Thursday, October 15, 2015

दादरी से कोट राधा किशन अर्थात 'हम उनके जैसे ही निकले'--सुभाष गाताड़े

दादरी से कोट राधा किशन अर्थात 'हम उनके जैसे ही निकले'--

सुभाष गाताड़े



[DESHBANDHU ]
15, OCT, 2015, THURSDAY 11:34:14 PM

दारूल हुकूमत दिल्ली- जहां से पूरे मुल्क की निगरानी होती है- वहां से बमुश्किल चालीस किलोमीटर दूर एक गांव में अ$खलाक नामक एक शख्स की संगठित हुजूम द्वारा की गई हत्या को लेकर माहौल अभी भी सरगर्म है, जिसके पीछे हिन्दुत्ववादी संगठनों की कारगुजारी बताई जाती है, जिसके चुने हुए नेता अभी भी विवादास्पद बयान देकर मामले को हवा देने में मुब्तिला हैं।
पूरे देश में इस घटना को लेकर आक्रोश है और शीर्ष पर अभी भी कायम मौन को लेकर जबरदस्त गुस्सा पनप रहा है।
दो साल के अन्दर तीन तर्कशील विचारकों, वामपंथी कार्यकर्ताओं की हुई हत्या से पहले से उद्वेलित प्रबुद्ध समाज के कई अग्रणी हस्ताक्षरों ने देश की बहुलतावादी संस्कृति को तहस-नहस करने की इन कोशिशों के खिलाफ उन्हें दिए जा चुके प्रतिष्ठित सम्मान वापस कर दिए हैं। और यह सवाल अब जोरों से उठ रहा है कि डिजिटल इंडिया के नारों के बीच क्या डेमोक्रेटिक/जनतांत्रिक इंडिया तिरोहित हो जाएगा?
वैसे इस मसले पर बहुत कुछ कागज काले किए जा चुके हैं कि किस तरह गांव के मंदिर से बाकायदा ऐलान करके भीड़ को अ$खलाक के घर पर हमले के लिए उकसाया गया। यह अफवाह फैलाई गई कि वह बीफ अर्थात गोमांस खाता है। और कई पुश्तों से उस गांव में रह रहे अ$खलाक को वहीं पीट-पीट कर मार डाला गया और बेटे को बुरी तरह जख्मी किया गया। मारनेवाले उसके अपने गांववाले ही थे या अगल-बगल के गांव से जुटाए गए थे। और यह बात भी सामने आ रही है कि किस तरह कई 'सेनाओंÓ के निर्माण के जरिए विगत तीन महिने से पूरे इलाके में माहौल में तनाव घोला जा रहा था।
बहरहाल, दादरी में एक अल्पसंख्यक परिवार पर हुए इस हमले ने वैसे दादरी से बमुश्किल पांच सौ किलोमीटर दूर पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के एक गांव कोट राधा किशन के पिछले साल की एक अन्य रक्तरंजित घटना की याद ताजा की है, जब ईंट भट्टे पर मजदूरी करने वाले शहजाद मसीह और उनकी गर्भवती पत्नी को ईशनिन्दा करने के आरोप में उनकी ही गांव की भीड़ द्वारा ईंटों से पीट-पीट कर मार डाला गया था। 4 नवम्बर 2014 को हुई इस रक्तरंजित घटना का गवाह गांव कोट राधा किशन लाहौर से बमुश्किल साठ किलोमीेटर दूर स्थित है।
दोनों ही मामलों में अद्भुत समानताएं हैं। गोकशी की अफवाह या ईशनिन्दा के आरोपों की पुष्टि करने की जरूरत उस हुजूम में शामिल किसी ने नहीं की थी। अगर दादरी में मंदिर से ऐलान किया गया था और 'गाय की रक्षा अर्थात् धर्म की एवं राष्ट्र की रक्षाÓ के लिए घरों से निकल पडऩे का आह्वान किया गया था तो उधर कोट राधा किशन में गांव की मस्जिद से ऐलान किया गया था कि गांव में ईशनिन्दा की घटना हुई है और मजहब की हिफाजत के लिए आगे आने की बात कही गई थी। उन्मादी भीड़ ने शहजाद एवं उसकी पत्नी को न केवल ईटों से मारा बल्कि उन्हें टै्रक्टर के पीछे बांध कर घसीटते ले जाया गया और उनकी लाशें जला दी गईं और पास के ईट भटटे में फेंक दी गई। उधर दादरी में उकसाने के लिए हिन्दुत्ववादी रणबांकुरे जिम्मेदार थे तो शाहजाद मसीह की हत्या के लिए ईंट भट्टे के मालिक ने उकसाया था, जहां दोनों पति-पत्नी मजदूरी करते थे और उन्होंने यही 'अपराधÓ किया था कि अपनी मजदूरी मांगी थी, जिसके एवज में उन्हें मौत मिली थी।

