Saturday, October 31, 2015

Under RSS, India is becoming mirror image of Pakistan, says Irfan Habib

Under RSS, India is becoming mirror image of Pakistan, says Irfan Habib



Under RSS, India is becoming mirror image of Pakistan, says Irfan Habib
Irfan Habib (TOI photo)
A day after more than 50 historians from across India, including eminent names like Romila Thapar, BD Chattopadhyaya, Upinder Singh, MGS Narayanan and DN Jha, issued a statement expressing concern about the "highly vitiated atmosphere prevailing in the country, characterized by various forms of intolerance", eminent historian Irfan Habib, who was one of the signatories to the statement, told Uday Singh Rana he was concerned that religious and caste minorities are being persecuted and India is turning into a mirror image of Pakistan under RSS rule.

Here are the edited excerpts of the interview:

The historians in their joint statement had said this government wants a "legislated history". What motive does the government has to distort history?

This is a government that is controlled by the Rashtriya Swayamsevak Sangh (RSS). It is no secret that MS Golwalkar, the ideological fountainhead of the RSS, was an admirer of Adolf Hitler and the Nazi Party. This government is now trying to realize Golwalkar's dream. Just like in Nazi Germany, they are using propaganda to spread paranoia. I fear that history is repeating itself. They have created a very strong Hindu-communal ideal. The RSS is just communal, not patriotic. The country needed their patriotism before 1947, during the national movement. They were absent then.

What are the means they are adopting to distort history? Are they too subtle for the common people to understand?

No. I think it is fairly obvious to everyone now. I think it is very disturbing when the prime minister of the country says something as unscientific as asserting that Lord Ganesha got plastic surgery done. For all his faults, Atal Bihari Vajpayee never said anything this ridiculous. Narendra Modi is much worse. They have been demanding to get the name of Aurangzeb Road changed for a long time and they finally managed to get it done. Curiously, they have never targeted other kings such as Man Singh, who should be regard as a traitor by them since he fought against Maharana Pratap. The reason they try to demonize Aurangzeb is that he was a Muslim king. They want to prove that historically, Muslims are foreigners.

But intellectuals and creative personalities have been accused of selective outrage. It is not that communal violence and tension did not exist before Narendra Modi became the prime minister.

It is true that violence and tension existed previously. However, we have to keep in mind the fact that the RSS in some way or the other has been connected to these riots in every major report of such instances. The intelligentsia is now perturbed because those people are in power. We never had this kind of support for these elements from the establishment. The Union culture minister goes to a village where a man was killed over rumours and claims that some people are innocent. Is it anybody's place, especially a minister's, to say something like this? Even though they are not in power in Uttar Pradesh, they have a direct role in inciting instances here. Religious and caste minorities are being persecuted. Under RSS rule, India is turning into a mirror image of Pakistan.

Finance minister Arun Jaitely recently held that the intelligentsia's protest was a 'manufactured rebellion'. What do you think?

I have followed Arun Jaitely's statements since he was a BJP spokesperson during the 2002 Gujarat riots. Even then, his statements were irresponsible.

But do you support writers and filmmakers who have returned their Sahitya Akademi and National Awards?

I think the decision to return or not return a state honour has to be a personal one. But I think everybody has the right to choose the means by which they protest. There is nothing unjustified about this means of protest.
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"सर, एक सेल्फी मेरे साथ भी, मैं दंगों में जेल गया हूं" रवीशकुमार

"सर, एक सेल्फी मेरे साथ भी, मैं दंगों में जेल गया हूं"

रवीशकुमार 
 
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नई दिल्ली: हिन्दुस्तान के सबसे बेहतरीन क्लब में मैं किसी अजनबी-सा भटकने लगा। एक अजनबी-सी शाम खुशगवार हो रही थी। दिल्ली की हवा क्लब के खुले आंगन में तेज़ होने लगी। हरी घास के आंगन में दुल्हा-दुल्हन से मिलने के बाद वहां आए रिश्तेदारों से मिलने लगा। किसी को पहले से नहीं जानता था मगर टीवी के कारण आप कहीं भी जाइये दो चार दर्शक तो रिश्तेदार बनकर घेर ही लेते हैं। एक अदद सेल्फी के लिए क्या नखरे करता सो सबको हां किये जा रहा था। यही सोच रहा था कि यहां जमा लोग कितने शालीन है। पैसा और हैसियत से आदमी की चाल-ढाल कितनी बदल जाती है। सजी-धजी औरतों की साड़ियां लहरा रही थीं और मर्दों के कोट के पल्ले हवा के झोंके से बाजू से लिपट रहे थे। चलने और बोलने का अंदाज़ किसी फैक्ट्री में तराशे गए हीरे की मानिंद था।

