इस विकास में नौकरियां कहां
आर्थिक विकास की दौड़ में चीन की सुस्त होती अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ने के बावजूद जब बात रोजगार सृजन की आती है, तो भारत की रफ्तार धीमी होती दिखती है। लेबर ब्यूरो का एक सर्वे बताता है कि 2014-15 की तीसरी तिमाही में रोजगार वृद्धि में गिरावट आई है। 2014 की अक्तूबर-दिसंबर तिमाही के दौरान अर्थव्यवस्था के आठ प्रमुख क्षेत्रों में महज 1.17 लाख नौकरियां सृजित की जा सकीं। गौरतलब है कि वर्ष 2014 की पहली तीन तिमाहियों में रोजगार वृद्धि में लगातार कमी आई। अप्रैल से जून के दौरान जहां 1.82 लाख नौकरियां पैदा हुई थीं, वहीं जुलाई से सितंबर की तिमाही में यह आंकड़ा गिरकर 1.58 लाख, और फिर अक्तूबर से दिसंबर के दौरान 1.17 लाख रह गया। इस तरह, 2014-15 की पहली तीन तिमाहियों में कुल 4.57 लाख नौकरियां पैदा हुईं। अगर इस दर से 2014 की पहली तिमाही के लिए रोजगार सृजन का सबसे ऊंचा आंकड़ा लें, तो जनवरी से मार्च, 2015 की चौथी तिमाही में नौकरियों के 5.40 लाख तक ही पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। मगर भारत को हर वर्ष तकरीबन 1.2 करोड़ नौकरियां पैदा करने की जरूरत है, ताकि हर वर्ष रोजगार के बाजार में प्रवेश करने वाले श्रम बल की जरूरतें पूरी की जा सकें। इनमें से ज्यादातर नौकरियां सुरक्षा गार्डों और लिफ्ट संचालकों की निचली श्रेणी की हैं। अगर इसी तरह की नौकरियां पैदा की जानी हैं, तो देश के लिए यह सोचने का बिल्कुल उपयुक्त समय है कि आखिर 'रोजगार सृजन' का मतलब क्या है।
दिलचस्प बात यह है कि देश में रोजगार क्षेत्र का निराशाजनक परिदृश्य उस वक्त दिख रहा है, जब वित्त वर्ष 2014-15 के लिए आर्थिक विकास की संशोधित ऊंची दर दिखाई जा रही है। सरकार ने 2014-15 के लिए आर्थिक विकास की दर 7.4 प्रतिशत बताई है।
उच्च आर्थिक विकास दर के समय में नौकरियों की संख्या में गिरावट उस अकादमिक मान्यता के खिलाफ है, जिसके तहत माना जाता है कि विकास दर जितनी ज्यादा होगी, नौकरियां भी उतनी ही ज्यादा होंगी। जरा उस समय को याद कीजिए, जब 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे। 2004 और 2009 के बीच देश की जीडीपी विकास दर आठ प्रतिशत से ज्यादा रही, और इसने 9.3 प्रतिशत का उच्चतम स्तर भी छुआ। सामान्य आर्थिक समझ कहती है कि अगर विकास दर ऊंची है, तो ज्यादा नौकरियां पैदा होनी चाहिए। मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके उलट, जब देश की जीडीपी विकास दर सरपट दौड़ रही थी, तब भारत में 'रोजगारविहीन विकास' जैसी स्थिति थी। योजना आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक, 2005-09 के बीच 14 करोड़ लोगों ने खेती से मुंह मोड़ा। सोचा जा रहा था कि कृषि क्षेत्र को छोड़ने वाले विनिर्माण क्षेत्र की ओर जाएंगे, मगर विनिर्माण क्षेत्र में भी 5.3 करोड़ नौकरियों की कमी आई।
