किस्तान में हिंदू मंदिर? महीने भर पहले दिल्ली में अपनी किताब के विमोचन के मौके पर रीमा अब्बासी से कुछ नौजवान श्रोताओं ने इस तरह के सवाले पूछे तो हैरान होने की बजाए वे खुश हुईं, ‘‘मुझे लगा कि मैंने आज के हिसाब से बेहद मौजूं विषय पर और ठीक समय पर यह किताब लिखी है.’’
पाकिस्तान की पत्रकार रीमा अब्बासी कराची में रहती हैं. वे लंदन में पढ़ी हैं. परिवार के कई लोग हिंदुस्तान में हैं. संगीत और सिनेमा के अलावा योग में भी उनकी दिलचस्पी है. पाकिस्तान और भारत के कई अखबारों में अरसे से नियमित कॉलम लिखती हैं. वे पिछले एक दशक से धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को रेखांकित करने में जुटी हैं.
उनकी किताब हिस्टोरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान का मजमून, उसकी कवर फोटो और उपशीर्षक अ कॉल टु कॉनशंस (अंतरात्मा की आवाज) भी इसी ओर इशारा करते हैं. करीब 300 पन्नों की यह किताब एक दस्तावेजी साक्ष्य है. लाहौर और कराची जैसे राजधानी शहरों से लेकर ठेठ बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा तक के बीहड़ इलाकों में साथी महिला फोटोग्राफर मदीहा ऐजाज के साथ जाकर अब्बासी ने करीब दो दर्जन ऐतिहासिक मंदिरों की रचनात्मक परिक्रमा की है.
(कराची में 15,00 वर्ष पुराना पंचमुखी हनुमान मंदिर)
भारत में पाकिस्तान के मंदिरों की खबरें उन पर कथित ‘‘हमलों’’ या अतिक्रमणों के संदर्भ में ही आती रही हैं. उनकी ऐतिहासिकता, आज के वहां के परिवेश और तथ्यों को एक संवेदनशील आंख से देखने-बताने की कोशिश ही नहीं की गई. कभी-कभी चर्चा हुई भी तो मोटे तौर पर दो मंदिरों-कटास राज और हिंगलाज माता की. पंजाब (पाकिस्तान) के चकवाल जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर पहाड़ी पर बने कटासराज मंदिर के बारे में मान्यता है कि शिव की अर्द्धांगिनी सती ने यहीं देह त्यागी थी और पांडवों ने वनवास के चार साल वहां बिताए थे.
(नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान का इकलौता ऐतिहासिक राम मंदिर)
कई विद्वानों का मानना है कि कटास ऋग्वेद, रामायण, उपनिषदों और महाभारत के लिए प्रेरणास्थल रहा है. वहीं बलूचिस्तान प्रांत के लासबेला जिले में हिंगोल नदी के किनारे स्थित हिंगलाज (दुर्गा का एक नाम) माता का मंदिर दुस्साहसी तीर्थयात्रियों का भी कड़ा इम्तिहान लेता है. ऊंचे-नीचे, संकरे दुर्गम पहाड़ी, मैदानी इलाकों के अलावा बुनियादी सुविधाओं से दूर जनजातीय आबादी को पार कर वहां पहुंचना, लेखिका के मुताबिक एक दूसरी दुनिया में होने का एहसास कराता है.
कभी सिंध, कभी थार और नागरपारकर तो कभी पंजाब, अब्बासी ने अपनी टीम के साथ एक साल तीन माह तक इसी तरह खाक छानी. सिंध में सक्खर का साधु बेला मंदिर, अरोड़ का कालका मंदिर और सिंध के दलितों-मुसलमानों की अगाध श्रद्धा वाला रामा पीर मंदिर या फिर खैबर के हजारा जिले में मनसेहरा का शिवाला मंदिर. आठ-नौ महीने अब्बासी ने इन पर शोध और अध्ययन में लगाए.
