Wednesday, December 31, 2014

भूमि अधिग्रहण क़ानून में क्या हुआ बदलाव? निखिल डे

भूमि अधिग्रहण क़ानून में क्या हुआ बदलाव? निखिल डे

  • 30 दिसंबर 2014
अरुण जेटली
नरेंद्र मोदी कैबिनेट ने सोमवार शाम को भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव पर अध्यादेश जारी किया है.
इसके तहत 2013 में भूमि अधिग्रहण क़ानून में बदलाव को मंज़ूरी दी गई है. इसमें और पुराने क़ानून में क्या-क्या अलग है मोटे तौर पर?

समाज पर असर वाले प्रावधान को ख़त्म किया गया है

भारत में 2013 क़ानून के पास होने तक भूमि अधिग्रहण का काम मुख्यत: 1894 में बने क़ानून के दायरे में होता था.
लेकिन मनमोहन सरकार ने मोटे तौर पर उसके तीन प्रावधानों में बदलाव कर दिए थे.
ये भूमि अधिग्रहण की सूरत में समाज पर इसके असर, लोगों की सहमति और मुआवज़े से संबंधित थे.
ये जबरन ज़मीन लिए जाने की स्थिति को रोकने में मददगार था.
सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की मदद से ये बात सामने आ सकती थी कि किसी क्षेत्र में सरकार के ज़रिये भूमि लिए जाने से समाज पर इसका क्या प्रभाव हो सकता है.
भूमि अधिग्रहण
ये इसलिए लागू किया गया था कि इससे ये बात सामने आ सकती थी कि इससे लोगों के ज़िंदगी और रहन-सहन पर क्या असर पड़ सकता है.
क्योंकि कई बार कई ऐसे लोग होते हैं जो ज़मीन के बड़े हिस्से के मालिक होते हैं लेकिन कई ऐसे होते हैं जिनके पास भूमि के छोटे टुकड़े मौजूद होते हैं.
सोशल इंपैक्ट असेसमेंट ये बात सामने ला सकता था कि पूरी अधिग्रहण प्रक्रिया का समाज पर क्या असर पड़ेगा.
इसके लिए आम सुनवाई की व्यवस्था पुराने क़ानून में थी.
सोमवार को मीडिया से बात करते हुए वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कुछ क्षेत्रों का नाम लेते हुए कहा कि इनमें सोशल इंपैक्ट असेसमेंट की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

लोगों की रज़ामंदी के मामले से छुटकारा

2013 के क़ानून में एक प्रावधान रखा गया था लोगों सहमति का.
भट्टा गांव
सरकार और निजी कंपनियों के साझा प्रोजेक्ट में प्रभावित ज़मीन मालिकों में से 80 फ़ीसद की सहमती ज़रूरी थी.
पूरे तौर पर सरकारी परियोजनाओं के लिए ये 70 प्रतिशत था.
नए क़ानून में इसे ख़त्म कर दिया गया है.
वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा है कि रक्षा, ग्रामीण बिजली, ग़रीबों के लिए घर और औद्योगिक कॉरीडोर जैसी परियोजनाओं में 80 फ़ीसद लोगों के सहमिति की आवश्यकता नहीं होगी.

नहीं बढ़ा मुआवज़ा

हालांकि संशोधन में मुआवज़े की दर को पहले जैसा ही रखा गया है.
(निखिल डे से बीबीसी संवाददाता फ़ैसल मोहम्मद अली की बातचीत पर आधारित)

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