ऐसे में, सवाल उठता है कि खेती छोड़ने वाले 14 करोड़ और विनिर्माण क्षेत्र का त्याग करने वाले 5.3 करोड़ लोग आखिर गए कहां? इसका एक ही जवाब मुमकिन दिखता है कि ये लोग या तो शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन गए, या फिर दूसरों के खेतों में काम करने वाले कृषि श्रमिक। 2004-05 के बीच दस वर्ष के समय में उद्योगों को करीब 42 लाख करोड़ रुपयों की कर-राहत दी गई। ऐसा करने के पीछे मंशा थी कि इससे विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार होगा, औद्योगिक उत्पादन और निर्यात बढ़ेगा, जिससे नौकरियां पैदा होंगी। मगर सच यह है कि पिछले दस वर्षों में रोजगार की तलाश कर रहे 12 करोड़ लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए केवल 1.5 करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ। इससे यह धारणा गलत साबित होती है कि अकेला उद्योग क्षेत्र नौकरियां उत्पन्न करने के लिए काफी होगा। इसके अलावा, ऐसे समय में जब पूरी दुनिया ऑटोमेटिक और रोजगारविहीन विकास की गवाह बनी हुई है, तब किसी नए उद्योग से नौकरियां पैदा करने की उम्मीद करना व्यर्थ मालूम होता है।
हाल ही में, क्रिसिल (सीआरआईएसआईएल) ने अपने अध्ययन में बताया कि 2007 के बाद से 3.7 करोड़ से ज्यादा भारतीय किसानों ने खेती छोड़कर शहरों का रुख किया। मगर 2012 से 2014 के बीच, जब आर्थिक विकास की दर धीमी बनी हुई थी, तकरीबन 1.5 करोड़ लोग कहीं रोजगार न पाकर अपने गांवों की ओर लौटे। इससे साफ है कि आज बड़ी तादाद में लोग शहरों और गांवों में दिहाड़ी मजदूर बनते जा रहे हैं। अब समय आ गया है कि आर्थिक विकास के एक ऐसे मॉडल के बारे में विचार किया जाए, जिसके जरिये रोजगार सुरक्षा के नजरिये से एक बेहतर माहौल बनाया जा सके। अपने चारों ओर यह देखकर मैं चकित रह जाता हूं कि औपचारिक क्षेत्र के लाखों पद खाली पड़े हैं। इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में रिक्तियां हर महीने बढ़ रही हैं। चाहे सरकारी क्षेत्र के संस्थान हों या निजी क्षेत्र के, सभी इस बीमारी से पीड़ित हैं। लोग सेवानिवृत्त तो हो रहे हैं, मगर उनकी जगह नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। तकरीबन सभी विश्वविद्यालयों और सरकारी कॉलेजों में 40 से 60 फीसदी से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। एक मोटे अनुमान की मानें, तो प्राइमरी और सेकंडरी स्कूलों में पांच लाख से ज्यादा पद खाली हैं। ऐसा ही हाल अस्पताल, पुलिस, डाक विभाग और दूसरे सरकारी संस्थानों का है।
यह समझने की जरूरत है कि लोगों को खेती से अलग कर शहरों में सस्ते दिहाड़ी मजदूर बना देना रोजगार सृजन नहीं है। चुनौती तो यह होनी चाहिए कि जो लोग खेती कर रहे हैं, उन्हें उसका भरपूर फायदा मिले। किसानों को खेती से अलग कर उन्हें आधारभूत संरचना वाले उद्योगों की सस्ते श्रम की जरूरत पूरी करने का साधन बना देना अच्छी बात नहीं है। अभी मनरेगा का बजट कृषि के बजट से अधिक है। इसका मतलब यही है कि कृषि को आर्थिक रूप से घाटे का सौदा बनाने की हरसंभव कोशिशें हो रही हैं, ताकि किसान खेती छोड़कर शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन जाएं।
दिलचस्प बात यह है कि देश में रोजगार क्षेत्र का निराशाजनक परिदृश्य उस वक्त दिख रहा है, जब वित्त वर्ष 2014-15 के लिए आर्थिक विकास की संशोधित ऊंची दर दिखाई जा रही है। सरकार ने 2014-15 के लिए आर्थिक विकास की दर 7.4 प्रतिशत बताई है।
