के सभी समुदायों में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने वालों का प्रतिशत 26 है। इसके मुकाबले, 17 प्रतिशत मुसलमान मैट्रिक्यूलेट हैं। परंतु इनमें भी अशरफों, जिनमें बोहरा, खोजा और मेमन शामिल हैं, की संख्या सबसे ज्यादा है। इसी तरह, जो 3.6 प्रतिशत मुसलमान स्नातक परीक्षा पास हैं और 0.4 प्रतिशत, जिन्होंने तकनीकी शिक्षा प्राप्त की है, उनमें भी अशरफों की बहुलता है यद्यपि वे कुल मुस्लिम आबादी का केवल 10 प्रतिशत हैं। ऐसी स्थिति में अगर सरकार मुसलमानों की भलाई के लिए कोई सकारात्मक कदम उठाती है तो उसके सभी लाभों पर अशरफ कब्जा कर लेंगे। इसका कारण यह है कि वे पहले से ही शिक्षित हैं और आरक्षण का लाभ उठाना उनके लिए कहीं आसान होगा। इसके विपरीत, पहले से ही पिछड़े अजलफ और अरजल पिछड़े ही बने रहेंगे। बेहतर यह होगा कि सभी मुसलमानों को आरक्षण देने की बजाए, विशिष्ट मुस्लिम समूहों या बिरादरियों को पिछड़े वर्गों की सूची में शामिल किया जाए ताकि लाभ उन तक पहुंचे जिन्हें उसकी जरूरत है। ऐसा करके हम इस सच्चाई को भी स्वीकार करेंगे कि मुस्लिम समुदाय एकसार नहीं है।
सत्ता में आने के बाद, आंध्रप्रदेश की वाय.एस. राजशेखर रेड्डी सरकार ने कानून बनाकर मुसलमानों को  5 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया। इस नये कानून को आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और न्यायालय ने उसे असंवैधानिक व समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया। अपने निर्णय में उच्च न्यायालय ने कहा कि आरक्षण का लाभ केवल सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को दिया जा सकता है, किसी धार्मिक समुदाय को नहीं। इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी कहा कि आंध्रप्रदेश सरकार के पास ऐसे कोई आंकड़े या तथ्य उपलब्ध नहीं हैं जिनके आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पहुंच सके कि पूरा मुस्लिम समुदाय पिछड़ा हुआ है। उच्चतम न्यायालय ने आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराया। इसके बाद, आंध्रप्रदेश सरकार ने मुसलमानों के पिछड़े वर्गों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। इस बार ऐसा करने के पहले उसने मुसलमानों के उन वर्गों के सामाजिक व शैक्षणिक पिछड़ेपन के संबंध में आंकड़े इकट्ठे किये। सरकार ने आंध्रप्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग से यह कहा कि वह मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति का अध्ययन करे। इसके बाद सरकार ने पिछड़े वर्गों की सूची में एक नया ‘ई‘ समूह शामिल किया, जिसमें ‘मुसलमानों के सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदाय‘ रखे गए। परंतु आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय ने इस कानून को भी रद्द कर दिया। न्यायालय ने कहा कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी प्रासंगिक कारकों का संज्ञान नहीं लिया गया है और कई अप्रासंगिक कारकों का संज्ञान लिया गया है। उच्च न्यायालय ने कहा कि मुस्लिम पिछड़ों के लिए आरक्षण इसलिए भी अवैध है क्योंकि इससे उच्चतम न्यायालय द्वारा कुल आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन होता है।
अब समय आ गया है कि हम पिछड़ों को समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के लिए आरक्षण को एकमात्र सकारात्मक कदम मानना छोड़ें। राजनेताओं के लिए आरक्षण देना सबसे आसान होता है क्योंकि इसके लिए उन्हें कोई अतिरिक्त संसाधन नहीं जुटाने होते। केवल एक कानून बनाकर किसी भी वर्ग को आरक्षण दे दो और उसके वोट बटोरो। मुस्लिम पिछड़ों का एक छोटा सा हिस्सा अपनी मेहनत से और निर्यात में हुई वृद्धि के कारण आर्थिक रूप से संपन्न बन गया है। इनमें शामिल हैं वाराणसी के साड़ी बुनकर, मुरादाबाद के पीतल कारीगर और अलीगढ़ के ताला उद्योग व मेरठ के कैंची उद्योग के कुछ व्यवसायी। आरक्षण की बजाए मुस्लिम समुदाय के पिछड़े तबकों को आगे बढ़ने के मौके उपलब्ध कराने के लिए बेहतर यह होगा कि सरकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के हितों की सुरक्षा के लिए कड़े कानूनी प्रावधान करेकारीगरों को कौशल विकास के मौके उपलब्ध कराए और उन्हें अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए आसान शर्तों पर कर्ज दिलवाने की व्यवस्था करे। परंतु इसके लिए यह जरूरी होगा कि संसाधनों का इस्तेमाल कुबेरपतियों के उद्योगों को अनुदान देने की बजाए गरीबों की भलाई के लिए किया जाए। ऐसा सिर्फ एक दूरदृष्टा व उदार नेता ही कर सकता है-वे बौने नहीं जो इस समय हमारे राजनैतिक परिदृश्य पर छाए हुए हैं।(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
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Why does Myanmar keep persecuting the Rohingya Muslims?

