Thursday, October 15, 2015

साक्षात्कार के बाद कुछ और सवाल ; मोदी

साक्षात्कार के बाद कुछ और सवाल ; मोदी 

[देशबन्धु सम्पादकीय ]
15, OCT, 2015, THURSDAY 11:24:03 PM
आखिरकार दादरी कांड, गुलाम अली के कार्यक्रम का रद्द होना, खुर्शीद महमूद कसूरी की किताब के विमोचन का विरोध करते हुए शिवसैनिकों द्वारा सुधीन्द्र कुलकर्णी पर स्याही पोतना, ऐसी तमाम घटनाओं पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का मौन व्रत टूटा या कहें तुड़वाया गया। बांग्ला अखबार आनंद बाजार पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने पूछे गए सवालों के जवाब में कहा कि वे ऐसी घटनाओं से दुखी हैं। लेकिन इसके साथ ही अपना बचाव करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि इन घटनाओं में केेंद्र सरकार का कोई हाथ नहींहै। 
जब से देश में सांप्रदायिक माहौल खराब हुआ है, तब से प्रधानमंत्री से लगातार खेद प्रकट करने का इंतजार किया जाता रहा। लेकिन उन्होंने अपने होंठ ऐसे सिए कि संवेदना का एक शब्द नहींनिकला। अब भी अगर आनंद बाजार पत्रिका ने सवाल न पूछे होते तो देश प्रधानमंत्री का खेद प्रकटीकरण सुन ही नहींपाता। हालांकि जिस तरीके से उन्होंने खेद और दुख जताया, उससे गुजरात दंंगों के बाद किए गए सद्भावना उपवास की याद ताजा हो गई।
 गुजरात में दंगे 2002 में हुए थे और तब मुख्यमंत्री रहे नरेन्द्र मोदी ने सितम्बर 2011 से लेकर फरवरी 2012 के बीच पूरे प्रदेश में 34 सद्भावना उपवास कार्यक्रम आयोजित किए थे। दंगों के तुरंत बाद नहीं, लेकिन थोड़े समय बाद भी श्री मोदी सद्भावना की बात करते तो दंगा पीडि़तों को थोड़ी राहत मिलती, पर 10 साल बाद किए गए सद्भावना उपवास से उनकी राजनीतिक छवि भले सुधर गई हो, दंगा पीडि़तों के जख्म नहींभर सके। वे मुख्यमंत्री थे, लेकिन राज्य में हुए सांप्रदायिक दंगों की जिम्मेदारी उन्होंने नहींली। अब वे देश के प्रधानमंत्री हैं, हमेशा सवा सौ करोड़ भाइयों-बहनों की बातें करते हैं, लेकिन देश में अगर सांप्रदायिक माहौल बिगड़ रहा है तो वे इसकी जिम्मेदारी नहींलेना चाहते। क्या सवा सौ करोड़ बंधुओं में अखलाक और सुधीन्द्र कुलकर्णी शामिल नहींहैं? प्रधानमंत्री अगर ऐसी घटनाओं के घटते ही दुख जतलाते तो उसका यह आशय कदापि नहींनिकाला जाता कि केेंद्र सरकार इन घटनाओंंके लिए जिम्मेदार है। बल्कि देश की जनता को आश्वस्ति मिलती कि ऐसी घटनाएं चाहें किसी भी राज्य में हों, देश का प्रधानमंत्री उनके साथ है। अभी रोज ही व्यापक लेखक समुदाय की ओर से देश में बिगड़ते माहौल के खिलाफ प्रतिरोध व्यक्त किया जा रहा है। पुरस्कार, सम्मान और पद छोड़े जा रहे हैं। 

प्रधानमंत्री ने इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहींकी है। क्या लेखकों के विरोध का संज्ञान उन्हें नहींलेना चाहिए या इसके लिए भी किसी विशेष साक्षात्कार की जरूरत है? प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार को तो जिम्मेदारी से बरी कर दिया, लेकिन विपक्षियों को निशाने पर लेने से बाज नहींआए। उनका कहना है कि विपक्ष सांप्रदायवाद का हौव्वा खड़ा कर रहा है। धु्रवीकरण की राजनीति कर रहा है। अगर ऐसा है तो केेंद्र सरकार क्या इतनी लाचार है कि वह इस माहौल को सुधार नहींपा रही है। क्यों भाजपा के उन सांसदों, विधायकों और नेताओं को अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयानबाजी करने से रोका नहींजाता। जब वे कुछ बोल देते हैं, या कोई घटना घट जाती है, उसके बाद खेद प्रकट करने का क्या लाभ? श्री मोदी कहते हैं कि भाजपा छद्म धर्मनिरपेक्षता का विरोध करती है और दुर्भाग्य से सामाजिक बेचैनी के माहौल में इस तरह की बहस हो रही है। इसे वार्ता और विचार-विमर्श के जरिए सुलझाया जा सकता है। 
बड़ी प्रसन्नता की बात है कि श्री मोदी विचार-विमर्श में यकीन रखते हैं। लेकिन उसके लिए माहौल भी उन्हेंंही तैयार करना होगा। अभी तो वातावरण ऐसा है कि या तो आप उनके साथ हैं या दुश्मन हैं। देश का वातावरण ठीक करने के लिए विमर्श की शुरुआत क्या वे नयनतारा सहगल, अशोक बाजपेयी, कृष्णा सोबती, मंगलेश डबराल जैसे लेखकों से चर्चा से कर नहींकर सकते? और सबसे बड़ा सवाल उनके खेद प्रकटीकरण पर शिवसेना ने खेद जतलाया है। उसे अपने कृत्य सही लग रहे हैं। वह मानती है कि विश्व में मोदीजी की पहचान गोधरा कांड से हुई और वह इसलिए उनका आदर करती है। क्या इस बयान के बाद महाराष्ट्र और केेंद्र में शिवसेना से गठबंधन तोडऩे की हिम्मत मोदीजी दिखलाएंगे?

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