लोग मिलते जा रहे थे। कुछ शिकायतें कुछ तारीफें। एक सज्जन ने पकड़ लिया तो बात एटली और विस्टन चर्चिल के भाषण पर जा पहुंची। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली और विपक्ष के नेता चर्चिल के बीच भारत को आज़ादी देने के सवाल पर हुई बहस की चर्चा से लगा कि ऐसे कुलीन क्लबों की शामों में इतिहास के कितने पन्ने तैरते होंगे। सौ साल से भी पुराना क्लब है। शायद एटली और चर्चिल की बहस से पहले का ही बना होगा। पर ऐसे नागरिकों से मिलकर अच्छा ही लगता है कि कोई तो है जो बड़े कवियों या लेखकों की तरह मुखर नहीं है मगर रिटायरमेंट के बाद इंटरनेट की दुनिया में खोया रहता है। इतिहास के पन्नों को ढूंढता रहता है। कुछ पन्नों से और कुछ अपने तजुर्बों से हिन्दुस्तान को समझ रहा है। एक सज्जन ने बताया कि कैसे वे किसी पुरानी एयरलाइन कंपनी में काम करते थे। किस्सा सुनाने लगे कि कैसे आज के बड़े कद्दावर नेता पैरवी के लिए आए और किस तरह से एयरलाइन का बेड़ा गर्क किया। एयरलाइन की दुनिया में इस नेता का नाम किसी न किसी बहाने आ ही जाता है।

मैं धीरे-धीरे आश्वस्त होने लगा कि सुख समृद्धि के शिखर पर पहुंचकर भी कुछ लोग ज्ञान की तलाश में हैं। हर किस्से को बारीकी से परख रहे हैं। तभी एक आवाज़ आई। रवीश कुमार जी, एक सेल्फी मेरे साथ भी। मैं रौशनी के हिसाब से मुड़ गया और उनके फोन के लिहाज़ से थोड़ा झुक गया। सेल्फी पूरी होते ही जो बात कही उसने उस खुशगवार शाम की हर खुशफहमी को धुएं में उड़ा दिया। मैं जगह और दल का नाम नहीं ले रहा। पर जो आवाज़ आई उसे लिखने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। बस इतना ही तो पूछ था कि आपका परिचय।

“हम आपको बहुत पसंद करते हैं। मैं सर, अमुक दंगे का आरोपी हूं। जेल गया था। मुझे लगा कि कुछ गलत सुना तो दोबारा पूछ लिया।" कुर्ता पाजामा में वह शख्स उसी आत्मविश्वास के साथ बोल गए कि मैं जेल गया था। “दंगों में मेरा नाम भी आया था। मेरा भी स्टिंग हुआ था। पार्टी टिकट भी देने वाली है। "

जब वे बोल रहे थे उनका बड़ा बेटा मेरे साथ अगली सेल्फी के लिए तैयार हो रहा था। अपने बेटे के लिए फ्रेम सेट करते हुए बोले जा रहे थे। मैंने तड़ से पूछ दिया कि आप तो बहुत खुश होकर बता रहे हैं कि जेल गया था। लड़के के बारे में पूछा तो कहा कि ये मेरा बेटा है। शर्मिले स्वभाव का लड़का पहले भी सेल्फी खिंचा गया था, लेकिन पिता को कैसे मना करता। पिता के सामने चुप ही रहा। मैंने हंसते हुए पूछ दिया कि ये भी जेल गया था? लेकिन पिता के चेहरे पर कोई असर ही नहीं हुआ। कहने लगे कि “राजनीति में जेल जाना कोई बड़ी बात नहीं है। हम पार्टी के लिए कई बार जेल जा सकते हैं। गए भी हैं। "

बड़ी बात वो नहीं है कि कोई जेल गया है। पार्टी के लिए लाखों कार्यकर्ताओं ने जेल की यात्रा की होगी। एक ऐसी जगह जहां लोग खाते और हंसते समय इस बात का ख़्याल रख रहे थे कि ज़्यादा मुंह न खुले। दांत न दिखे। नैपकिन संभालकर मेज़ पर रख रहे थे और टूथ पिक से उठाकर काकोरी कबाब का स्वाद ले रहे थे। वैसी नफ़ीस महफ़िल में कोई शान से बताए और बताते समय उसके चेहरे पर झिझक तक न हो कि मैं दंगों के आरोप में जेल गया हूं। पढ़ते समय ध्यान रखियेगा कि जेल जाना दोष साबित होना नहीं है फिर भी क्या दंगों में जेल जाना भी विज़िटिंग कार्ड हो सकता है?