Times Editorial dated October 15, 2014
Why does Myanmar keep persecuting the Rohingya Muslims?
The United Nations considers the Rohingya one of the most persecuted groups in the worldRohingya
An internally displaced Rohingya woman holds her newborn baby surrounded by children at a camp for Rohingya people in Sittwe, Myanmar. Gemunu Amarasinghe / AP
For years, the government of Myanmar has treated its Rohingya Muslim people as intruders — an impoverished minority among a Buddhist majority, considered illegal immigrants, restricted in where they can live and work. The United Nations considers them one of the most persecuted groups in the world. Even as Myanmar has liberalized its political system, moving from military rule to democracy, the government has declined to ease its treatment of the Rohingya despite constant urging to do so by the human rights community and U.S. officials.
Now Myanmar is responding to the continued calls for change with a proposed "Rakhine State Action Plan." But what the government claims is an attempt to address the statelessness of the Rohingya only further institutionalizes its discrimination against them.
Currently, the Rohingya are not eligible for full citizenship unless they can meet the nearly impossible requirements of the country's 1982 Citizenship Law — including tracing their family history in Myanmar back to the days before British colonization in 1823. Few have the necessary documents to do so. Most of the 1 million Rohingya live in Myanmar's western Rakhine state; an estimated 180,000 of them were driven from their homes there by waves of sectarian violence against them in 2012, ending up in squalid displaced persons camps.Myanmar Census
Myanmar Census enumerators walk along with police officers to collect information at Dar Paing camp for Muslim refugees in north of Sittwe, Myanmar. (Khin Maung Win / AP)
Myanmar considers the Rohingya to be immigrants from Bangladesh and West Bengal, even though most are not recently arrived. They are the descendants of families that lived in Myanmar well before it became independent in 1948. Some historians believe there are Rohingya who are indigenous to Rhakine state, but most Rohingya originally migrated from the Bengal region in the 19th and 20th centuries. In any case, they are not foreigners and should not be treated as such.
The government's misguided new plan would require all Rohingya to declare themselves Bengali (which they say they are not) and then try to prove they're eligible for citizenship by the standards of the 1982 law. Those who fail to meet the standards would be put into what Myanmar calls "a resettlement zone." Those who refuse to go through the process would be assigned to a displacement camp.
·   @SamSpect You obviously have no clue. Please get your facts straight before you post. The world is not as simple as your retarded 17 word comment. Sri Lanka's separatist Tamil insurgents are Hindus and are fighting against the Sinhalese majority, who are mostly Buddhists. This is not about...
IZLAMKILLZ
AT 5:49 PM OCTOBER 15, 2014
This is not a path to citizenship, it's a path to indefinite detention. Myanmar should scrap it and revamp its citizenship law to recognize the historic roots of the Rohingya in the country.
 Asghar Vasanwala
20754 Tulip Circle
Yorba Linda California 92887
United St
 

India Retreats, US Reacts to Extra Judicial Killings

India Retreats, US Reacts to Extra Judicial Killings

Fake encounters do not draw a response from the Indian state
Both the US and India have witnessed extra-judicial executions by the police of the members of minority communities. However, the response to these killings on the part of the authorities in the two countries has differed widely. In the US serious note is taken of such violations of rule of law and immediate remedial action is initiated. In India, on the other hand, the response has increasingly displayed deeply problematic features: the authorities evade proper analysis and action or use the argument of ‘national security’ to justify the killings. We examine here recent some cases.

In the US, Ferguson, a city of some 20,000, situated north of St. Louis in Missouri, was once predominantly white, but later began to be dominated by African-Americans. The city council is white-dominated and has a white mayor. Only three of the 50 police officials in Ferguson are African-Americans. On August 9, 2014, the 18-year-old African-American Michael Brown was shot dead by a white policeman in the city while allegedly maintaining law and order. This led to major civilian protests. Brown received six gunshots including two fatal ones on his head, while walking down a street with a friend. The white policeman allegedly admonished the two for walking on the middle of the street. A witness said the policeman fired several shots at the unarmed Brown without provocation.

The six gunshots on Brown enraged the local African-American community. Police reluctance to name the offending policeman (who was later suspended) further infuriated them. A grand jury has been appointed and its report is expected sometime soon. This is expected to be followed by penal action against the guilty. The refusal of the Ferguson police to arrest their guilty colleague was held to be offensive and racially motivated.

