Friday, May 15, 2015

किसानों को चाहिए सुरक्षा कवच -बी के चतुर्वेदी

किसानों को चाहिए सुरक्षा कवच -बी के चतुर्वेदी

Farmer's need security cover

विकट कृषि संकट के चलते किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। ऐसे में हमें इस समस्या पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। किसानों के लिए किसी भी तरह के सुरक्षा तंत्र की रूपरेखा उनकी जरूरतों और समस्याओं की समझ पर आधारित होनी चाहिए। ऐसे किसी तंत्र के लिए विभिन्न पहलुओं पर गौर करना जरूरी है। इसमें से पहला यह कि छोटी जोत की खेती के लिए बड़े पैमाने पर निवेश की जरूरत होती है, जो आधुनिक खेती को अलाभप्रद बनाती है। कृषि जनगणना 2010-11 के मुताबिक, 85 फीसदी खेतों का आकार दो हेक्टेयर से कम है। खेतों का औसत आकार 1.16 हेक्टेयर है और इसमें 1970-71 के 2.82 हेक्टेयर आकार से लगातार कमी आ रही है। इनसे जो आमदनी होती है, वह किसान परिवारों की जरूरतों के लिहाज से पर्याप्त नहीं है।

दूसरी बात, हमारे देश में 54 फीसदी कृषि भूमि असिंचित है, जो ज्यादा है। असिंचित क्षेत्रों में खेती वर्षा पर निर्भर होती है। इनमें कृषि आय बेहद कम और अप्रत्याशित होती है। नतीजतन बहुत से ऐसे किसान दुग्ध उत्पादन, मत्स्यपालन, मुर्गीपालन से अपने परिवार की जरूरतें पूरी करते हैं। परिवार के कई सदस्य पूरक आय के लिए ग्रामीण मजदूर के रूप में भी काम करते हैं। लेकिन ऐसे रोजगार हमेशा उपलब्ध नहीं होते। इसलिए अक्सर ऐसे किसान भारी वित्तीय और मानसिक तनाव में रहते हैं।

तीसरी बात, छोटी जोत वाले किसान अपने परिवार की कुल आय बढ़ाने के लिए अक्सर अपनी खेती के ज्यादातर हिस्से में कपास, खासतौर से बीटी कपास, मूंगफली, तिलहन, कॉफी, मसाले, आलू, गन्ना और तंबाकू जैसी नकदी फसलों की खेती करते हैं। पिछले कुछ वर्षों में ऐसी फसलों की हिस्सेदारी बढ़ी है। अगर इन फसलों की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में कीमतें गिरने से या घरेलू स्तर पर काफी उत्पादन के कारण घटती है या कम वर्षा या कीट या अन्य कारणों से उत्पादन में कमी होती है, तो किसानों की आय में तेजी से गिरावट आती है। बड़े किसान तो किसी तरह ऐसी स्थितियों से निपट लेते हैं, लेकिन छोटे और सीमांत किसान कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं होते और वे बुरी तरह प्रभावित होते हैं। यह हमेशा बड़े संकट का कारण बनता है।

चौथी बात, किसान अपनी जरूरतों के लिए बैंकों, सहकारी समितियों और साहूकारों से कर्ज लेते हैं। उपलब्ध आंकड़े के मुताबिक, मात्र 45 फीसदी कर्ज ही बैंकों या सहकारी समितियों से लिए जाते हैं, बाकी कर्ज साहूकारों से लिए जाते हैं। साहूकार भारी ब्याज पर कर्ज देते हैं।