जिनके बुलावे पर गया था उनकी निजता का सवाल है वर्ना नाम लेकर लिख देता। लौटते वक्त सोचता रहा कि इसी महफिल में कोई ऐसा भी तो है, जो चर्चिल की बात कर रहा था। लेबर कालोनी पर मेरी रिपोर्ट को लेकर संवेदनशील था। फिर भी मेरे भीतर वही आवाज़ क्यों गूंज रही है। “ आपके साथ एक सेल्फी चाहिए, मैं फलां फलां हूं, फलां दंगों में जेल गया था, चुनाव लड़ने वाला हूं।"

Manufactured Rebellion बनाम Manufactured Silence रवीश कुमार

Manufactured Rebellion बनाम Manufactured Silence

कुछ समय पहले जब लोग प्याज़ की माला पहने बैंकों में जमा करने जा रहे थे, एक क़मीज़ के साथ एक किलो प्याज़ देने का दावा कर रहे थे तब चैनलों पर ऐसी तमाशाई ख़बरें बन रही थीं । प्याज के दाम चुनाव के बाद भी बढ़े लेकिन वो लोग माला पहने नज़र नहीं आए । तब वो बिना प्याज़ खाने का उपाय बताने लगे । दाल के दाम तो आसमान तक चढ़े लेकिन कोई दाल लेकर बैंक जाते नहीं दिखा । प्याज़ की माला पहनने वाले ने दाल की माला क्यों नहीं पहनी ? बैंक क्यों नहीं गए ? क्या प्याज़ पर विरोध करने वालों का विरोध manufactured rebellion था ? क्या दाल पर चुप रहने वालों की चुप्पी manufactured silence है ?
लेखकों ने जब पुरस्कार लौटाने शुरू किये तो वित्त मंत्री जेटली ने इसे मोदी और मोदी सरकार के विरोध में ‘ manufactured rebellion’ का नाम दिया । जो भी सत्ता में होता उसे धरना प्रदर्शन बनावटी और साज़िशन विद्रोह लगता है । इसलिए हर राज्य में प्रदर्शन करने वाले लठियाये जाते हैं । खदेड़े जाते हैं । वित्त मंत्री ने जो कहा वो नया नहीं है । शब्द ज़रूर नया और दिलचस्प है । सत्ता के इस रवायती चरित्र को एक नया और आक्रामक नाम दिया है जो हर आवाज़ को साज़िश की नज़र से देखती है । जिस तरह से manufactured rebellion होता होगा उसी तरह से manufactured argument भी होता ही होगा !
पुरस्कार लौटाने के संदर्भ में एक नई थ्योरी लाँच हुई है । दीवार फ़िल्म में विजय अपने थानेदार भाई से कहता है कि मैं अपराधी हूँ तो वो दुनिया भी अपराधी है जिसने मुझे बनाया है । वो कहने लगता है ” जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ जिसने मेरे हाथ पर लिखा मेरा बाप चोर है ।” विजय इस संवाद को कहते कहते झुँझलाने लगता है । थानेदार भाई बिना झुँझलाये सुन रहा होता है । विजय जितनी बार ये कहता है, थानेदार भाई की नज़र में अपराधी साबित होता जाता है । वो उस आदमी का साइन लेने नहीं जाता है बल्कि अपने भाई को गिरफ़्तार करने का इरादा मज़बूत कर लेता है ।
क्या आपने तब पुरस्कार लौटाया? क्या आपने चौरासी के दंगों का विरोध किया ? क्या आपने आपातकाल का विरोध किया ? यह नया पैमाना है । नेता कांग्रेसी से रातों रात भाजपाई हो सकता है, भाजपाई से सपाई हो सकता है लेकिन लेखक फ़िल्मकार और वैज्ञानिक को सवाल उठाने से पहले कांग्रेस विरोधी होने का प्रमाण देना होगा । क्या यह साबित किया जा रहा है कि कांग्रेस राज में हुए ज़ुल्मों सितम का कोई विरोध ही नहीं हुआ ? सिख दंगों की रिपोर्टिंग न हुई होती तो आप जानते कैसे ? काश उस वक्त भी गुजरात दंगों के वक्त की तरह चैनलों की भरमार होती ।
इसके बाद भी क्या यह सभी सरकारों( यूपीए एनडीए ) की नाकामी नहीं है कि सिख विरोधी नरसंहार में एक भी दोषी जेल नहीं गया । सवाल पूछने वालों से सवाल पूछा जाए कि क्या आपने गुजरात दंगों के वक्त आपातकाल के वक्त विरोध किया था ? आपने क्यों नहीं इस्तीफ़ा दिया था ? आपने भागलपुर दंगों के वक्त क्या किया था या हाशिमपुरा दंगों के वक्त आपने लेख लिखा था ? क्या वे बीजेपी समर्थक प्रतीत नहीं होते हैं ? बीजेपी तो तब वजूद में नहीं थी फिर उसके कई बड़े नेताओं ने आपातकाल की क्रूरता को भुगता तो था ही लेकिन क्या मौजूदा बहस में जीत हासिल करने के लिए संघ के प्रतिष्ठित हस्ती नानाजी देशमुख का लेख भी बाहर किया जाए कि उन्होने सिख नरसंहार में शामिल किन संगठनों का नाम लिया है ?
इस तू तू मैं मैं या is equal too या जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ से क्या लाभ ? क्या किसी को बीजेपी में रहने के बाद बीजेपी पर सवाल करने का हक नहीं ? क्या उसका सवाल इसलिए सवाल नहीं कि वो कभी बीजेपी में रहा । तब तो बीजेपी में ही कई बड़े लोग कांग्रेस में रह चुके हैं । ये दीवार फ़िल्म के संवाद का नया रूप है बल्कि ‘ जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ’ का ‘manufactured improvisation’ है । हम ऐसी दलीलों से कहीं नहीं पहुँचेंगे ।