A probe by the Federal Bureau of Investigation (civil rights) was initiated into police misconduct. Attorney-General, Eric Holder, a victimised black himself, visited Ferguson to oversee the police response and calm the feelings of the black majority. Holder addressed a lengthy press conference and provided detailed answers to questions from the public and the media. Interestingly, observers have noted the massive militarisation of the US police since 9/11 a pattern not dissimilar to increasing militarisation of the Indian police in the recent period in the wake of the globalisation of terrorism.

The response to the peaceful protests in the aftermath of Brown’s killing in Ferguson was marked by an appalling display of a militarised police force with the look of an invading army training its weapons on unarmed citizens. A lot of anger was seen in the African-American community over the way the laws were enforced. The racial question, a serious one in the US, has engaged citizens and elites alike. The response to racial profiling by the police in the US has been sensitive and police attitudes are strongly deplored. The state response in this case was prompt and straightforward though many complications exist.

Contrastingly, India has, in the recent period, witnessed increasing numbers of extrajudicial execution by the police and security forces of minorities, dalits and adivasis in different parts of the country. Mainstream states such as Gujarat, Andhra Pradesh and Jammu and Kashmir and the Central Tribal Belt consisting of several states as well as states in the peripheral Northeast, have been seriously affected.

A recent field investigation in Manipur which is under the operation of the draconian Armed Forces (Special Powers) Act 1958, providing immunity from prosecution to armed police and the army, a large number of extrajudicial executions of minorities have been made in the course of alleged ‘counterinsurgency’ activities. A young woman, Irom Sharmila Chanu has been under a non-violent indefinite fast for over 14 years demanding the removal of this ‘lawless law’. She is being force-fed by the authorities.

The state of Gujarat witnessed a number of extrajudicial executions during and after the politically instigated anti-Muslim carnage of 2002. In a major case in July 2004, a young Muslim woman named Ishrat Jahan and three others were brutally executed in Ahmedabad by the state police in a politically motivated joint operation with the officials of the central intelligence bureau (IB). The officials claimed that these individuals were Pakistan-trained ‘terrorists’ targeting the state chief minister. The incident was kept under wraps for several years until a judicial enquiry in 2011 blew the lid off the case and exposed it as a macabre and fabricated case ‘encounter’ killing. Local media investigations too established the validity of the finding.

The Supreme Court of India then asked the Central Bureau of Investigation (CBI), equivalent to the FBI in the US, to investigate the case. Interestingly, the CBI operates within a legal framework and a charter of duties while the IB does not. The CBI has collected convincing evidence of culpable homicide against the men of the state police and the IB and sought the arrest of the guilty. However, the colonial Indian Penal Code (IPC) provides that prior government permission must be obtained for prosecution of officials involved in crime.

This provision has been used by the guilty IB men to put up sustained resistance to the investigation and prosecution of the case by the CBI. Obviously, the IB had either been misled by false leads or had prepared them against the young woman and three others. A conflict of interests has thus arisen between the CBI which wants the arrest of the intelligence officials and the Intelligence Bureau (IB) which opposes the investigation on grounds of ‘national security’ inhibiting justice delivery in the case.

While the IB seeks protection of its officers in terms of one provision of the IPC, another provision of the same law protects the CBI and prohibits ‘obstruction a public servant from the performance of his duties’. This is a piquant situation indeed! The situation is complicated because the entire criminal justice system in India today has been politicised beyond measure with many police officers who are seen to be ‘preoccupied with politics, penetrated by politics and participating in it individually and collectively’. It is thus not at all surprising that justice delivery for the brutally assassinated young Ishrat Jahan and her three companions has been long in coming.

National Convention of People's Struggles


National Convention of People's Struggles
in defence of democracy, to protect land, water, forest and livelihoods

November 29-30, Dhinkia, Jagatsinghpur, Odisha

Dear friends,

People's movements defending land, water, environment, livelihood, and democratic rights are coming together to organise a national convention in defense of democracy next month in Odisha, in the context of burgeoning onslaughts under the new government.

The new government at the centre has made it amply clear that it is going to pursue the pro-corporate and anti-people policies of the previous dispensation with much more vigor, coercion, and rapid pace. The reality of 'achchhe din' stands exposed and the people's aspiration for better life has been channelised to nefarious communal polarisation.

In its very first quarter, the new government has shown its true intentions: allowing Foreign Direct Investment (FDI) not only in multi-brand retail but also in the defense sector; amending the existing labor laws to suit the industry; diluting environmental laws to turn clearances into mere formalities; and even to amend the much flawed Land Acquisition Act brought by the previous regime in order to do away with the minimum relief it provided to the people.  