(बलूचिस्तान प्रांत के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर)
इस दौरान उन्होंने पाया कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पंजाब प्रांत समेत पाकिस्तान में करीब 1,000 मंदिर ध्वस्त किए गए. पंजाब वह इलाका है, जहां से पाकिस्तान के ज्यादातर हुक्मरान आते हैं. इस बारे में सवाल करने पर वे कहती हैं, ‘‘हैरत की बात है कि मुझे पेशावर में ऐसी कोई मुश्किल नहीं आई जबकि लोगों को लगता है कि वहां हालात ठीक नहीं होंगे. उस लिहाज से देखें तो पंजाब में हरेक के लिए मुश्किल है, क्या हिंदू, क्या शिया, क्या अहमदी और क्या खवातीन (महिलाएं). यह सब देखकर एक लेखक के तौर पर मुझे दुख हुआ.’’
लेकिन फिर वे जैसे एक झटके के साथ उस विषय से बाहर आते हुए स्पष्ट कहती हैं कि और भी 500 या 1,000 मंदिर होंगे लेकिन चूंकि उनकी किताब का मजमून ‘‘ऐतिहासिक मंदिर्य है, इसलिए उन्होंने, ‘‘इतिहास, सौहार्द, पुरातत्व और उपमहाद्वीप की साझा विरासत के मूल्यों पर ही फोकस रखा है.’’ उन्होंने पाया कि हिंगलाज माता के मंदिर में हिंदुओं के अलावा स्थानीय बलूच और यहां तक कि ईरान से गैर-हिंदू भी मन्नतें मांगने आते हैं. किताब में कई जगहों पर मंदिरों में मिले गैर-हिंदुओं का हवाला दिया गया है.
(हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा)
‘‘मैं जहां-जहां जिस मंदिर में भी गई, पुजारी हो, भक्त हो, बलूची हो या पेशावर के मुसलमान हों, जब मैंने उन्हें किताब का मजमून और इसके हिंदुस्तान में छपने की बात कही तो यकीन जानिए, हर किसी ने खुशी जताते हुए यही कहा कि हिंदुस्तान तक यह बात पहुंचनी चाहिए.’’ यही वह ताकत थी जिसने अब्बासी को इस जुनूनी काम में लगाए रखा. वरना ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों के हड्डियां चटका देने वाले रास्तों से गुजरते वक्त उन्हें एक वक्त लगा भी कि यह क्या बला मोल ले ली.
‘‘हिंगलाज पहुंचना तो वाकई बड़ा ही दुश्वार और चैलेंजिंग था. टीम का साजो-सामान लेकर चलना और फंड की दिक्कत. लेकिन चूंकि हमारे पास एक बड़ा मकसद था. एक धर्म विशेष की बजाए इसमें इंसानियत, बहुलतावाद और मंदिरों से जुड़े जीवन पर बात करनी थी. इस किताब में इतिहास को सेलिब्रेट किया गया है.’’
(सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर)
लेखिका के लिए मुल्क के कोने-कोने का सफर सिर्फ किताबी यात्रा नहीं थी. इससे वे खुद अपने मुल्क को कहीं बेहतर ढंग से जान पाईं, ‘‘पाकिस्तान के एक नागरिक के नाते अब इसे मैं पहले से बेहतर समझ पाई हूं. इन यात्राओं ने जेहनी तौर भी मुझे समृद्ध किया है.’’ इस किताब को लेकर भारत से मिली प्रतिक्रियाओं ने उनका हौसला बढ़ाया है. वे कहती हैं कि किताब के लिए जुटाए गए तमाम तथ्य और फोटो वगैरह लाहौर के पुरातत्व संग्रहालय में रखे जाएंगे.
‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन हिंदुस्तान इस विषय पर सपोर्ट करने के लिए इतना ज्यादा खुला होगा, इसकी मुझे उम्मीद न थी.’’ 29 अगस्त को दिल्ली के हैबिटाट सेंटर में एक संस्था की ओर से उन्हें राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड दिया गया. इसमें वे खुद नहीं थीं पर अक्तूबर में एक साहित्य उत्सव में वे यहां होंगी. तब शायद यह किताब हिंदी में लाने की बात वे आगे बढ़ाएं, ‘‘मेरी दिली इच्छा है कि यह हिंदी में आए क्योंकि यहां की अहम जबान है हिंदी. हिंदी के लोग इसे पढ़ेंगे तो इससे मेरे मजमून को ताकत मिलेगी.’’