अपने महत्वपूर्ण आलेख 'काउ फ्रेंजी एण्ड द दादरी किलिंग्जÓ में फरा•ा अहमद लिखते हैं किस तरह पाकिस्तान में महज इतना ही काफी है कि किसी पर ईशनिन्दा का आरोप लगे फिर उसके बाद उसे प्रमाणित करने की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि अगर अदालत पूछेगी कि ईशनिन्दा कैसे हुई है तो उन शब्दों का उच्चारण भी एक तरह से फिर एक बार ईशनिन्दा करना माना जाता है। आरोप लगाने वाले इसी बात का सहारा लेकर बेदाग घूमते हैं और जिन पर यह आरोप लगाया जाता है वह जेल की सलाखों के पीछे पड़े रहते हैं या अगर किसी उदार न्यायाधीश के चलते छूट गए तो बाहर आने पर अतिवादी समूहों द्वारा मार दिए जाते हैं।
इधर दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र कहलाने वाले भारत में महज यह अफवाह की कहीं गोहत्या हुई है, सामान्य सी दिखने वाली भीड़ को उन्मादी भीड़ में तब्दील करने के लिए काफी होता है। और ऐसे आचरण को वैधता प्रदान करने के लिए हिन्दुत्ववादी संगठनों के गली-कूचे के नेता ही नहीं, उनके सांसद एवं मंत्री भी आगे आते हैं।
विदित हो कि ऐसी हत्याओं को वैधता दिलाने का काम पहली बार नहीं हो रहा है। याद करें ग्राहम स्टीन्स एवं उनके मासूम बेटों की मनोहरपुर में हुई हत्या को जब हिन्दुत्ववादी संगठनों के दारा सिंह एवं उनके गिरोह ने उन्हें जिन्दा जला कर मार डाला था। उनका आरोप था कि कुष्ठ रोगियों की सेवा के नाम पर ग्राहम स्टीन्स धर्मांतरण में मुब्तिला हैं। आज दादरी की हत्या को लेकर शीर्ष पर मौन से उद्वेलित लोग उस वक्त भी चिंतित थे जब भाजपा का माडरेट चेहरा माने जाने वाले वाजपेयी ने ऐसी घटनाओं की खुल्लमखुल्ला निन्दा करने के बजाय 'धर्मांतरण पर राष्ट्रीय बहसÓ का आह्वान किया था। याद करें 2003 के झज्जर कांड को जब मरी हुई गायों को ले जा रहे पांच दलितों को संगठित भीड़ ने दुलिना पुलिस स्टेशन के सामने इलाके के तमाम अग्रणी अधिकारियों के सामने पीट-पीट कर मार डाला था क्योंकि किसी ने यह अफवाह उड़ाई थी कि वह गोहत्या के लिए गायों को ले जा रहे हैं। और इस घटना पर संघ परिवार के अग्रणी सदस्य विश्व हिन्दू परिषद के गिरिराज किशोर ने बयान दिया था कि 'पुराणों में मनुष्य से ज्यादा गाय को अहमियत दी गई है।Ó


आ•ाादी के बाद भारत ने सेक्युलर आधार पर स्वाधीन भारत के निर्माण का संकल्प लिया था और धर्म एवं राजनीति को आपस में सम्मिश्रण करनेवाली ताकतों को हाशिये पर रखने की कोशिश की थी। आज ऐसी ही ताकतें सत्ता की बागडोर संभाल रही हैं, जो उसूलन मानती हैं कि धर्म एवं राजनीति का सम्मिश्रण किया जाना चाहिए। उनका मौन अज्ञानी का मौन नहीं है बल्कि एक सूचक मौन है जो महज इसी बात की ताईद करता है कि वह आज इसी बात के लिए प्रयासरत हैं कि किस तरह संविधान के बचे-खुचे सेक्युलर तत्वों को भी धीरे-धीरे हाशिये पर डाला जाए और भारत को हिन्दूराष्ट्र बनाया जाए।
भारत द्वारा पाकिस्तान के नक्शेकदम पर चलने की इस हरकत को लेकर मशहूर पाकिस्तानी कवयित्री फहमीदा रिया•ा की वह कविता बहुत मौजूं जान पड़ती है।


तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छुपे थे भाई?
वह मूर्खता, वह घामड़पन, जिसमें हमने सदी गंवाई।
आखिर पहुंची द्वार तुम्हारे, अरे बधाई, बहुत बधाई।।

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