सवाल है क्या हिंसा और भय मुक्त समाज और राजनीति का माहौल बनाने में दोनों पक्ष सक्रिय हैं ? ईमानदार हैं ? इन सवालों को कांग्रेस बनाम बीजेपी के चक्कर में मत डालिये ? दोनों को खुद से पूछना चाहिए और सबको दोनों से । बीजेपी विरोध अंध विरोध न हो लेकिन उसी तरह कांग्रेस विरोध अंध विरोध न हो । दोनों दलों की अहमीयत है और दोनों ही हकीकत हैं । हिंसा और भय का माहौल सरकार सापेक्ष भी होता है और सरकार से इतर भी । दोनों ही स्थिति में भरोसा दिलाने का काम सरकार का ही है । हिंसक हरकतें भले ही गुमनाम और अनौपचारिक संगठनों की होती है पर क्या औपचारिक संगठन उनकी हिंसा की निंदा करते करते सोच का समर्थन नहीं करने लगते हैं ? जैसे सोशल माडिया में भाड़े के गुमनाम लठैत रखे जाते हैं उसी तरह असली समाज में भी ऐसे लठैत रखे जाते हैं । इनका संबंध किन किन विचारधाराओं या दलों से है आप खुद देख सकते हैं । एक दल या एक संगठन से बात नहीं बनेगी ।
व्यक्तिगत रूप से पूछा जा रहा है कि आपने इख़लाक़ की हत्या पर कार्यक्रम किया तो पुजारी की हत्या पर की ? फिर तो मेरा सवाल सही है कि इख़लाक़ की हत्या पर प्रधानमंत्री क्यों चुप रहे ? वो क्यों नहीं गए दोनों जगहों पर? क्यों बीजेपी से जब पूछा जाता है कि प्रधानमंत्री क्यों चुप रहे तो जवाब मिलता है कि राजनाथ सिंह ने निंदा की, वित्त मंत्री ने निंदा की । बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह क्यों नहीं गए दादरी या वो क्यों नहीं गए पुजारी की हत्या पर शोक जताने ? क्या कलबुर्गी की हत्या पर शोक जताने के लिए येदुरप्पा का जाना बीजेपी का जाना नहीं माना जाए या केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का दादरी जाना नहीं माना जाए क्योंकि उनसे बड़े नेता तो गए नहीं ? दलितों पर नरसंहार के ख़िलाफ़ बोलने वाले क्या सिर्फ कांग्रेसी थे ? हरियाणा में मिर्चपुर या महाराष्ट्र में खैरलांजी में दलितों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा जितना कांग्रेस बीजेपी ने नहीं बोला होगा उससे कहीं ज्यादा स्वतंत्र रूप से लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बोला होगा । कोई तुक है कि संघ प्रमुख मिर्चपुर क्यों नहीं गए ? संघ प्रमुख दादरी क्यों नहीं गए ? ये बहस का तू तू मैं मैं पैमाना है । बात किसी को बहस में हरा देने की नहीं है ।
हिंसा हिंसा है । लेकिन जो हिंसा सामूहिक प्रवृत्ति की हो उससे सभी को सतर्क रहना चाहिए । ऐसी हिंसा का बचाव करती हुई कोई पार्टी भले ही बहस जीत ले लेकिन उसका अपना चरित्र भी बदल जाता है । वो आने वाले दिनों में ऐसे संगठनों के भँवर में फँस जाती है । दर्शक या जनता को सतर्क रहना चाहिए । लोकतंत्र के लिए राजनीतिक दल जरूरी हैं । मगर यही अंतिम और अनिवार्य हैं कम से कम ऐसा सोचने से पहले आप जयप्रकाश नारायण को ही पढ़ लीजिये जो पार्टी विहीन लोकतंत्र की बात करते थे ।
शुक्रवार को मालवीय नगर मार्केट के पास लगी अपनी कार तक पहुँच रहा था । अंधेरे को चीरती आई उस आवाज़ ने मुझे मुड़ने के लिए विवश कर दिया । नफ़ीस अंग्रेजी बोलते हुए वो शख्स अपनी क़मीज़ का बटन खोलने लगा । मैंने पूछा कि ऐसा क्यों कर रहे हैं ? छाती पर चीरे के गहरे निशान दिखाते हुए उन्होंने कहा कि हमारे परिवार के लोगों ने एक साथ तीन फ़्लैट बुक किया । बिल्डर हमारी जीवन भर की कमाई का एक करोड़ लेकर भाग गया है । उस सदमे में मेरा और नौ सौ लोगों का परिवार टूट गया है । दो दो बार बाइपास सर्जरी हुई है । हम टूट गए हैं । कोई सरकार हमारी नहीं सुनती है । न कांग्रेस की न बीजेपी की ।
धार्मिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक विविधता के हक में खंड़े होना सीखिये । भीड़ के हक में खड़े होने वाले लोग एक दिन ठगे जाते हैं । भीड़ तंत्र की तरकीब ही यही है । किसी तरह भीड़ में शामिल करो ताकि सारे नागरिक सवालों को भावनात्मक सवालों से धकिया जाए । उस सज्जन ने बताया कि फ़रीदाबाद के जिस बिल्डर ने हमारी कमाई लूट ली उसकी वकालत करने वाले वक़ील सरकार के बहुत बड़े प्रतिनिधि हो गए हैं । आपको लगता है कि रवीश जी कि हमारा कुछ होगा ?
कायदे से सवाल तो जनता का होना चाहिए । उस सज्जन की हताशा के आगे मुझे यह सवाल कितना बेतुका लग रहा है कि पुरस्कार लौटाने की बहस में कांग्रेस जीतेगी या बीजेपी । बेतुका से ज्यादा डरावना लग रहा है कि क्या बीजेपी या कांग्रेस उस ताक़तवर बिल्डर या वक़ील से इन लोगों को इंसाफ़ दिला पाएगी ? हिन्दू राष्ट्र या सेकुलर राष्ट्र में कोई ठगे जाने के बाद बाइपास सर्जरी से क्यों गुज़र रहा है ? भीड़ तंत्र और उसकी हिंसा का विरोध कीजिये वर्ना एक दिन आप भी इसका शिकार होंगे । क्योंकि इस तंत्र के ऊपर वही बिल्डर और उद्योगपति बैठा है जो आपको शिकार बनाएगा । हर वक्त पत्रकार नहीं आएगा ।