पाकिस्तान की पत्रकार रीमा अब्बासी कराची में रहती हैं. वे लंदन में पढ़ी हैं. परिवार के कई लोग हिंदुस्तान में हैं. संगीत और सिनेमा के अलावा योग में भी उनकी दिलचस्पी है. पाकिस्तान और भारत के कई अखबारों में अरसे से नियमित कॉलम लिखती हैं. वे पिछले एक दशक से धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को रेखांकित करने में जुटी हैं.
उनकी किताब हिस्टोरिक टेंपल्स इन पाकिस्तान का मजमून, उसकी कवर फोटो और उपशीर्षक अ कॉल टु कॉनशंस (अंतरात्मा की आवाज) भी इसी ओर इशारा करते हैं. करीब 300 पन्नों की यह किताब एक दस्तावेजी साक्ष्य है. लाहौर और कराची जैसे राजधानी शहरों से लेकर ठेठ बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वा तक के बीहड़ इलाकों में साथी महिला फोटोग्राफर मदीहा ऐजाज के साथ जाकर अब्बासी ने करीब दो दर्जन ऐतिहासिक मंदिरों की रचनात्मक परिक्रमा की है.
(कराची में 15,00 वर्ष पुराना पंचमुखी हनुमान मंदिर)
भारत में पाकिस्तान के मंदिरों की खबरें उन पर कथित ‘‘हमलों’’ या अतिक्रमणों के संदर्भ में ही आती रही हैं. उनकी ऐतिहासिकता, आज के वहां के परिवेश और तथ्यों को एक संवेदनशील आंख से देखने-बताने की कोशिश ही नहीं की गई. कभी-कभी चर्चा हुई भी तो मोटे तौर पर दो मंदिरों-कटास राज और हिंगलाज माता की. पंजाब (पाकिस्तान) के चकवाल जिला मुख्यालय से 25 किमी दूर पहाड़ी पर बने कटासराज मंदिर के बारे में मान्यता है कि शिव की अर्द्धांगिनी सती ने यहीं देह त्यागी थी और पांडवों ने वनवास के चार साल वहां बिताए थे.
(नागरपारकर के इस्लामकोट में पाकिस्तान का इकलौता ऐतिहासिक राम मंदिर)
कई विद्वानों का मानना है कि कटास ऋग्वेद, रामायण, उपनिषदों और महाभारत के लिए प्रेरणास्थल रहा है. वहीं बलूचिस्तान प्रांत के लासबेला जिले में हिंगोल नदी के किनारे स्थित हिंगलाज (दुर्गा का एक नाम) माता का मंदिर दुस्साहसी तीर्थयात्रियों का भी कड़ा इम्तिहान लेता है. ऊंचे-नीचे, संकरे दुर्गम पहाड़ी, मैदानी इलाकों के अलावा बुनियादी सुविधाओं से दूर जनजातीय आबादी को पार कर वहां पहुंचना, लेखिका के मुताबिक एक दूसरी दुनिया में होने का एहसास कराता है.
कभी सिंध, कभी थार और नागरपारकर तो कभी पंजाब, अब्बासी ने अपनी टीम के साथ एक साल तीन माह तक इसी तरह खाक छानी. सिंध में सक्खर का साधु बेला मंदिर, अरोड़ का कालका मंदिर और सिंध के दलितों-मुसलमानों की अगाध श्रद्धा वाला रामा पीर मंदिर या फिर खैबर के हजारा जिले में मनसेहरा का शिवाला मंदिर. आठ-नौ महीने अब्बासी ने इन पर शोध और अध्ययन में लगाए.
(बलूचिस्तान प्रांत के दूरदराज इलाके में स्थित दुर्गा का हिंगलाज मंदिर)
इस दौरान उन्होंने पाया कि 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद पंजाब प्रांत समेत पाकिस्तान में करीब 1,000 मंदिर ध्वस्त किए गए. पंजाब वह इलाका है, जहां से पाकिस्तान के ज्यादातर हुक्मरान आते हैं. इस बारे में सवाल करने पर वे कहती हैं, ‘‘हैरत की बात है कि मुझे पेशावर में ऐसी कोई मुश्किल नहीं आई जबकि लोगों को लगता है कि वहां हालात ठीक नहीं होंगे. उस लिहाज से देखें तो पंजाब में हरेक के लिए मुश्किल है, क्या हिंदू, क्या शिया, क्या अहमदी और क्या खवातीन (महिलाएं). यह सब देखकर एक लेखक के तौर पर मुझे दुख हुआ.’’
