Monday, September 22, 2014

अस्पताल है नहीं, टूटती सांसों को सिर्फ दुआ का सहारा

अस्पताल है नहीं, टूटती सांसों को सिर्फ दुआ का सहारा

No hospital, Stretching breath Dua resort only



नितिन त्रिपाठी [ patrika ]

No hospital, Stretching breath Dua resort only









चिंतलनार (सुकमा)। दक्षिण बस्तर में घने जंगल के बीच बसा बंजेपल्ली गांव। यहां का जोगी परिवार अपने बीमार सदस्य के सांसों की टूट रही डोर को देख कर बेबस है। ऎसा नहीं है कि उसके इलाज कराने की कोशिश नहीं हुई। यह परिवार चारपाई की कांवड़ पर बीमार कवासी को लेकर 30 किमी पैदल चलकर चिंतलनार पहुंचा था। वहां, डिस्पेंसरी खोलकर बैठे "झोलाछाप डॉक्टर" ने उसकी गंभीर हालत को देखते ही दोरनापाल ले जाने की सलाह दी। बस यहीं आकर उनकी उम्मीदें टूट गई। कांवड़ के सहारे कई किलोमीटर की दूरी तय करना संभव नहीं था, इसलिए वापस गांव लौट आए। अब कवासी घर में चारपाई पर सांसें गिन रहा हैं।
परिवार के पास उसके जीवन के लिए दुआ करने के सिवाय कोई चारा नहीं है। यह ऎसा डरावना सच है, जिसका सामना दक्षिण बस्तर के अनेक गांवों के आदिवासियों को कभी न कभी करना पड़ता है। यहां एक बार किसी को बीमारी ने घेरा तो उसके सामने मौत का इंतजार करने के सिवा कोई रास्ता नहीं होता है। यहां आकर सरकार के मुफ्त और बेहतर इलाज के दावों का सच सामने आ जाता है।
जब भी कोई बीमार पड़ता है तो उसको अस्पताल तक ले जाना ही चुनौती बन जाता है। इन गांवों में दूरसंचार की सुविधा तो दूर बिजली तक नही है। और सूचना देने की व्यवस्था होती भी तो सड़कें इस हाल में नही हैं कि संजीवनी एंबुलेंस यहां तक पहुंच पाए। आसपास कई किलोमीटर तक सरकारी स्वास्थ्य केंद्र नही हैं। पहला स्वास्थ्य केंद्र चिंतनलार में है। वहां तक चारपाई की कांवड़ के सहारे मरीज को ले भी जाते हैं तो आगे ले जाना बहुत मुश्किल है। वहीं, एंबुलेंस की सुविधा भी नही है।
कभी नहीं चली दान में मिली एंबुलेंस : पत्रिका टीम चिंतलनार पहुंची तो वहां एक खपरैल घर में डिस्पेंसरी नजर आई। यह स्वास्थ्यकर्मी का घर था, जो बतौर डॉक्टर लोगों का प्राथमिक उपचार कर रहा था। पास ही एक एंबुलेंस भी थी। जब ग्रामीणों से पूछा तो यह हकीकत सामने आई कि यहां कभी डॉक्टर नहीं आए। एक एंबुलेंस दान में मिली थी, लेकिन यह कभी चल ही नहीं सकी। इसके लिए ड्राइवर भी रखे गए, लेकिन वे नौकरी छोड़कर भाग गए। ग्रामीणों की शिकायत है कि कभी सरकार ने उनके बारे में सोचा ही नही। यहां रहने वाले रोहित सिंह का सवाल था कि बाहर से आकर कौन यहां नौकरी करेगा? चिंतलनार या आसपास के कई लोग वाहन चलाना जानते हैं, उनको नौकरी पर रखते तो ठीक होता।
संजीवनी 60 किमी दूर
यहां हालात इतने बदतर हैं कि बीमार को एंबुलेंस की सुविधा दोरनापाल के अलावा कहीं और नहीं मिल सकती है। एंबुलेंस तक ले जाने के लिए ही करीब 60 किमी का फासला तय करना होता है। जाहिर है सरकारी इलाज की योजना इनकी पहुंच से काफी दूर है। दोरनापाल का स्वास्थ्य केंद्र भी बीमार है। यहां मेडिकल स्टाफ की कमी है। एकमात्र डॉक्टर है। उसे ओपीडी, आश्रम-छात्रावासों में रूटीन चेकअप, पोस्टमार्टम ही नहीं दवा देने तक की ड्यूटी निभानी पड़ रही है। रोजाना 10-12 प्रसव होते हैं, जो महिला चिकित्सक के अभाव में एकमात्र एएनएम के भरोसे हो रहे हैं।
दहशत इतनी कि दवा भी नहीं लेते
आदिवासी चाहे तो सीआरपीएफ कैंप में प्राथमिक उपचार मिल सकता है। सीआरपीएफ की तरफ से बाकायदा इसका प्रचार भी किया जाता है। इलाके में लगभग हर छह से दस किलोमीटर पर कैंप हैं, लेकिन ग्रामीण यहां जाने से डरते हैं। उनको लगता है कि यहां उनसे माओवादियों के बारे में पूछताछ की जाएगी। और इलाज कराने के बाद माओवादी परेशान करेंगे। सीआरपीएफ के एक अधिकारी ने माना कि तमाम कोशिशों के बावजूद फोर्स और ग्रामीणों के बीच की दूरियां खत्म नहीं हो रही हैं। अब भी यह फोर्स से डरते हैं। इसी दहशत की वजह से हाल में ताड़मेटला में सिविक एक्शन प्रोग्राम के तहत लगाए गए शिविर में ग्रामीणों ने दवा और सामान लेने से इनकार कर दिया।

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