मौजूदा वक्त में अल्पसंख्यकों के मन में डर समाया हुआ है : नारायण मूर्ति

मौजूदा वक्त में अल्पसंख्यकों के मन में डर समाया हुआ है : नारायण मूर्ति

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मौजूदा वक्त में अल्पसंख्यकों के मन में डर समाया हुआ है : नारायण मूर्ति
इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति (फाइल फोटो)
नई दिल्‍ली: इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति ने NDTV Dialogues कार्यक्रम में कहा कि मौजूदा वक्त में अल्पसंख्यकों के मन में डर समाया हुआ है और देश के आर्थिक विकास के लिए इस डर को खत्म करना बहुत ज़रूरी है।

लग रहा है, यूपीए और एनडीए में कोई फर्क नहीं
देश में लगातार उठ रहे असहनशीलता के सवाल पर ये पहला मौका है, जब किसी दिग्गज बिज़नेस मैन ने अपनी आवाज़ उठाई हो। नारायण मूर्ति ने ये भी कहा कि उनके पास लगातार आ रहे ईमेल्स में लोग अपनी चिंताओं को व्यक्त कर रहे हैं और इस सबसे यही लग रहा है कि यूपीए और एनडीए सरकार में कोई फ़र्क ही नहीं है।

'आर्थिक प्रगति के लिए शांति और सौहार्द का माहौल जरूरी'
नारायण मूर्ति ने कहा, आर्थिक प्रगति के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरत लोगों के बीच शांति और सैहार्द का माहौल बनाने की है। लोगों के बीच भरोसे और उत्साह का माहौल होना ज़रूरी है। मैं नेता नहीं हूं और न ही राजनीति में कोई दिलचस्पी है, लेकिन सच्चाई ये है कि आज अल्पसंख्यकों के मन में डर है। उन लोगों में भी डर है जो अपने मूल प्रदेश को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में रह रहे हैं।