The new PM and his government’s silence on the communal riots and the attempts made its political affiliates to vitiate the communal environment in the run up to the recent by-polls has surpassed the famous silence of Manmohan Singh government on corruption. Communal groups, including elected party officials are making inflammatory statements and stoking communal tensions. The communal Hindutva agenda, together with all that underlies it, is rapidly permeating the very air we breathe.

Both these threats of corporate loot of natural resources as well as communalism are greatly undermining our democracy. Resistances by people and movements against the economic offensive will be met by an aggressive repressive regime as well as by extra-constitutional violent outfits supporting the regime. Even the judiciary will be weakened through various means and the corporate-controlled media will turn a blind eye.

Such an ordeal before the people's movement has very few precedents in recent history. It is in this context, that the people’s movements and democratic groups have decided to call for a national convention during 29-30 November 2014 in Dhinkia village of Jagatsinghpur, Odisha to discuss the challenges and the way ahead. 








PROGRAMME

Day -1 November 29, 2014
  • Presentation by people's struggles
     existing situation
     way forward
  • Formation of drafting committee

Day 2 November 30, 2014

  • Discussion on the draft of declaration
  • Discussion on follow up – future programmes

We request you to kindly ensure your participation in this national convention and extend your solidarity. Please send us your confirmation on janadhikarsangharshsamiti@gmail.com




How to reach Dhinkia

- Participants coming from other states will have to de-board at Cuttack station.
- From Cuttack station they’ll have to take a train towards Paradip and de-board at Badbandh. (Trains from Cuttack leave at 7:40, 11:00, 15:00, 19:00 everyday)
- The organisers have arranged for road transport from Badbandh to Dhinkia. For any further enquiry kindly contact Prashant Pakra on mobile no.- 09437571547.
- Kindly note that transport has to be arranged by the participants themselves. The organiser friends will provide for lodging and food in Dhinkia.  


Local contact persons-

Kalyan Anand (0943836237),Narendra Mohanty (09437426647), Mamta Patra,(09437283283), Nishikant Mahapatra (09861117243), Lingaraj Azad (09437702358), Prashant Paikray(09437571547)