लेकिन फिर वे जैसे एक झटके के साथ उस विषय से बाहर आते हुए स्पष्ट कहती हैं कि और भी 500 या 1,000 मंदिर होंगे लेकिन चूंकि उनकी किताब का मजमून ‘‘ऐतिहासिक मंदिर्य है, इसलिए उन्होंने, ‘‘इतिहास, सौहार्द, पुरातत्व और उपमहाद्वीप की साझा विरासत के मूल्यों पर ही फोकस रखा है.’’ उन्होंने पाया कि हिंगलाज माता के मंदिर में हिंदुओं के अलावा स्थानीय बलूच और यहां तक कि ईरान से गैर-हिंदू भी मन्नतें मांगने आते हैं. किताब में कई जगहों पर मंदिरों में मिले गैर-हिंदुओं का हवाला दिया गया है.
(हिंगलाज मंदिर क्षेत्र का बाहर से दिखता बेहद खूबसूरत नजारा)
‘‘मैं जहां-जहां जिस मंदिर में भी गई, पुजारी हो, भक्त हो, बलूची हो या पेशावर के मुसलमान हों, जब मैंने उन्हें किताब का मजमून और इसके हिंदुस्तान में छपने की बात कही तो यकीन जानिए, हर किसी ने खुशी जताते हुए यही कहा कि हिंदुस्तान तक यह बात पहुंचनी चाहिए.’’ यही वह ताकत थी जिसने अब्बासी को इस जुनूनी काम में लगाए रखा. वरना ऊबड़-खाबड़ बीहड़ों के हड्डियां चटका देने वाले रास्तों से गुजरते वक्त उन्हें एक वक्त लगा भी कि यह क्या बला मोल ले ली.
‘‘हिंगलाज पहुंचना तो वाकई बड़ा ही दुश्वार और चैलेंजिंग था. टीम का साजो-सामान लेकर चलना और फंड की दिक्कत. लेकिन चूंकि हमारे पास एक बड़ा मकसद था. एक धर्म विशेष की बजाए इसमें इंसानियत, बहुलतावाद और मंदिरों से जुड़े जीवन पर बात करनी थी. इस किताब में इतिहास को सेलिब्रेट किया गया है.’’
(सिंध में दलित हिंदुओं और मुसलमानों का प्रमुख धर्म स्थल रामा पीर मंदिर)
लेखिका के लिए मुल्क के कोने-कोने का सफर सिर्फ किताबी यात्रा नहीं थी. इससे वे खुद अपने मुल्क को कहीं बेहतर ढंग से जान पाईं, ‘‘पाकिस्तान के एक नागरिक के नाते अब इसे मैं पहले से बेहतर समझ पाई हूं. इन यात्राओं ने जेहनी तौर भी मुझे समृद्ध किया है.’’ इस किताब को लेकर भारत से मिली प्रतिक्रियाओं ने उनका हौसला बढ़ाया है. वे कहती हैं कि किताब के लिए जुटाए गए तमाम तथ्य और फोटो वगैरह लाहौर के पुरातत्व संग्रहालय में रखे जाएंगे.
‘‘यह सब तो ठीक है लेकिन हिंदुस्तान इस विषय पर सपोर्ट करने के लिए इतना ज्यादा खुला होगा, इसकी मुझे उम्मीद न थी.’’ 29 अगस्त को दिल्ली के हैबिटाट सेंटर में एक संस्था की ओर से उन्हें राजीव गांधी एक्सीलेंस अवार्ड दिया गया. इसमें वे खुद नहीं थीं पर अक्तूबर में एक साहित्य उत्सव में वे यहां होंगी. तब शायद यह किताब हिंदी में लाने की बात वे आगे बढ़ाएं, ‘‘मेरी दिली इच्छा है कि यह हिंदी में आए क्योंकि यहां की अहम जबान है हिंदी. हिंदी के लोग इसे पढ़ेंगे तो इससे मेरे मजमून को ताकत मिलेगी.’’
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