Thursday, May 18, 2017

क्या 15-20 माओवादियों के मारे जाने का दावा ग़लत है? - बीबीसी - आलोक प्रकाश पुतुल

क्या 15-20 माओवादियों के मारे जाने का दावा ग़लत है?

  • 3 घंटे पहले
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छत्तीसगढ़ के बस्तर में केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल द्वारा पंद्रह से बीस माओवादियों के मारे जाने के दावे का माओवादियों ने खंडन किया है.
माओवादियों ने आरोप लगाया है कि सुरक्षाबल के जवानों ने कुछ गांवों में हमला किया और वहाँ रहने वाले आदिवासी ग्रामीणों के घरों में जमकर आगज़नी की है.
पुलिस का दावा है कि सुकमा ज़िले के चिंतलनार स्थित रायगुड़म में ख़ुद माओवादियों ने ही ग्रामीणों की कई झोपड़ियों में आग लगाई है. इस सिलसिले में पुलिस ने माओवादी छापामारों पर प्राथमिकी दर्ज भी कर ली है.
केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल यानी सीआरपीएफ़ ने दावा किया था कि सुकमा और बीजापुर में स्थानीय पुलिस के साथ मिलकर नक्सलियों के खिलाफ एक बड़ा ऑपरेशन चलाया गया है, जिसके दौरान उन्होंने 15 से 20 माओवादी छापामारों को मार गिराया है.
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सुरक्षा बलों ने इस अभियान को 'अबतक के सबसे बड़े आपरेशन' की संज्ञा दी थी जिसकी निगरानी गृह मंत्रालय के विशेष सुरक्षा सलाहकार के विजय कुमार और सीआरपीएफ के नवनियुक्त महानिदेशक खुद कर रहे थे.
अभियान के दौरान माओवादी छापामारों के साथ हुई मुठभेड़ में सीआरपीएफ का एक जवान भी मारा गया था, जबकि एक जवान गंभीर रूप से घायल हुआ था.

कोई शव नहीं मिला है

आपरेशन के फ़ौरन बाद बस्तर में सीआरपीएफ के आईजी देवेंद्र चौहान ने पत्रकारों से बातचीत में कहा था, "सुकमा की सीमा पर एक सघन नक्सल विरोधी अभियान चलाया गया जिसमें 350 के आसपास जवान और अधिकारी शामिल थे. सुरक्षा बलों ने लगातार दो दिनों तक माओवादियों से लोहा लिया. यानी 13 और 14 मई की रात दोनों तरफ से ख़ूब गोलियां चलीं. अभियान के दौरान सुरक्षा बलों ने करीब पंद्रह से बीस माओवादियों को मार गिराने में कामयाबी हासिल की है."
अभियान की कामियाबी का दावा करते हुए आला पुलिस अधिकारियों ने अपनी पीट खूब थपथपाई है. मगर दावों के बावजूद मुठभेड़ के बाद किसी भी माओवादी छापामार का शव बरामद नहीं हो पाया है. शव बरामद नहीं होने पर वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ख़ामोश हैं.
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दूसरी तरफ माओवादियों ने एक बयान जारी किया है जिसमे दावा किया गया है कि सुरक्षा बलों के 'ऑपरेशन' में उन्हें, यानी माओवादियों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है.
संगठन के प्रवक्ता विकास के अनुसार, "सीआरपीएफ़ का दावा पूरी तरह ग़लत है. हमारा कोई भी साथी नहीं मारा गया है. हक़ीकत ये है कि पुलिस ने 13 से 15 मई तक कई गांवों में हमला किया और लोगों को प्रताड़ित किया है."

दहशत फैलाने का आरोप

माओवादी प्रवक्ता का आरोप है कि सुकमा के चिंतलनार के इलाक़े के तीन गांवों में पुलिस ने गोलीबारी की. इसी इलाक़े के रायगुड़म गांव के 16 घरों में आग लगा दी, जिससे आदिवासियों का घर और उनका सारा सामान जल कर राख हो गया.
हालांकि आगजनी की इस घटना को लेकर सुकमा पुलिस ने माओवादियों पर ही आरोप लगाया है कि उन्होंने ही दहशत फैलाने के लिये घरों में आग लगाई है.
इस मामले में पुलिस ने दो सिपाहियों कोडयामी नंदा और माडवी जोगी की शिकायत पर माओवादियों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज़ की है.
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पिछले महीने की 24 तारीख़ को सुकमा के ही बुरकापाल इलाके में माओवादियों के हमले में सीआरपीएफ के 26 जवान मारे गये थे.
इससे पहले इसी इलाके में 11 मार्च को माओवादियों ने सीआरपीएफ की 219वीं बटालियन पर भी हमला किया था जिसमे 12 जवान मारे गए थे.
इन हमलों के बाद सीआरपीएफ़ ने आरोप लगाया था कि स्थानीय पुलिस सहयोग नहीं कर रही है. इस आरोप के बाद एक उच्च स्तरीय बैठक में साझा ऑपरेशन चलाए जाने की बात कही गई थी.
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तबसे सुरक्षाबल और स्थानीय पुलिस माओवादियों के ख़िलाफ़ लगातार ऑपरेशन चला रहे हैं और बड़ी संख्या में संदिग्ध माओवादियों द्वारा आत्मसमर्पण की ख़बरें भी सामने आई हैं.

