Friday, September 9, 2016

महानदी के जल पर जमींदारी!

महानदी के जल पर जमींदारी!




राजकुमार सोनी@CatchHindi |
9 September 2016,

छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब 1983 में पहली बार जल के बंटवारे पर विवाद की स्थिति बनी थी

वो अपने अश्रु में आकाश को डुबोएगी, नदी के अंग कटेंगे तो नदी रोएगी


छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी महानदी पर उपजे विवाद को देखकर हिंदी के प्रसिद्ध कवि वीरेंद्र मिश्र की एक कविता बरबस याद आ जाती है.
वो अपने अश्रु में आकाश को डुबोएगी
नदी के अंग कटेंगे तो नदी रोएगी
प्रहार किस पे कर रहे हो कुछ पता भी है
नदी का कत्ल करोगे तो सदी रोएगी
नदी को हंसने दो, नदी को बहने दो

विवाद यही है कि इस नदी के जल पर सबसे पहली जमींदारी किसकी है? छत्तीसगढ़ का दावा है कि नदी का उद्गम उनके राज्य से होता है इसलिए सबसे ज्यादा अधिकार उनका है.

ओडिशा सरकार का कहना है कि नदी का जल सारंगढ़ से होकर सबंलपुर में निर्मित किए गए हीराकुंड में स्वाभाविक ढंग से पहुंचता है तो जल पर उनका भी स्वाभाविक अधिकार है.

बीजद सरकार के प्रवक्ता डीएस मिश्रा का आरोप है कि महानदी पर बेतरतीब ढंग से बैराज बन रहे हैं जिसके चलते ओडिशा के लिए जल बचने की संभावना खत्म हो गई है, जबकि छत्तीसगढ़ के जल संसाधन विभाग के अफसरों का कहना है कि बारिश का पानी समुद्र में बह जाता है सो उसे रोकने में कोई बुराई नहीं है.

कौन सही हैं और कौन गलत. इस द्वंद्व के बीच यह सवाल कहीं पीछे छूट गया है कि नदी तट पर जीवन यापन करने वाले किसानों और मछुआरों का क्या होगा?

घटा जलस्तर और बढ़ गया प्रदूषण

'फोरम फॉर पालिसी डायलाग ओन वाटर कांफ्लिक्ट्स इन इंडिया' नाम की एक संस्था ने एक शोध के बाद यह तथ्य सामने रखा है कि दो राज्यों की आपसी टकराहट चलते नदी के लगातार बिगड़ रहे स्वरूप पर बहस अचानक बंद हो गई है जबकि महानदी मौत के मुहाने पर खड़ी कर दी गई है. नदी का प्राकृतिक बहाव बिगड़ा है और उसके जल स्तर में गिरावट देखने को मिल रही है.

इतना ही नहीं जो जल उद्योगों को बेचा जा रहा है उसके चलते प्रदूषण का खतरा और भी बढ़ गया है. संस्था के अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण से लेकर ओडिशा के संबलपुर तक नदी के किनारे सब्जी-भाजी और कलिन्दर (तरबूज) की पैदावर करने वाले लगभग बीस हजार किसान-मछुआरे प्रभावित हुए हैं.

निष्कर्ष में कहा गया है कि जब हसदेव बांगो प्रोजेक्ट से किसानों को रबी की फसल के लिए पानी देना मुमकिन नहीं हो पा रहा है तो फिर उस महानदी से किसानों को कैसे फायदा हो पाएगा जिसका जल मैदानी इलाकों में स्थापित स्पंज आयरन संयंत्र और बिजली घरों को सबसे ज्यादा वितरित किया जाता है.

32 साल पुराना विवाद

महानदी का जल विवाद 32 साल पुराना है. छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब 1983 में पहली बार जल के बंटवारे पर विवाद की स्थिति बनी थी. मध्य प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और ओडिशा के मुख्यमंत्री जेबी पटनायक ने संयुक्त नियंत्रण बोर्ड के गठन पर जोर दिया था, लेकिन अब तक इस बोर्ड का गठन नहीं हो पाया है.