जयंत सिन्हा ने दिया जवाब 
नारायण मूर्ति के इस बयान पर केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने जवाब दिया है। उन्‍होंने कहा, देश में सभी को आज़ादी है कि वे जहां जाना चाहें जाएं, जहां रहना चाहें रहें और अगर कहीं इस संवैधानिक आज़ादी का उल्लंघन होता है तो क़ानून की पूरी शक्ति इसे रोकने पर लगानी चाहिए। अगर एक वर्ग को लगता है कि वो असहनशीलता के माहौल में रह रहे हैं तो वो इसलिए नहीं है कि हम संविधान का पालन नहीं कर रहे हैं, बल्कि इसलिए है क़ानून-व्यवस्था की स्थिति लोगों को आज़ादी से बोलने नहीं दे रही।

 

फसल खराब होने से परेशान एक और किसान ने पीया जहर, मौत ; छत्तीसगढ़

फसल खराब होने से परेशान एक और किसान ने पीया जहर, मौत ; छत्तीसगढ़ 

Posted:IST   Updated:ISTRaipur : Fed up with bad crop farmer commits suicide
प्रदेश में में फसल खराब होने से परेशान अन्नदाता के जान देने का सिलसिला नहीं थम रहा है। प्रदेश में खराब फसल ��"र कर्ज के बोझ से परेशान होकर एक किसान ने खुदकुशी कर ली।
रायपुर. प्रदेश में में फसल खराब होने से परेशान अन्नदाता के जान देने का सिलसिला नहीं थम रहा है। प्रदेश में खराब फसल और कर्ज के बोझ से परेशान होकर एक किसान ने खुदकुशी कर ली। एक और मामले किसान ने खुदकुशी की कोशिश की है।
गुरुर ब्लॉक के दर्रा गांव के रहने वाले रेखुराम ने 2 एकड़ किराए के खेत में कर्ज लेकर की बुआई की थी, लेकिन महुआ कीड़े के प्रकोप से फसल पूरी तरह खराब हो गई। जिससे किसान की आर्थिक हालत बहुत खराब हो गई थी। इससे परेशान किसान ने कीटनाशक पीकर खुदकुशी कर ली।
वहीं दौंडी ब्लॉक के पचेड़ा गांव निवासी किसान पुनऊराम पटेल ने शनिवार को खुदकुशी की कोशिश की। किसान की हालत गंभीर होने पर उसे रायपुर रेफर किया गया है। हालांकि किसान के खुदकुशी के कारण का पता नहीं चल पाया है। पुलिस मामले की जांच में जुटी है।
गौरतलब है कि ब्लॉक गुरुर मुख्यालय से 10 किलोमीटर दूर किरगाहाटोला गांव में गुरुवार की रात 35 वर्षीय किसान ईश्वरलाल कोर्राम ने अपने खेत में लगे पलाश के पेड़ पर गमछे से फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली थी। करीब दो माह पहले भी इसी क्षेत्र में एक किसान ने आत्महत्या की थी।
ग्रामीणों का कहना है, इस साल सूखे की वजह से उसके करीब एक एकड़ खेत में मु_ीभर अनाज भी नहीं हुआ, जिससे वह परेशान था और पिछले दो दिनों से अपने खेत में गुमसुम रहने लगा था।