पुलिस ने कुछ माओवादियों को गिरफ़्तार भी करने का दावा किया है. अभिनेताओं ने छत्तीसगढ़ में बलात्कार पीड़ित आदिवासी महिलाओं के दर्द को महसूस किया है?


अक्षय कुमार और विवेक ओबरॉय छत्तीसगढ़ में मृतक सैनिकों के परिवारों की मदद के लिए आगे आए हैं, उम्मीद है कि वे वहां की आदिवासी महिलाओं से होने वाली ज़्यादती से भी वाकिफ़ होंगे.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)
सुकमा में उग्रवादी हमले में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों के आश्रितों का ग़म पिछले दिनों एक और सेलेब्रिटी की चिंता का सबब बना.
एक ट्वीट के ज़रिये बाॅलीवुड अभिनेता विवेक ओबराॅय ने बताया कि मारे गए सीआरपीएफ के 25 जवानों के आश्रितों को उन्होंने ठाणे जिले में फ्लैट देने का निर्णय लिया है. ये फ्लैट उनकी अपनी फर्म इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी द्वारा बनाए जाने वाले आवासीय योजना में से दिए जानेे वाले हैं.
गौरतलब था कि मीडिया के नज़रों से लगभग ओझल हो चुके विवेक इस ऐलान के बाद अचानक प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों में सुर्खियां बनें.
इन आश्रितों को लेकर इस ऐलान ने कुछ समय पहले पिछले दिनों राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में रजत कमल से नवाज़े गए अक्षय कुमार के उस ऐलान की याद ताज़ा कर दी जिसमें उन्होंने इन परिवारों के लिए चंद लाख रुपये देने की घोषणा की थी.
अख़बार में यह बात भी प्रकाशित हुई थी कि उनके इस क़दम से उनकी जेब से एक करोड़ रुपये से अधिक की रकम खाली हो जाएगी. यह वही समय था जब वह ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के लिए मध्य प्रदेश के एक सुदूर इलाके में टॉयलेट खोदते नज़र आए थे और बाद में पता चला कि इसी थीम पर केंद्रित उनकी एक फिल्म भी आने वाली है जिसका शीर्षक है ‘टॉयलेट – एक प्रेम कथा.’
मुसीबत में पड़े लोगों की मदद करने जैसे मानवीय क़दम के लिए कोई कुछ करे तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है? किसी के परिवार का सहारा छिन जाए, ऐसे व्यक्ति/व्यक्तियों के लिए मदद के हाथ जितने भी उठें, वह आज के ज़माने में कम है.
बहरहाल, बॉलीवुड के इन दोनों सितारों के इस बेहद मानवीय कदम में एक दिलचस्प समानता दिखती है, उन्होंने केंद्रीय आरक्षी पुलिस बल के मृतक सैनिकों के परिवारों की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाया है, जबकि वह इस बात से वाकिफ़ होंगे कि वहां आदिवासियों की विशाल आबादी भी रहती है और उसके साथ हो रही ज़्यादतियों का मसला ख़ुद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रडार पर रहता है.
Akshay Kumar Vivek Oberoi
अक्षय कुमार और विवेक ओबरॉय
आदिवासियों के साथ हो रही ज़्यादतियों को लेकर, आदिवासी युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाओं को लेकर या फर्ज़ी मुठभेड़ों को लेकर उसकी रिपोर्टें आती रहती हैं.
याद रहे पिछले दिनों ख़ुद वहां की एक जेल अधिकारी वर्षा डोंगरे ने इस बात की ताईद अपने फेसबुक पोस्ट से की कि किस तरह पुलिस थानों में आदिवासी किशोरियों को प्रताड़ित किया जाता है.
यह सोचने का सवाल है कि आख़िर इन दोनों अभिनेताओं के सरोकार की सीमाएं सीआरपीएफ सैनिकों के परिवारों तक ही कैसे सीमित रह गईं. क्या उन्हें उन आदिवासी युवतियों का क्रंदन नहीं सुनाई दिया, जिसके बारे में ख़ुद मानवाधिकार आयोग ने लिखा है.