हालांकि हाल के दिनों में छत्तीसगढ़ ने साफ किया है कि अगर ऐसा कोई बोर्ड गठित होता है तो वह समर्थन करेगा. राजनीतिक हलको में यह भी कहा जा रहा है कि ओडिशा में संपन्न होने वाले पंचायत चुनाव के बाद शायद इस बात पर ध्यान दिया जाए कि बोर्ड का गठन कैसे और किस तरीके से होगा.

जल संसाधन मंत्री बृजमोहन अग्रवाल कहते हैं, 'महानदी को लेकर छत्तीसगढ़ का नजरिया पारदर्शी है. सरकार पहले भी ओडिशा को पत्र लिखकर पूरी जानकारी दे चुकी है, मगर ओडिशा सरकार ही बातचीत से कतरा रही है.'


नदी पर हक का सवाल!

महानदी पर उपजे विवाद के बाद छत्तीसगढ़ और ओडिशा के जनसंगठनों से जुड़े लोगों ने दोनों सरकारों से जल की प्राथमिकता तय करने की मांग की है. जनसंगठनों की ओर से किए जाने वाले जनआंदोलनों के राष्ट्रीय संयोजक प्रफुल्ल सामंत रे कहना है कि छत्तीसगढ़ और ओडिशा की सरकारों ने कभी भी यह समझने का प्रयत्न ही नहीं किया कि नदी पर सबसे पहला हक उसके आसपास रहने वाले बाशिन्दों और किसानों का होता है.

दोनों सरकारें नदी के जल को औद्योगिक घरानों को सौंपने की पक्षधर हैं, लेकिन दिखावे के तौर पर चल रही लड़ाई में एक बात यह जोड़ दी गई है कि उनके लिए जनता का हित प्रमुख है.

यदि बात जनता के हित की है तो महानदी और उसकी सहायक नदियों का जो पानी हीराकुंड बांध में एकत्रित होता है, उसे ओडिशा सरकार उद्योगों को क्यों बेच रही है? छत्तीसगढ़ सरकार ने महानदी पर बैराजों का निर्माण कर यह जाहिर कर दिया है कि वह किसे फायदा पहुंचाने के लिए काम कर रही है.

पश्चिम ओडिशा कृषक संगठन के संयोजक लिंगराज प्रधान मानते हैं कि दोनों सरकारों ने किसानों के संघर्ष को कमजोर करने के लिए विवाद को जन्म दिया है. वे कहते हैं, 'महानदी का पानी छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ से बरगढ़ होते हुए संबलपुर के हीराकुंड बांध में आता है. जब ओडिशा ने बांध के पानी को बेचना शुरू किया तब किसानों को आंदोलन का रास्ता अख्तियार करना पड़ा था. किसानों ने हीराकुंड बांध के जमादार पाली इलाके में वेदांता कंपनी की पाइप लाइन को बिछने से रोका. कोरियन फैक्ट्री पास्को का विरोध किया जिसके चलते उसे वापस जाना पड़ा.

बहुत बाद में सरकार ने यह माना कि औद्योगिक ईकाईयों को बहुत ज्यादा पानी देने का फैसला सही नहीं था. हीराकुंड से उद्योगों को दिए जाने वाले जल पर किसानों के संघर्ष को खत्म करने के लिए सरकारों ने नई चाल चली है. दोनों सरकारें एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रही है, मगर इस आरोप-प्रत्यारोप में यह बात भुला दी गई है कि पानी की जरूरत सबसे ज्यादा अन्नदाताओं को होती है.

नदी की मौत के लिए बनी योजना

अभी हाल के दिनों में देशभर के जल विशेषज्ञ छत्तीसगढ़ की राजधानी में जुटे तो उन्होंने माना कि उद्योगों को लाभ पहुंचाने के लिए जो बैराज बनाए गए हैं उसने नदी के स्वरूप को काफी बदल डाला है. बैराजों की वजह से नदी का प्राकृतिक बहाव कमजोर हो गया है.

