नर्मदा नदी पर बन रही सरदार सरोवर बांध परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है। एक ओर सरकार बांध की ऊंचाई को 17 मीटर बढ़ाने के निर्णय पर आगे बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आंदोलन दो लाख या उससे अधिक उन विस्थापितों की रक्षा के लिए अंतिम मोर्चा संभाल रहा है जिनका पुनर्वास हो जाने का दावा सरकार ने किया है। परन्तु उनका वास्तविक पुनर्वास अभी तक नहीं हो सका है।
इस संदर्भ में सरकारी पक्ष व आंदोलन पक्ष द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों में बहुत अंतर है। यह अंतर कुछ हद तक इस आधार पर समझ में आता है कि सरकार ने पुनर्वास की कुछ औपचारिकताओं को तो पूरा कर ही दिया है जैसे कि पुनर्वास स्थलों को चिन्हित करना व कुछ नकद क्षतिपूर्ति कर दी गई है। पर प्रश्न यह है कि क्या अधिकांश विस्थापित वास्तव में भली-भांति नए सिरे से बस पाए हैं? वहीं हकीकत यह है कि अनेक पुनर्वास स्थल खाली पड़े हैं और हजारों परिवार अभी भी डूब क्षेत्र मेें रह रहे हैं और बांध की ऊंचाई बढ़ने से वे संकटग्रस्त होते हैं।
विस्थापन से सबसे अधिक प्रभावित राज्य मध्यप्रदेश में बहुत कम विस्थापित परिवारों से जमीन के बदले जमीन का वायदा पूरा हुआ है। वहीं नकदी मुआवजे में बहुत अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। म.प्र. उच्च न्यायालय द्वारा पुनर्वास से जुड़े भ्रष्टाचार की जांच न्यायमूर्ति (से.नि.) झा आयोग द्वारा कराई जा रही है।
हमें स्मरण करना होगा कि मूल रूप से कितने वायदे विस्थापितों से किए गए थे (जिनके आधार पर परियोजना को स्वीकृति मिली थी)। इसी के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि वास्तव में बहुत कम वायदे ही पूरे हुए हैं। यह स्थिति मध्यप्रदेश में स्पष्ट नजर आती है जहां अनेक फलते-फूलते गांव व समृद्ध खेती डूब क्षेत्र में आ रही है। आदिवासी हितों की रक्षा को एक राष्ट्रीय उद्देश्य माना गया है परंतु अनेक आदिवासी गांव भी इस परियोजना से डूब रहे हैं। इसके अतिरिक्त पर्यावरण व सुरक्षा संबंधी सरोकार हैं जो मोर्स समिति रिपोर्ट जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण दस्तावेजों में पहले से ही दर्ज हो चुके हैं।
एक अन्य बड़ा सवाल यह है कि आरंभ में इस परियोजना से जिन विभिन्न लाभों का दावा किया गया था, क्या वे वास्तव में प्राप्त हुए हैं? परियोजना की स्वीकृति के समय सबसे अधिक समर्थन इस आधार पर प्राप्त किया गया था कि सौराष्ट्र व कच्छ के सूखाग्रस्त गांवों को इस परियोजना का पानी मिलेगा। यह लक्ष्य तो प्राप्त हुआ नहीं, बल्कि गांवों व खेती को मिलने वाला पानी उद्योगों या शहरों की ओर मोड़ दिया गया।
लाभ-हानि का मूल्यांकन कर जब परियोजना को स्वीकृति दी गई तब इसकी लागत 4200 करोड़ रुपए आंकी गई थी। जबकि वर्ष 2012 में योजना आयोग ने इसकी लागत को लगभग 70000 करोड़ रुपए आंका, जो अब बढ़कर 90000 करोड़ रुपए तक पंहुच सकती है। इस दौरान जितना लाभ हुआ या दुष्परिणाम सामने आए यह भी स्पष्ट हो गया है। बांध की डूब से अनुमान से कहीं अधिक विस्थापन होने वाला है, तो दूसरी ओर नहरों से होने वाला विस्थापन भी कोई कम नहीं है।
इन सब जानकारियों के आधार पर अब नए सिरे से आकलन करना चाहिए कि इस परियोजना से देश ने क्या खोया और क्या पाया। इस तरह का आकलन तमाम नई जानकारियों के साथ पूरी ईमानदारी से हो तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि क्या राष्ट्रीय हित में है और क्या नहीं। निश्चय ही यह महज अकादमिक महत्व का सवाल नहीं है अपितु यह इस दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है कि देश भविष्य में बेहतर निर्णय ले सके और इन निर्णयों को लेने के सही मानदंड व प्रक्रियाएं तैयार हों।
इसके अतिरिक्त इस नजरिए से भी लाभ-हानि का मूल्यांकन होना चाहिए कि बांध की ऊंचाई को बढ़ाने या न बढ़ाने से लाभ ज्यादा होंगे या हानि। साथ ही साथ यह सवाल भी जुड़ा है कि लगभग 2 लाख लोगों को, उनके गांवों व खेतों को क्या इस समय भी डूब क्षेत्र में आने से बचाया जा सकता है?
एक मुद्दा तो यह है (जो नर्मदा बचाओ आंदोलन ने तमाम तथ्यों, पिछले वायदों, समझौतों व न्यायालय के निर्देशों सहित उठाया है) कि बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पहले उचित पुनर्वास संबंधी अनेक कार्यों को पूरा किया जाना जरूरी है। इसी के साथ दूसरा पक्ष यह है कि यदि लाभ-हानि के व्यवस्थित मूल्यांकन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि बांध की ऊंचाई को और बढ़ाना उचित नहीं है तो अनेक गांवों को अभी भी डूब क्षेत्र में आने से बचाया जा सकता है।
यह निर्णय किसी पूर्वाग्रह या जिद के आधार पर नहीं लेना चाहिए। न ही यह निर्णय किसी बड़े निहित स्वार्थ के दबाव में लेना चाहिए। निष्पक्ष समीक्षा के पश्चात वही निर्णय लेना उचित होगा जो लोगों व पर्यावरण के हित में हो।
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