मिसाल के तौर पर जनवरी माह में यह ख़बर आई थी कि किस तरह आयोग ने पाया कि 16 आदिवासी महिलाएं राज्य की पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार, यौनिक और शारीरिक हिंसा की शिकार हुई हैं जिसके लिए उसने राज्य सरकार को ज़िम्मेदार माना.
ये महिलाएं बस्तर के बीजापुर ज़िले के पांच गांवों- पेगडापल्ली, चिन्नागेलूर, पेडडागेल्लूर, गुंडम और बुर्गीचेरू- की रहने वाली थीं.
मालूम हो कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस संबंध में इंडियन एक्सप्रेस में 15 नवंबर 2015 को प्रकाशित रिपोर्ट को आधार बनाकर भाजपा शासित इस राज्य के मुख्य सचिव को सख़्त नोटिस भेजा था और उससे पूछा था कि उन्होंने इस मामले में कथित तौर पर दोषी पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई क्यों नहीं की?
आयोग का कहना था कि बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या इससे ज़्यादा है और वह बाकी पीड़िताओं के बयान ले नहीं सका है.
विडंबना ही कही जाएगी कि व्यापक सामाजिक मसलों पर चुप्पी बनाए रखना बाॅलीवुड के अधिकतर नायक-नायिकाओं की पहचान बन गया है. अधिकतर लोग वैसी ही बात बोलना पसंद करते हैं जो हुक़ूमत को पसंद हो.
क्या यह कहना मुनासिब होगा कि उन्हें यह डर सताता रहता है कि ऐसी कोई बात बोलेंगे जो हुक़ूमत को नागवार गुज़रती हो, तो वह उनके करिअर को बाधित कर सकती है, कोई न कोई बहाना बनाकर उनकी फिल्मों के प्रसारण को बाधित कर सकती है.
ऐसा नहीं कि वह मुंह में ज़बान नहीं रखते है. वह बोलते हैं, मगर इसे विचित्र संयोग कहा जा सकता है कि ऐसे तमाम अग्रणी सितारों की राय आम तौर पर सत्ता पक्ष की राय से मेल खाती है.
वह उन्हीं चीज़ों के बारे में स्टैंड लेते हैं जिनके बारे में सभी जानते हैं- उदाहरण के लिए स्वच्छता के लिए या नारी सशक्तिकरण आदि के लिए. एक तरह से देखें तो बॉलीवुड के अधिकतर हीरो ‘रील हीरो’ तक ही अपने आप को सीमित रखते हैं, उन्होंने कभी रियल हीरो बनने की कोशिशें भी नहीं की है.
इस संदर्भ में हम बरबस 2002 को याद कर सकते हैं, जब मौजूदा प्रधानमंत्री- जो उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर पुनर्निर्वाचित हुए थे.
उनके शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए बाॅलीवुड सितारों का अच्छा ख़ासा कुनबा संभवतः चार्टर्ड विमान से पहुंचा था, जबकि कुछ माह पहले ही सूबा गुजरात सांप्रदायिक दंगों की रणभूमि बना हुआ था, जब तमाम निरपराध भारतीय नागरिक मारे गए थे, अरबों की संपत्ति स्वाहा हुई थी.
गिने-चुने अपवादों को छोड़ दें तो उस वक्त़ इन सभी सितारों ने अपने होठ सिल लिए थे, गोया कुछ हुआ ही न हो. देश और विदेश के मानवाधिकार संगठनों ने- जिनमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी शामिल था- वहां की प्रायोजित हिंसा के अलग-अलग पहलुओं को लेकर 45 से अधिक रिपोर्ट जारी की थीं.
सदी के महानायक कहे जाने वाले अमिताभ बच्चन को देखें, जो सिनेमा की अपनी दूसरी पारी में भी अपने सुपरस्टार होने की छाप छोड़ते रहते हैं. लोगों को याद होगा कि चिकने चुपड़े नायकों की बहुतायत वाले ज़माने में पदार्पण किए अमिताभ पहले ऐसे नायक थे, जो दिखने में ख़ास नहीं थे.
अभिनय के क्षेत्र में नई ज़मीन तोड़ने वाले अमिताभ बाकी सभी मामलों में बिल्कुल लीक पर चलते दिखे हैं. व्यापक राजनीतिक सामाजिक घटनाओं पर चुप्पी तोड़ना तो दूर अपने निजी जीवन में भी वह उसी लीक पर चलते दिखे हैं, जिस पर आम आदमी चलता है.