** प्रसिद्ध जल विशेषज्ञ श्रीपाद अधिकारी कहते हैं,

 'विवाद के दौरान नदी पर होने वाले प्रदूषण के मसले को नजरअंदाज कर दिया गया है. दोनों सरकारें इस मसले पर बातचीत करने को तैयार नहीं है कि बड़े पैमाने पर उद्योगों को दिए जाने वाले जल से नदी कैसे और किस तरह से दम तोड़ रही है. दोनों सरकारों ने महानदी की मौत के लिए योजनाबद्ध ढंग से सहमति दे दी है और उस पर बड़ी चालाकी से अमल कर रही है.'

** छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के संयोजक आलोक शुक्ला का मानना है
कि महानदी का विवाद केवल और केवल औद्योगिक घरानों को उपलब्ध कराए जाने वाले जल के चक्कर में उलझा दिया गया है. वे कहते हैं, 'छत्तीसगढ़ में 70 हजार मेगावाट का बिजली घर लगाने का लक्ष्य रखा गया है तो ओडिशा में 55 से 60 हजार मेगावाट का संयंत्र लगाया जाना है. दोनों राज्य बिजली घरों के लिए कई कंपनियों से एमओयू कर चुके हैं तो उनके लिए जल कहां से आएगा? जाहिर सी बात है कि कई छोटी-बड़ी नदियों को समाहित करके चलने वाली महानदी का दोहन होगा.'

" ऐसे में छत्तीसगढ़ यदि पानी को रोककर सुरक्षित करता है तो कोई बुराई नहीं है. ओडिशा का विवाद समझ से परे हैं"

छत्तीसगढ़ सरकार ने अब तक अपनी जल नीति नहीं बनाई तो यह उम्मीद करना बेमानी है कि वह महानदी के जल को लेकर कोई ठीक-ठाक निर्णय करेगी. छत्तीसगढ़ के जल संसाधन विभाग के मुख्य अभियंता एचआर कुटारे साफ तौर पर यह स्वीकारते हैं कि महानदी पर बनाए गए बैराज उद्योगों को पानी देने के लिए ही बनाए गए हैं.

उनका कहना है कि हर सरकार राज्य के विकास को प्राथमिकता देती है. उद्योगों पानी तो दिया जाएगा लेकिन यह पानी खेती को देने वाला पानी न होकर बरसात के दिनों में एकत्रित किया जाने वाला पानी होगा. बैराजों के लिए केंद्रीय जल आयोग से अनुमति लेने के सवाल पर कुटारे कहते महानदी पर कुल जमा छह बैराज बन रहे हैं. इनमें से प्रत्येक की सिंचाई क्षमता 2000 हेक्टयेर से कम है जिसके लिए अनुमति की जरूरत नहीं है.

जहां तक महानदी के पानी के उपयोग का सवाल है तो छत्तीसगढ़ मात्र 25 फीसदी पानी का उपयोग ही कर पा रहा है, शेष पानी अब भी बंगाल की खाड़ी में बेकार जा रहा है. ऐसे में छत्तीसगढ़ यदि पानी को रोककर सुरक्षित करता है तो कोई बुराई नहीं है. ओडिशा का विवाद समझ से परे हैं. छत्तीसगढ़ में जल विवाद की स्थिति कोई पहली बार नही उपजी है. महानदी विवाद से पहले भी सूबे में जल के बंटवारे को लेकर विवाद खड़ा होता रहा है.

केलो विवाद

छत्तीसगढ़ जब अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब वर्ष 1996 में रायगढ़ के जिंदल पावर लिमिटेड के केलो नदी से पानी लेने पर विवाद हुआ था. इलाके के बांदाटिकरा, गुडगहन सहित कई गांवों के किसानों ने लंबे समय तक आंदोलन किया था. इस आंदोलन में 26 जनवरी 1998 को एक आदिवासी महिला सत्यभामा सौरा की मौत के बाद यह सवाल उठा था कि आखिर पानी पर सबसे पहला अधिकार किसका है?