Co-organisers

Kalahandi Sachetan Nagrik Manch, Odisha; Niyamgiri Surksha Samiti, Odisha; Odisha Soochana Adhikar Manch, Odisha; Janamukti Sangharsh Vahini , Odisha; Jatadhar Bachao Andolan, Odisha; Samajwadi  Jan Parishad, Odisha; Odisha Asangthit Sharamik Sangh, Odisha; Adivasi Dalit Vikas Samiti, Odisha; Nabarangpur Nagrik Manch; Odisha; POSCO Pratirodh Sangram Samiti, Odisha; Lok Sakti Abhiyan, Odisha; Kaling Nagar Visthapan Virodhi Jan Andolan, Odisha; Paschim Odisha Krushaka Sangathan , Odisha; Zindabad Sangathan, Odisha;  Lower Suktel Vudi Anchal Sangram Parishad, Odisha; Sahahra Powar Plant Birodhi Manch, Odisha;  Lower Indra Visthapit Sahayata Samiti, Odisha; Santha Bhima Bhoi Krushaka Sangharsh Samiti, Odisha;  Pira Jaharian Bhitta Mati Suraksha Manch, Odisha; Ambedkar Dalit Adhikar Manch, Odisha; Lower Suktel Nagrik Mangh, Odisha; Singhbum Gao Ganrajya Parishad, Jharkhand; Koyal Karo Jansangthan, Jharkhand; Dastak Manch, Jharkhand; Spanj Iron Factory Virodhi Andolan, Jharkhand; Jharkhand Ulgulan Manch, Jharkhand; Jharkhand Asangthit Mazdoor Morcha, Jharkhand; Ghar Adhikar Sangharsh Morcha, Jharkhand; Visthapan Virodhi Ekta Manch, Jharkhand; Abhiyan, Jharkhand; Adivasi Moolvasi Astitva Raksha Manch, Jharkhand; Mittal Virodhi Andolan, Jharkhand; Bhushan Virodhi Andolan, Jharkhand; Damodar Bachao Abhiyan, Jharkhand; Poorvi Kolahan Visthapit Sangh, Jharkhand; Kolahan Adivasi Swashasan Samiti, Jharkhand; Jharkhand Mukti Wahini, Jharkhand; Icha Khadkai Bandh Virodhi Sangh, Jharkhand; Khutkati Reyti Bhoomi Surksha Sangarsh Samiti, Jharkhand; Zameen Bachao Andolan, Jharkhand;  Anti Jindal-Bhushan-Mittal movement, Jharkhand;  People’s struggle against nuclear Mining, Jadugoda, Jharkhand;  Chhattisgarh Mukti Morcha, Chhattisgarh; Adivasi Mahila Mahasangh, Chhattisgarh; Nadi Ghati Morcha, Chhattisgarh; Baiga Mahapanchayat, Chhattisgarh; Chhattisgarh Dalit Mukti Morcha, Chhattisgarh; Jurmil Morcha, Chhattisgarh; Chhattisgarh Mahila Manch, Chhattisgarh; Jan Adharit Sleeper Mazdoor Union, Chhattisgarh; Adivasi Mazdoor Kisan Ekta Sangthan, Chhattisgarh; Raigarh Sangharsh Morcha, Chhattisgarh; Anti Displacement Movement, Chhattisgarh;  NAPM, Delhi; All India Union of Forest working People, Delhi; National Adivasi Alliance, Karnataka;  NTUI, Delhi; INSAF, Delhi; PUCL, Delhi; National Hawker Federation, West Bengal; MMP, Delhi; PUDR, Delhi; SAHELI, Delhi; HRLN, Delhi; NFDLRM, Delhi; Kisan Sangarsh Samiti, Madhya Pradesh; National Fishworkers’ Forum, Kerala; PSA, Delhi; PMANE, Tamil Nadu; National Alliance for Women Organisation, Delhi; Delhi Sharmik Sangathan, Delhi; Centre for Policy Analysis, Delhi; Jamia Teachers' Solidarity Association, Delhi; Delhi Union of Journalist, Delhi; ANHAD, Delhi; Coalition for Nuclear Disarmament and Peace (CNDP), Delhi; Azadi Bachao Andolan, Janadhikar Sangharsh Samiti, Delhi; Jan Sangharsh Samnvy Samiti, Delhi; Andhra, Kovvada, AP; Sahadevan K, Kerala,Payal Cooperative Society, Maharashtra, Anchalika Vikas Parisad, Odisha, Manavikata Kala Seva Sanhati, Odisha, Shramjivi Sangathana, Maharashtra, V.T.M.S., Tamilnadu, Hum Kisan, Rajasthan, Visthapit Mukti Vahini, Jharkhand, Mazdoor Kisan Samiti, Bihar, Shoshit Kamgar Sangathana, Marathwada, Maharashtra, NOBIN, Odisha
Ghosikhurd Prakalpgrast  -Sangarsh Samiti, Maharashtra, Nava Jeevan Organisation, Andhra Pradesh
Adim Adivasi Mukti Manch, Odisha, MASS’ , Andhra Pradesh, Lok Shiksha Sangthan, Rajasthan
MATI, Uttarakhand, Satark Nagrik Sangathan, New Delhi, Jashpur Jan Vikas Sanstha, Chhattisgarh
Bundelkhand Kissan Mazdoor Shakti Sangathan, Madhya Pradesh, Chhattisgarh Bachao Andolan, Chhattisgarh, Dalit Adivashi Manch, Chhattisgarh, Patthar Khadan Mazdoor Sangh, Madhya Pradesh
People’s Foundation, New Delhi, Lokadhikar Sangathan, New Delhi, Krishi Bhoomi Bachao Morcha,UP, Cement Plant Virodhi Aandolan, Nawalgarh, Rajasthan, Rajasthan Nirman Mazdoor Sangathan, Rajasthan, Parmanu Virodhi Morcha, Haryana,DMIC Virodhi Morcha, Rajasthan, Nirman Mazdoor Panchayat, UP, SEZ Virodhi Sangharsh Samiti, UP, Bhagat Singh Vichar Manch, Bihar, Gaon Bachao Aandolan, UP, Chhatisgarh Mahila Mukti Manch, Chhatisgarh, Matrubhoomi Raksha Sangharsh Samiti, Himachal Pradesh, Punarvas Kisan Kalyan Sahayta Samiti, UP, Parmanu Pradushan Sangharsh Samiti, Rajasthan, Rajasthan Adivasi Adhikar Manch, Rajasthan, Himalaya Niti Abhiyan, Himachal Pradesh, Bhakhra Visthapit Sudhar Samiti, Himachal, Renuka Bandh Jan Sangharsh Samiti, Himachal Pradesh, Bihan, UP, Lakshmi Prasad Suraksha Samiti, Odisha, Mazdoor Karyakarta Samiti, Chhatisgarh, Chutka Parmanu Oorja Virodhi Aandolan, Madhya Pradesh, Mithi Virdi Anu Oorja Virodhi Aandolan, Gujarat, Konkan Vinashkari Prakalp Virodhi Samiti, Maharashtra. 







organizes a Public Meeting on Strangulating Democratic Dissent

People's Union for Democratic Rights (PUDR)

organizes a Public Meeting on
Strangulating Democratic Dissent

SPEAKERS:
Gautam Navlakha (People’s Union for Democratic Rights, Delhi)
S. Seshaiah (Civil Liberties Committee, Andhra Pradesh)
Payal Sarkar (Jadavpur University, West Bengal)
Pramod Ranjan (Forward Press, Delhi)