अगर किसानों की आत्महत्या का निदान ढूंढना है, तो उपर्युक्त समस्याओं का अल्पकालीन से लेकर दीर्घकालीन समाधान ढूंढना होगा। दीर्घकालीन बदलाव के लिए अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव की जरूरत है, जिसमें कृषि में निवेश बढ़ाकर उत्पादकता बढ़ाने पर जोर देना होगा। हमें कृषि कार्यों से जुड़े एक तिहाई से लेकर आधे परिवारों को सेवा एवं उद्योग क्षेत्र में रोजगार देना होगा। अभी करीब 55 फीसदी आबादी कृषि पर निर्भर है, जिसका जीडीपी में योगदान मात्र 18 फीसदी (केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन का नया आंकड़ा) है, जो टिकाऊ नहीं है। कृषि पर कम परिवारों की निर्भरता और उच्च कृषि उत्पादकता न केवल किसानों की आय बढ़ाएगी, बल्कि उनके तनाव भी कम करेगी।

कृषि क्षेत्र की चुनौतियों से प्रभावी तरीके से निपटने के लिए किसानों को तुरंत सुरक्षा तंत्र देने की जरूरत है। इसके तहत दो तरह की पहल की जानी चाहिए। पहला, एक ग्रामीण निगरानी इकाई स्थापित की जानी चाहिए, जो गंभीर संकट में फंसे किसानों की पहचान कर उन्हें वित्तीय सहायता उपलब्ध कराए। इससे उन्हें कर्ज का ब्याज चुकाने और अन्य जरूरतें पूरी करने में मदद मिलेगी। इसका उद्देश्य कृषि में लगातार निवेश सुनिश्चित करना होना चाहिए।

दूसरा, मौसम आधारित फसल बीमा योजना पेश करनी चाहिए। मौजूदा राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना मात्र 15 फीसदी किसानों को बीमा सुरक्षा देती है, जिसका औसत बीमा पांच से छह हजार रुपये है और इसका मुख्य लाभ ऋण देने वाली संस्थाओं को कर्ज वापस लेने में होता है। यह किसानों को पर्याप्त सुरक्षा नहीं दे पाता।

मौसम आधारित फसल बीमा योजना तीन चरणों में हो सकती है। पहला बुवाई, दूसरा फसलों के विकास और तीसरा फसलों के पकने के समय। इसमें हर स्तर पर तकनीकी रूप से वर्षा और तापमान का मानदंड निर्धारित किया जा सकता है। अगर वर्षा कम होती है, तो हर हेक्टेयर के लिए किसानों के खाते में सीधे भुगतान हस्तांतरित किया जाना चाहिए। देश भर में वर्षा मापने के लिए पहले से ही गेज उपलब्ध हैं। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार पर बाजार मूल्य के हिसाब से बीमा का भुगतान किया जा सकता है। इस आधार पर प्रति हेक्टेयर के लिए बीस से तीस हजार रुपये तक की बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराई जा सकती है। पायलट प्रोजेक्ट के तहत ऐसी योजना पहले ही आंध्र प्रदेश में शुरू की गई है। केंद्र सरकार, बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण तथा बीमा कंपनियों को मिलकर इसके लिए मॉडल स्कीम बनाने की जरूरत है। अमेरिका, जापान, स्पेन, फिलीपींस की सरकारें 60 से 80 फीसदी प्रीमियम राशि देती हैं। जो बैंक कर्ज देता है, वह भी प्रीमियम का कुछ हिस्सा देता है। उपर्युक्त स्कीम के तहत हर तरह के मामलों में प्रीमियम पर केंद्र सरकार द्वारा करीब 70 फीसदी तक सब्सिडी देने की जरूरत होगी। हाल ही में वित्त आयोग द्वारा राज्य सरकारों को राजस्व में ज्यादा हिस्सेदारी के फैसले से 20 से 25 फीसदी प्रीमियम देना संभव होना चाहिए।

असल में किसानों की मुश्किलों को कम करने के लिए तुरंत उपाय करने की जरूरत है। ऊपर सुझाए गए नीतिगत उपायों से ज्यादा किसानों को बीमा लाभ मिलेगा। अर्थव्यवस्था में ढांचागत बदलाव की जरूरत है, ताकि किसानों की आय बढ़ सके

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