कोई समय ऐसा नहीं रहा जब लेखकों ने गलत का प्रतिरोध न किया हो --प्रियदर्शन

कोई समय ऐसा नहीं रहा जब लेखकों ने गलत का प्रतिरोध न किया हो 
प्रियदर्शन

चाहे 1975हो या 1984 या  
2002 या फिर 2015, लेखक
हर दौर के गलत का उतना ही तीखा प्रतिरोध करते रहे हैं
प्रोफेसर कलबुर्गी की हत्या से लेकर दादरी तक पर लेखकों के संगठित प्रतिरोध के बाद साहित्य
अकादेमी ने जो बयान जारी किया है, उसे वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने क्रांतिकारी बताया है. पुरस्कारों, अनुवादों और दो पत्रिकाओं के बीच ऊंघती अकादेमी ने शायद पहली बार लेखकीय विरोध
के दबाव में वक्तव्य जारी कर अपने जीवित होने के प्रमाण दिए हैं. बेशक, लेखकों की यह शिकायत अपनी
जगह जायज है कि उसने यह वक्तव्य देने में बहुत देर की और यह बहुत कम है. लेकिन उनका यह प्रतिरोध इस
मायने में सफल है कि उसने अभिव्यक्ति की आज़ादी और बहुलतावादी सह अस्तित्व के मुद्दे पर देशव्यापी
ध्यान खींचा है. इस दौरान लेखकों को लगातार यह
तोहमत झेलनी पड़ी कि उनका पूरा विरोध प्रायोजित है. उनसे बार-बार यह सवाल पूछा गया
कि इसके पहले उन्होंने इमरजेंसी या ऐसी दूसरी बड़ी
घटनाओं का विरोध क्यों नहीं किया. 
यह तोहमत फिर से यही साबित करती है कि हम मूलतः ऐसे
छिछले समाज में बदलते जा रहे हैं जो बीते हुए संघर्षों को याद तक नहीं करता, क्योंकि उसके लिए राजनीति और सत्ता सबसे बड़े मूल्य, सबसे बड़ा सच हैं.
जो लोग पूछ रहे हैं कि इमरजेंसी के दौरान लेखकों और बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका थी, वे पलट कर उन
किताबों को पढ़ लें जिनमें आपातकाल के ढेर सारे ब्योरे हैं. 19 महीनों के इस पूरे दौर में राजनीतिक नेताओं के अलावा सबसे ज़्यादा उत्पीड़न लेखकों और
पत्रकारों ने ही झेला. तब भी हिंदी लेखक
फणीश्वरनाथ रेणु ने पद्मश्री वापस की और कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत ने पद्मभूषण लौटाया. लेकिन इमरजेंसी के उस दौर में सम्मान लौटाना तो एक
मामूली बात थी, फणीश्वर नाथ रेणु और नागार्जुन के अलावा हंसराज रहबर, गिरधर राठी, मुरली मनोहर
प्रसाद सिंह, सुरेंद्र मोहन, डॉ रघुवंश, कुमार प्रशांत, कुलदीप नैयर जैसे कई बड़े लेखक और पत्रकार थे, जिन्हें इमरजेंसी के दौरान जेल तक काटनी पड़ी थी. नेताओं के अलावा यह लेखकों, पत्रकारों और प्राध्यापकों की ही जमात थी जिसने इमरजेंसी के ख़िलाफ़ सबसे
तीखी लड़ाई लड़ी. 
कहने की ज़रूरत नहीं कि यह कांग्रेस विरोधी लहर थी जिसमें संघ के लोग भी
शरीक थे. लेकिन अब वे याद करने को तैयार नहीं हैं कि लेखकों की जो बिरादरी आज उनके खिलाफ खड़ी है वह इमरजेंसी के ख़िलाफ़ लड़ाई में उनके साथ भी थी. इसी दौर में भवानी प्रसाद मिश्र जैसे गांधीवादी कवि भी थे जिन्होंने आपातकाल के विरोध में रोज सुबह-दोपहर-शाम एक कविता लिखने
का निश्चय किया था और यथासंभव इसे निभाया भी. बाद में इन कविताओं का संग्रह ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुआ जिसकी कुछ कविताएं अपने ढंग से सत्ता और इंदिरा पर बेहद तीखी चोट करती हैं.
1984 की सिख विरोधी हिंसा के विरोध में भी खुशवंत सिंह जैसे कांग्रेस समर्थक लेखक तक ने पद्मभूषण वापस कर दिया था. बेशक, वह हिंसा ख़ौफ़नाक और
शर्मनाक दोनों थी, लेकिन उसे राज्य की वैचारिकी का वैसा समर्थन नहीं था जैसा इन दिनों कई तरह के हिंसक और हमलावर विचारों को मिलता दिखाई
पड़ता है. फिर भी अपने-अपने शहरों में लेखकों ने प्रतिरोध किए, राहत देने की कोशिश की और उस विवेक का बार-बार आह्वान किया जो लोकतंत्र के लिए ज़रूरी है. 
चाहें तो याद कर सकते हैं कि उसी दौर में अवतार सिंह पाश जैसा क्रांतिकारी कवि हुआ जिसने इंदिरा गांधी की मौत के बाद बेहद तीखीकविता लिखी – ‘मैंने उसके ख़िलाफ़ जीवन भर
लिखा और सोचा है / आज उसके शोक में सारा देश
शरीक है तो उस देश से मेरा नाम काट दो. / मैं उस