शिवनाथ जल विवाद

26 जून 1996 को दुर्ग जिले की बोरई स्थित स्पंज आयरन कंपनी एचईजी ने औद्योगिक विकास केंद्र रायपुर को पत्र लिखकर अवगत कराया कि उसे हर रोज लगभग 24 लाख लीटर पानी की जरूरत है. औद्योगिक विकास निगम इस शर्त पर पानी देने को तैयार हो गया कि एचईजी शिवनाथ नदी पर एक एनीकट का निर्माण करेगा.

लगभग दो साल बातचीत के बाद 5 अक्टूबर 1998 को राजनांदगांव जिले के कैलाश इंजीनियरिंग कार्पोरेशन के कर्ताधर्ता कैलाश सोनी की कंपनी रेडियस वाटर लिमिटेड को बिल्ड, ओन, ऑपरेट एंड ट्रांसफर सिस्टम (बूट) के तहत काम सौंप दिया. रेडियस वाटर ने कंपनी को पानी बेचा तो देश-दुनिया में इस बात को लेकर हल्ला मचा कि सरकार ने नदियों को बेच दिया है.

खारुन में इंटैकवेल

राजधानी रायपुर से 17 किलोमीटर दूर एक गांव सिलतरा में जब उद्योग लगने की शुरुआत हुई तब निजी कंपनियों ने सरकार को पानी की लंबी-चौड़ी जरूरतें बताकर खारुन नदी में इंटेकवेल स्थापित कर दिया. अब भी बेंद्री और मुरेठी गांवों में कई निजी कंपनियों के इंटकवेल खारुन से पानी ले रहे हैं. इंटकवेल की वजह से नदी का पानी प्रदूषित हो गया है और ग्रामीण कई तरह की बीमारियों से ग्रसित हैं.

इंद्रावती जल विवाद

ओडिशा के कालाहांड़ी इलाके की नदी इंद्रावती बस्तर में भी बहती है. वर्ष 1978 में ओडिशा के नवरंगपुर जिले में इंद्रावती पर हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट बनना शुरू हुआ जो 23 साल में पूरा हुआ. इसके बाद ओडिशा के खातीगुड़ा और मुखीगुड़ा में भी डैम बना दिया गया जिसके चलते बस्तर में बहने वाली इंद्रावती नदी में पानी का बहाव कम हो गया.

जल विशेषज्ञों ने सर्वें में पाया कि इंद्रावती का पानी ओडिशा के जोरानाला में जा रहा है. लंबे समय तक चले विवाद के बाद केंद्रीय जल आयोग ने दोनों राज्यों को 50-50 फीसदी जल का उपयोग करने का निर्णय सुनाया. अब पानी के ठीक-ठाक बंटवारे के लिए जोरानाला पर एक कंट्रोल स्ट्रक्चर बनाया जा रहा है जिसका निर्माण अंतिम चरण पर है.

कन्हर और पोलावरम विवाद

उत्तर प्रदेश के ग्राम अमवार में कन्हर नदी में बनाए जा रहे सिंचाई बांध की वजह से भी विवाद की स्थिति कायम है. छत्तीसगढ़ का मानना है कि जो बांध बनाया जा रहा है उससे बलरामपुर-रामानुजगंज जिले के झारा, कुशफर, सेमरूवा और त्रिशूली सहित अन्य कई गांव डूबान क्षेत्र में आएंगे और हजारों परिवार विस्थापित होंगे.

इसी तरह तेलगांना के गोदावरी नदी पर बनने वाले पोलावरम बांध को लेकर छत्तीसगढ़ की आपत्ति राज्य की शबरी नदी के किनारे बनाए जा रहे 30 किलोमीटर लंबे तटबंध को लेकर हैं. तटबंध के बन जाने से बस्तर के कोंटा-सुकमा इलाके में डूबान की स्थिति बनेगी और आदिवासी परिवारों के विस्थापित होने की नौबत आ जाएगी.
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