बड़े चले थे जमीन हड़पने...
स्पष्ट बहुमत होने के बाद भी केंद्र की बीजेपी सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक और जीएसटी विधेयक पर अपनी मनमानी नहीं कर पाई और इन दोनों विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति के पास भेजना पड़ा है। अब इन विधेयकों को संसद के मॉनसून सत्र में पेश किए जाने की बात कही जा रही है, परंतु चक्रव्यूह का विश्लेषण कहता है कि मॉनसून सत्र में भी इन विधेयकों के आने की संभावना क्षीण है। इसके तीन मुख्य कारण हैं- पहला, बिहार विधानसभा का चुनाव और दूसरा, जयललिता द्वारा जीएसटी विधेयक का विरोध, तीसरी वजह है शिवसेना जैसे सहयोगी दल का भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में मुखर होना। यह तीनों ऐसे खतरे हैं जो केंद्र की बीजेपी सरकार को कभी भी वेंटिलेटर पर ले जा सकते हैं।
संसद के मॉनसून सत्र के ठीक बाद बिहार विधानसभा की सरगर्मी शुरू हो जाएगी और यह चुनाव ‘मोदी लहर’ की अग्नि परीक्षा होगी। मोदी सरकार पहले ही किसान विरोधी सरकार के ठप्पे के साथ जी रही है। ऐसे में अगर सरकार ने मॉनसून अधिवेशन में भूमि अधिग्रहण विधेयक पास कराने के लिए दबाव बनाया तो यह ठप्पा बिहार के चुनाव में उसे भारी पड़ सकता है। खासकर तब, जब सारा विपक्ष एकजुट होकर बिहार में मोदी को घेरने की रणनीति बनाए बैठा है। लिहाजा चक्रव्यूह का विश्लेषण कहता है कि बिहार चुनाव के नतीजे आने तक सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर खामोश ही रहना पसंद करेगी।
बिहार के नतीजों के बाद महाराष्ट्र में भी राजनीति की चौसर बदल सकती है। अगर इसके नतीजे बीजेपी के खिलाफ गए तो शिवसेना और आक्रामक होगी। उसके पास आक्रामक होने के लिए दो मुद्दे हैं। पहला है कोंकण में बन रही जैतापुर परमाणु परियोजना का विरोध, जिसका बीजेपी समर्थन कर रही है और मोदी अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान इस बारे में डील करके आए हैं। दूसरा मुद्दा होगा अखंड महाराष्ट्र का समर्थन और अलग विदर्भ का विरोध।
इन दोनों मुद्दों पर आक्रामक होकर शिवसेना 2017 में होने वाले मुंबई महानगर पालिका चुनाव के लिए बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाएगी। मुंबई मनपा देश की सबसे बड़ी महानगर पालिका है। इसका सालाना बजट तकरीबन 37 हजार करोड़ रुपये का है। इस पर 90 के दशक से शिवसेना का कब्जा है। मुंबई मनपा की सत्ता को ही शिवसेना की ‘लाइफ लाइन’ कहा जाने लगा है। मोदी लहर के कारण विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद बीजेपी की मंशा यहां भी सत्ता कब्जाने की है। शिवसेना का कैडर इस बात को भलीभांति समझ रहा है। इसलिए वह राज्य में बीजेपी के साथ सत्ता में रहते हुए भी उसके खिलाफ अपने तेवर आक्रामक बनाए हुए है।
जैतापुर में परमाणु परियोजना का विरोध भी शिवसेना इसलिए कर रही है कि कोकणी मतदाता पारंपरिक रूप से शिवसेना समर्थक माना जाता रहा है। दूसरा मुद्दा है अखंड महाराष्ट्र का। अलग विदर्भ का विरोध कर शिवसेना आम मराठी मतदाता की ‘मराठी अस्मिता’ को टच करने की कोशिश कर रही है और बीजेपी अलग विदर्भ का समर्थन कर रही है। ऐसे में बिहार चुनाव के नतीजे महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी के रिश्तों पर व्यापक असर डालेंगे।
अब बात जीएसटी की और जयललिता की। जयललिता जीएसटी के खिलाफ हैं और अब वे जेल से बाहर हैं। कर्नाटक हाईकोर्ट ने उन्हें करप्शन के आरोप से बेगुनाह करार देकर सहानुभूति बटोरने का मौका दे दिया है। इसका फायदा उठाने से वे क्यों चूकेंगी! तमिलनाडु विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने में एक साल बाकी है। मगर अन्नाद्रमुक चाहेगी कि चुनाव उससे पहले ही करा लिए जाएं, क्योंकि द्रमुक का सामना करने के लिए जीएसटी का विरोध कर तमिलनाडु के आर्थिक हितों की रक्षक बनकर चुनाव लड़ना उनके लिए फायदेमंद होगा।
अटल बिहारी सरकार के कार्यकाल में बीजेपी जया, ममता और माया की तिकड़ी का शिकार बन चुकी है। इस बार भी हालात वैसे ही हो सकते हैं। पश्चिम बंगाल में भी 11 महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं। हाल में स्थानीय निकाय चुनाव में ममता को मिली शानदार जीत के बाद विधानसभा नतीजों की संभावित तस्वीर बीजेपी के लिए ज्यादा अच्छी नहीं कही जा सकती। ममता भी भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरोध में हैं। ऐसे में बीजेपी के लिए समझदारी इसी में है कि अब वह भूमि अधिग्रहण विधेयक को समिति के पास ही पड़ा रहने दे।
शार्प व्यूह
महाभारत में तो एक ही चक्रव्यूह रचा गया था जिसकी चर्चा आज तक हो रही है, लेकिन भरतीय राजनीति में, खासकर संसदीय राजनीति में रोज न जाने कितने चक्रव्यूह रचे जाते हैं। ऐसे-ऐसे चक्रव्यूह जिन्हें समझते-बूझते हुए सिर चकरा जाता है। अगर कोई मुझसे कहे कि भारतीय संसदीय राजनीति की व्याख्या करो तो मेरा जवाब होगा कि ‘भारतीय संसदीय राजनीति एक ऐसी व्यवस्था है जो डिब्बे के अंदर डिब्बे वाली व्यवस्था को प्रतिबिंबित करती है। एक तरह से यह व्यवस्था शासनतंत्र के निरंकुश होने की सभी संभावनाओं को भी प्रतिबंधित करती है।’
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