पायलट की धूर्त आंखों में चुभता हुआ भारत हूं / अगर
उसका अपना कोई भारत है तो उस भारत से मेरा नाम
काट दो.’
यह अलग बात है कि अवतार सिंह पाश को कविता पढ़ते हुए आतंकवादियों ने गोली मार दी. इस पूरे दौर में लेखकीय और बौद्धिक प्रतिरोध अपने चरम
पर दिखता है. पंजाब में गुरुशरण सिंह जैसा नाटककार है जो जनवादी मूल्यों के पक्ष में और आतंकवादियों के
ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ लड़ता रहा. इसी दौर में सफ़दर हाशमी मारे जाते हैं और पूरे देश की सांस्कृतिक आत्मा जैसे सुलग उठती है. छोटे-बड़े शहरों के नुक्कड़ों
पर प्रतिरोध की सभाएं सजने लगती हैं. 1989 में जब गैरकांग्रेसी दल राष्ट्रीय बंद का आह्वान करते हैं तो राजनीतिक दलों के समानांतर सांस्कृतिक जत्थे भी
पुलिस की लाठियां सहते हैं और जेल जाते हैं. 1992 में मुंबई के दंगों में राजदीप सरदेसाई अपनी रिपोर्ट्स में
कांग्रेस और एनसीपी की विफलता पर सवाल खड़े करते हैं और श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट इन खबरों का भरपूर हवाला देती है. जाहिर है, यह सारा
विरोध कांग्रेसी सरकारों के ख़िलाफ़ था जिसमें बेशक, कुछ समाजवादी और वाम वैचारिकी की भूमिका थी, मगर उसका राजनीतिक या सत्तामूलक समर्थन नहीं था. 
लेकिन नब्बे के दशक में जब बीजेपी ने सांप्रदायिकता के राक्षस को नए सिरे से खड़ा किया तो विरोध की धुरी कांग्रेस से मुड़कर उसकी तरफ़ चली आई. 2002 की गुजरात की हिंसा के ख़िलाफ़ बहुत सारी कविताएं लिखी गईं. मंगलेश
डबराल की सुख्यात कविता ‘गुजरात के मृतक का बयान’ जितनी बड़ी राजनीतिक कविता है, उससे कहीं ज़्यादा बडी मानवीय कविता है. मंगलेश अपनी
मद्धिम आवाज़ में लिखते हैं- ‘और जब मुझसे पूछा गया
तुम कौन हो / क्या छिपाए हो अपने भीतर एक दुश्मन
का नाम / कोई मज़हब कोई ताबीज / मैं कुछ नहीं कह
पाया मेरे भीतर कुछ नहीं था / सिर्फ एक रंगरेज़ एक
मिस्त्री एक कारीगर एक कलाकार / जब मैं अपने
भीतर मरम्मत कर रहा था किसी टूटी हुई चीज़ की /
जब मेरे भीतर दौड़ रहे थे / अल्युमिनियम के तारों की
साइकिल के नन्हे पहिये / तभी मुझ पर गिरी एक आग,
बरसे पत्थर / और जब मैंने आख़िरी इबादत में अपने हाथ
फैलाये / तब तक मुझे पता नहीं था बंदगी का कोई
जवाब नहीं आता.‘ 
गुजरात की इसी हिंसा के त्रासद
पहलुओं को लेकर असगर वजाहत ‘शाह आलम की रूहें’ जैसी नायाब किताब तैयार कर देते हैं. बहरहाल, लेखकीय प्रतिरोध की यह सूची बहुत लंबी है और वह सिर्फ भाजपा विरोधी नहीं है. कुछ ही साल पहले हिंदी के वरिष्ठ लेखक कृष्ण बलदेव वैद को लेकर
दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के रवैये से नाराज़ सात लेखकों ने अपने हिंदी अकादमी सम्मान लेने से इनकार कर दिया था.
जाहिर है, लेखन सत्ता
का वह प्रतिपक्ष बनाता है जिससे कभी कांग्रेस नाराज़ होती है कभी भाजपा. एक ऐसे दौर में जब बाज़ार की चमक-दमक एक हिंसक भव्यता के साथ एक
समृद्ध भारत का मिथक रच रही है, जब आर्थिक संपन्नता को छोड़कर बाकी सारे मूल्य पुराने मानकर छोड़ दिए गए हैं, जब घर-परिवार और समाज तार-तार
होते दिख रहे हैं, जब सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं क्षरण की शिकार हैं, जब ज्ञान के दूसरे अनुशासन – समाजशास्त्र, इतिहास या अर्थशास्त्र – सत्ता की जी हुजूरी करते नज़र आ रहे हैं, तब यह साहित्य ही है
जो इस पूरी प्रक्रिया का अपने दम पर प्रतिरोध कर रहा है. लेकिन उसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे
पहचान और मान्यता देने से इनकार किया जा रहा है, उसे बिल्कुल अप्रासंगिक सिद्ध किया जा रहा है.
मगर उसकी मद्धिम आवाज़ जब एक सामूहिक लय धारण करती है, जब उसका कातर प्रतिरोध अपने पुरस्कार
छोड़ने का इकलौता सुलभ विकल्प आज़माता है, तब सत्ता के पांव कांपते हैं और वह उसे अविश्वसनीय
साबित करने में जुट जाती है. यह पूछतेहुए कि इससे पहले तुमने विरोध क्यों नहीं किया.।


( नथमल शर्मा जी का पोस्ट )