अभिषेक बच्चन की शादी के पहले जिन रस्मों को उन्होंने अंजाम दिया, जिसके बारे में यही कहा गया था कि वह अपनी होने वाली बहू की जन्मपत्री में जो ‘मंगल दोष’ था उसका निवारण कर रहे हैं.
और जब गुजरात के संगठित हिंसाचार को लेकर सिविल सोसायटी का विशाल हिस्सा उद्धिग्न था, उन दिनों उन्होंने इसी राज्य की एक प्रचार फिल्म में बखूबी काम किया जिसमें वह ‘गुजरात की खुशबू’ की मार्केटिंग करते नज़र आ रहे थे.
और जब उन्हें याद दिलाया गया तो उन्होंने यह कहकर संतोष कर लिया कि इस विज्ञापन फिल्म में वह गुजरात सरकार की नहीं अलबत्ता पर्यटन विभाग की मार्केटिंग कर रहे हैं.
यथास्थिति को लेकर बाॅलीवुड के सितारों के अजीब सम्मोहन को लेकर देश के एक अग्रणी अख़बार में कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित लेख की बात आज भी मौजूं जान पड़ती है. ‘अ स्टार्स रिअल स्ट्राइप्स’ शीर्षक के अपने लेख में (टाइम्स आॅफ इंडिया, मार्च 25, 2012) अर्चना खरे ने पूछा था…
‘बॉलीवुड हमेशा हॉलीवुड से प्रभावित दिखता है, निजी शैलियों से लेकर फिल्म की स्क्रिप्टस तक सभी में उसकी नकल उतारता है, फिर ऐसी क्या बात है जो हमारे यहां के कलाकारों को स्टेट्समैन और अगुआ बनने से रोकती है जो मंच पर खड़े होकर सांप्रदायिक हिंसा का विरोध करे, गरीबी, जातिप्रथा, भ्रष्टाचार के विरोध में आवाज़ बुलंद करे.’
बाॅलीवुड के बरअक्स हाॅलीवुड का नज़ारा दिखता है. कुछ साल पहले हॉलीवुड के सबसे चर्चित नायकों में से एक जॉर्ज क्लूनी की एक तस्वीर दुनिया भर के अख़बारों में प्रकाशित हुई थी, जिसमें उन्हें हथकड़ी डाले दिखाया गया था.
गौरतलब था कि यह किसी फिल्म की शूटिंग का दृश्य नहीं था, वह ख़ुद सूडान दूतावास के सामने गिरफ्तार हुए थे, जब वह वाॅशिंगटन स्थित सूडान के दूतावास के सामने कई दूसरे लोगों के साथ प्रदर्शन करने पहुंचे थे.
याद रहे कि यह वह समय था जब जॉर्ज क्लूनी सूडान की मानवीय त्रासदी, वहां भुखमरी की बदतर होती स्थिति के बारे में बोलते रहे थे. मगर किसी मसले पर स्टैंड लेकर खड़े होने वालों में क्लूनी अकेले नहीं रहे हैं.
वहां के कई बड़े कलाकार तानाशाहों के विरोध में, मुद्दों को रेखांकित करने में, ज़रूरतमंदों को मदद करने में समय-समय पर आगे आते रहते हैं.
सीन पेन जैसे कलाकार तो युद्धभूमि से रिपोर्ट भेजने से पीछे नहीं हटे हैं. हैती के भूकंप पीड़ितों के राहत शिविरों में बोझ उठाए सीन पेन की तस्वीर छपी थी, इतना ही नहीं न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित उनका 4,000 शब्दों का आलेख भी चर्चित हुआ था.
इसमें उन्होंने लिखा था, ‘जिस झंडे ने मुझे इतना प्यार, सम्मान दिया है वह हमारे सिद्धांतों, हमारे संविधान के ख़िलाफ़ हत्या, द्रोह और लालच का प्रतीक बनकर रह गया है.’
निश्चित ही इस आपाधापी में अचानक कुछ ऐसे नाम भी चमक जाते हैं जो अभिव्यक्ति के तमाम ख़तरों को उठाते हुए खरी-खरी बात बोलते दिखते हैं. उदाहरण के लिए गोरेपन को निखारने का या काले रंग को गोरापन प्रदान करने वाली क्रीमों को लेकर अभय देयोल का बयान था, जो किसी भी सूरत में अमूर्त नहीं था.
बयान में उन्होंने बाॅलीवुड की अग्रणी शख़्सियतों को इस बात के लिए बेपर्दा भी किया कि किस तरह वह विज्ञापनों के नाम पर ऐसे कामों में मुब्तिला रहते हैं. मगर वह किस्सा विस्तार से फिर कभी.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)

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