Date:    1st November
Time:   4 pm to 6 pm
Venue: Conference Hall, 4th Floor
N.D.Tiwari Bhavan
(next to Gandhi Peace Foundation)
219, Deendayal Upadhyay Marg,
New Delhi

Concept note:
Much in negation with the values enshrined in the Indian Constitution, the functioning of the ‘democratic state’ is increasingly witnessing violent assault on people’s rights and the very existence of those who dare to be the dissident voices has been jeopardized. The global profile of India as the world’s largest democracy is sustained through the observance of certain democratic rights incorporated as ‘fundamentals’ into the constitution of the nation. The constitution guarantees the right to freedom of speech and expression, to peaceful assembly, to form associations and freedom of movement as some of the fundamental rights. The guarantee of these basic rights also ensures that these freedoms must be exercised by people to demand for the same in case of their aberrations. In such a scenario, the constitutional democracy of India recognizes peaceful protest and other such modes of democratic dissent as a vital means to ensure the guarantee of fundamental rights.
However, the recent chronicle has been replete with instances of mass violation of civil and democratic rights of people across the country. In the state of Andhra Pradesh and Telangana, there have been three attacks on civil liberties groups within a month through arbitrary and illegal detentions. A one-day convention of the Forum for Alternative Politics in Hyderabad on 21 Sep 2014 was prevented in the most unconstitutional manner. Organizers were detained prior to the event while some passenger trains to Hyderabad were cancelled to stop people from reaching the venue.  Then, on the night of September 27, the CLC President, District President, Vice President and General Secretary were put under house arrest to prevent the holding of a meeting on the Operation Green Hunt in Tirupati. The meeting was being convened by 42 organizations. In a repetition of events, on 9 October, civil liberties activists and human rights defenders in Vishakhapatnam were arrested when they were trying to hold a Press Conference to announce a meeting that was proposed to be held protesting Operation Green Hunt. On 8 September in Manipur, human rights activists were arrested without any warrant or memo from a peaceful preparatory meeting for a proposed talk with the government on the Inner Line Permit System in Manipur on 8 September. In another appalling incident in Delhi, on 9 October, Delhi Police raided the offices of Forward Press, an anti-caste magazine, and confiscated copies of its October issue on grounds that it carried objectionable material about Goddess Durga. The police illegally detained four staffers of the magazine and confiscated copies of the magazine from stalls around Delhi without any official order.
Meanwhile, the repression on organized protests of students, youth and women continues unabated. In West Bengal, in the month of September, hundreds of students of Jadavpur University were set upon by armed police within the university premises when they were peacefully demanding university action on a complaint of sexual harassment by a woman student.  In early September, the Delhi Police informed activists of AISA, RYA and AIPWA that a charge-sheet has been filed against a few of the leading members for their participation in a protest outside the residence of the then Chief Minister on December 19 2012 against the gang rape of the young physiotherapy student in a moving bus on December 16 rape.  Further back on June 6, women activists were manhandled by Delhi Police at Jantar Mantar in Delhi while protesting against the forcible eviction of the four rape survivors from Bhagana in Haryana who had been camping there since June in the pursuit of justice.
These instances of state brutality have been justified as “preventive detention” in the name of law and order measures while actually impeding efforts of democratic opposition.  The repression is symptomatic of the anxiety of the state and administration to curb these movements by constricting the physical space they claim. In the light of these developments, it becomes inevitable to reflect upon the existing state of democracy in India and work towards safeguarding the democratic space that respects the fundamental element of criticism and dissent in a democracy. 

Centre clears 370-acre forest land for Adani’s Gondia power project

Centre clears 370-acre forest land for Adani’s Gondia power project

By Yogesh Naik, Mumbai Mirror | Oct 23, 2014, 12.00 AM IST
Centre clears 370-acre forest land for Adani’s Gondia power project
Order lifting reservation on the land issued on Monday after a six-year wait.

The state has ordered 148.59 hectares of forest land in Gondia district, Vidarbha to be "diverted" for the construction of a 1980 megawatt (MW) coal-based thermal power plant run by the Adani Group.

The tract was identified for the project by the Ahmedabadbased conglomerate in 2008, but final permissions were granted by the Narendra Modiled National Democratic Alliance on August 28 this year.

Following this decree, the state Forest Department issued an order, on October 20, mandating that the land be set aside for the power plant.

Mumbai Mirror has reviewed copies of both documents.

"The proposal with scrutiny and recommendation was sent by the state to the centre. The net present value of the plot was also paid and the money for afforestation was given to the state. The Central government cleared the project, after which we issued orders for diversion of forest land," Additional Principal Chief Conservator of Forest Suresh Gairola, who is a nodal officer for clearances to mega projects, told Mumbai Mirror.

A forest department official said the Adani Group, which has interests in energy, logistics and mineral resources, operates an existing power plant of 3300 MW capacity in the Maharashtra Industrial Development Corporation (MIDC) sector of Tiroda, Gondia, about 1,000 km to the north east of Mumbai. "They wanted to expand this plant and after searching for land, they found a 148.59 hectares parcel in Tiroda tehsil," the official said.

Acertificate issued by the Collector of Gondia on June 14, 2008, which is included in a sheaf of documents pertaining to the power project, states that "all other alternatives for a thermal power plant had been explored and there is no alternative non-forest land available for the purpose". The Collector determined that parcels in Gorada, Mendipur, Kachewani and Khairbadi villages, taken together would meet the needs of Adani Power Projects, an ancillary concern of the Group (its Energy division comprises Adani Infrastructure, Adani Gas and Adani Power Projects). The correspondence also reveals that the energy major paid the "net present value" of the plot and also took care of financial requisites for compensatory afforestation (the planting of trees to make up for culled forest land as mandated by the compensatory afforestation fund management and planning authority). The Forest Advisory committee of the Ministry of Environment and Forests (MoEF) granted the project in-principle approval on December 9, 2011. Final permissions were issued by the Ministry on August 29, 2014.

The letter from the Assistant Inspector General, MoEF, M Rajkumar to Principal Secretary (Forests) Maharashtra Pravensinh Pardeshi, dated August 29, 2014, stipulates 17 conditions to be met by Adani Power Projects before the project takes root. These prerequisites include the development of a green belt along the power station and along water channels located in the plant, a restoration plan for wildlife corridors and "proper mitigative measures to minimise the soil erosion and choking of streams".

Forest officials told Mirror that the state government submitted its first compliance reports to the MoEF on May 30, 2012 and September 25, 2012. However, the final compliance statement was only issued two years later, on July 16. Following this communique, the MoEF directed the state to set aside forest land for the project. As the model code of conduct was in force in Maharashtra ahead of the assembly polls, the forest department issued orders on October 20, after election results were declared.

In response to a question about the delay in acquiring permissions for the power plant, Ajit Barodia, Vice President (Corporate Affairs) of Adani group said, "We can't say it (the approval mechanism) was 'stuck'. The government follows a process." When asked if Adani Power Projects had received official word from the government, he said, "Permission was in process. We may have got it."

He redirected all further queries to a company spokesperson, who did not respond to a set of emailed questions.

Tuesday, October 21, 2014

लापरवाही बरतने के आरोप में तीन उद्योगों पर मामला दर्ज

लापरवाही बरतने के आरोप में तीन उद्योगों पर मामला दर्ज


रायगढ़ (निप्र)। जिले में स्थापित तीन फैक्ट्रियों टेमटेमा स्थित स्काय एलायज, पतरापाली स्थित जिंदल स्टील एवं पूंजीपथरा स्थित स्केनिया पॉवर के खिलाफ औद्योगिक श्रम सुरक्षा एवं स्वास्थ्य विभाग ने लापरवाही बरतने का मामला दर्ज कर लिया है। पिछले दिनों इन फैक्ट्रियों में हुई श्रमिकों की मौत के बाद विभाग ने जांच की थी। जांच में श्रमिक सुरक्षा के साथ दूसरी अन्य कमियां उजागर हुईं थीं।
नहीं होती बड़ी कार्रवाई
श्रमिकों की मौत के मामले में कभी भी किसी उद्योग प्रबंधन के खिलाफ ब़ड़ी कार्रवाई नहीं होती है। श्रम न्यायालय द्वारा उद्योगों पर जुर्माना तो लगाया जाता है लेकिन यह जुर्माना किसी फैक्ट्री प्रबंधन के लिए कोई बहुत भारी भरकम नहीं होता है। अधिकतम जुर्माना डेढ़ से 2 लाख तक होता है जो कंपनियों के लिए बहुत ज्यादा नहीं होता है वे आसानी से जुर्माना पटाकर सुरक्षा व्यवस्था मामले से अपना किनारा कर लेते हैं। एक तरह से देखा जाए तो यह कार्रवाई सिर्फ दिखावे भर के लिए होती है।
तीन उद्योगों पर मामला दर्ज किया गया है। जिसमें दो पर श्रमिक की मौत तथा एक में हादसे में श्रमिकों के घायल होने पर लापरवाही की बात सामने आई है।
केके द्विवेदी
उप संचालक,
औद्योगिक श्रम सुरक्षा रायगढ़
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छह गांव के ग्रामीणों ने किया किरंदुल थाना का घेराव

छह गांव के ग्रामीणों ने किया किरंदुल थाना का घेराव






किरंदुल। सर्चिंग पर निकली पुलिस पार्टी द्वारा  व किरंदुल थाना क्षेत्र के अलग-अलग गांवों से पंद्रह ग्रामीणों को पकड़कर कर थाना लाए जाने के विरोध सोमवार को छह गांवों के सैकड़ों ग्रामीणों ने किरंदुल थाना का घेराव कर दिया। हालांकि पूछताछ के बाद पुलिस ने 11 ग्रामीणों को निर्दोष बताते रिहा कर दिया, लेकिन चार लोगों के खिलाफ नक्सली सहयोगी होने के आरोप में जन सुरक्षा अधिनियम के तहत्‌ गिरफ्तारी कर कोर्ट में पेश किया गया है।
दरअसल रविवार-सोमवार के दरम्यान किरंदुल व अरनपुर थाना से पुलिस की सर्चिंग पार्टी चोलनार, समलवार, पोटाली, पिरनार, गुमियापाल , टिकनपाल गांव में गश्ती के दौरान पंद्रह ग्रामीणों को नक्सली सहयोगी के संदेह में पकड़कर किरंदुल थाना ले आई थी। जिसके बाद उक्त गांवों के सैकड़ों ग्रामीण, जिसमें महिलाएं भी बड़ी संख्या में शामिल थी। दुधमुंहे बच्चों को लेकर थाने पहुंची हुई थी।
थाने के बाहर सैकड़ों की तादात में जुटे ग्रामीणों को शांत कराने पुलिस प्रयासरत थी, लेकिन ग्रामीण थाने लाए गए ग्रामीणों को रिहा करने की मांग पर अडिग थे। इस दौरान थाना परिसर में बड़ी संख्या में सशस्त्र जवानों को तैनात किया गया था। पूछताछ के बाद पुलिस ने 11 को रिहा कर दिया, लेकिन संतराम, संतु लाल कड़ती, अजय और देवा कड़ती को नक्सली सहयोगी मानते हुए जन सुरक्षा के तहत गिरफ्तार कर लिया।
एसडीओपी मिर्जा जियारत बेग के अनुसार चारों के विरूद्घ पुलिस के पास साक्ष्य है, लिहाजा कार्रवाई की गई है। जो निर्दोष थे उन्हें रिहा कर दिया गया

भू-अर्जन के बाद बिक गई जमीन

भू-अर्जन के बाद बिक गई जमीन

Sold land after land acquisition


Sold land after land acquisition
10/21/2014 12:46:02 AM








रायगढ़। जिले के भू-माफिया भू-अर्जन की कार्रवाई पूरी होने के बाद प्रभावित जमीनों को बेच रहे हैं। जलाशय प्रभावित ग्राम भोजपल्ली में एक ऎसा ही मामला सामने आया है। इसमें किसान ने भू-अर्जन की कार्रवाई के बाद मुआवजा का चेक प्राप्त कर लिया है। इसके बाद इसी जमीन को शहर के एक व्यक्ति के नाम पर रजिस्ट्री कर दी गई है।
इसकी शिकायत कलक्टर मुकेश बंसल से भी की गई है। ग्रामीणों की शिकायत के अनुसार वर्ष 2004-05 में भोजपल्ली, महापल्ली सहित सात गांव में छोटे-छोटे जलाशय निर्माण की स्वीकृति हुई थी। स्वीकृति के बाद निर्माण के लिए प्रभावित क्षेत्रों का भू-अर्जन किया गया। ग्राम लोईग भोजपल्ली निवासी च्यवन प्रसाद, पद्मलोचन, सुरेश गुप्ता, पिता जगदीश उर्फ देवराज ने खसरा नंबर 62/6 में 0.725 हेक्टेयर जमीन का मुआवजा राशि संबंधित विभाग से प्राप्त कर लिया।
इसके बाद इसमें जलाशय निर्माण का काम चालू हो गया। वर्ष 2013-14 अक्टूबर-नवंबर में उक्त खसरा नंबर 62/6 की जमीन बैकुण्ठपुर निवासी रवि कुमार पिता किशन सिंह को विक्रय कर दी गई। बताया जाता है कि प्रभावित क्षेत्रों में ऎसे कई मामलें हैं। जिसमें जमीन मालिकों व भू-माफियाओं ने मिलकर अधिग्रहित जमीन को फिर से दोबारा विक्रय कर दिया है।
यहां भी आशंका
ग्रामीणों ने अपनी शिकायत में एनटीपीसी रेल लाइन के प्रभावित ग्रामों में भी इस प्रकार के घटना होने की बात कही है। कलक्टर को बताया गया है कि भू—माफिया अभी भी सक्रिय है और रेल लाइन के लिए हो रहे जमीन अधिग्रहण में इस प्रकार की घटना केा अंजाम दे रहे हैं। ऎसे में रजीस्ट्री कार्यालय भी सवाल उठ रहा है। जहंा आंखमूंद कर इस कार्य को अंजाम दिया गया। वहीं ग्रामीण इसके जांच की मांग कर रहे हैं।