उच्च आर्थिक विकास दर के समय में नौकरियों की संख्या में गिरावट उस अकादमिक मान्यता के खिलाफ है, जिसके तहत माना जाता है कि विकास दर जितनी ज्यादा होगी, नौकरियां भी उतनी ही ज्यादा होंगी। जरा उस समय को याद कीजिए, जब 2004 में डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे। 2004 और 2009 के बीच देश की जीडीपी विकास दर आठ प्रतिशत से ज्यादा रही, और इसने 9.3 प्रतिशत का उच्चतम स्तर भी छुआ। सामान्य आर्थिक समझ कहती है कि अगर विकास दर ऊंची है, तो ज्यादा नौकरियां पैदा होनी चाहिए। मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके उलट, जब देश की जीडीपी विकास दर सरपट दौड़ रही थी, तब भारत में 'रोजगारविहीन विकास' जैसी स्थिति थी। योजना आयोग के एक अध्ययन के मुताबिक, 2005-09 के बीच 14 करोड़ लोगों ने खेती से मुंह मोड़ा। सोचा जा रहा था कि कृषि क्षेत्र को छोड़ने वाले विनिर्माण क्षेत्र की ओर जाएंगे, मगर विनिर्माण क्षेत्र में भी 5.3 करोड़ नौकरियों की कमी आई।
ऐसे में, सवाल उठता है कि खेती छोड़ने वाले 14 करोड़ और विनिर्माण क्षेत्र का त्याग करने वाले 5.3 करोड़ लोग आखिर गए कहां? इसका एक ही जवाब मुमकिन दिखता है कि ये लोग या तो शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन गए, या फिर दूसरों के खेतों में काम करने वाले कृषि श्रमिक। 2004-05 के बीच दस वर्ष के समय में उद्योगों को करीब 42 लाख करोड़ रुपयों की कर-राहत दी गई। ऐसा करने के पीछे मंशा थी कि इससे विनिर्माण क्षेत्र का विस्तार होगा, औद्योगिक उत्पादन और निर्यात बढ़ेगा, जिससे नौकरियां पैदा होंगी। मगर सच यह है कि पिछले दस वर्षों में रोजगार की तलाश कर रहे 12 करोड़ लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए केवल 1.5 करोड़ नौकरियों का सृजन हुआ। इससे यह धारणा गलत साबित होती है कि अकेला उद्योग क्षेत्र नौकरियां उत्पन्न करने के लिए काफी होगा। इसके अलावा, ऐसे समय में जब पूरी दुनिया ऑटोमेटिक और रोजगारविहीन विकास की गवाह बनी हुई है, तब किसी नए उद्योग से नौकरियां पैदा करने की उम्मीद करना व्यर्थ मालूम होता है।
हाल ही में, क्रिसिल (सीआरआईएसआईएल) ने अपने अध्ययन में बताया कि 2007 के बाद से 3.7 करोड़ से ज्यादा भारतीय किसानों ने खेती छोड़कर शहरों का रुख किया। मगर 2012 से 2014 के बीच, जब आर्थिक विकास की दर धीमी बनी हुई थी, तकरीबन 1.5 करोड़ लोग कहीं रोजगार न पाकर अपने गांवों की ओर लौटे। इससे साफ है कि आज बड़ी तादाद में लोग शहरों और गांवों में दिहाड़ी मजदूर बनते जा रहे हैं। अब समय आ गया है कि आर्थिक विकास के एक ऐसे मॉडल के बारे में विचार किया जाए, जिसके जरिये रोजगार सुरक्षा के नजरिये से एक बेहतर माहौल बनाया जा सके। अपने चारों ओर यह देखकर मैं चकित रह जाता हूं कि औपचारिक क्षेत्र के लाखों पद खाली पड़े हैं। इतना ही नहीं, इस क्षेत्र में रिक्तियां हर महीने बढ़ रही हैं। चाहे सरकारी क्षेत्र के संस्थान हों या निजी क्षेत्र के, सभी इस बीमारी से पीड़ित हैं। लोग सेवानिवृत्त तो हो रहे हैं, मगर उनकी जगह नई नियुक्तियां नहीं हो रही हैं। तकरीबन सभी विश्वविद्यालयों और सरकारी कॉलेजों में 40 से 60 फीसदी से ज्यादा पद खाली पड़े हैं। एक मोटे अनुमान की मानें, तो प्राइमरी और सेकंडरी स्कूलों में पांच लाख से ज्यादा पद खाली हैं। ऐसा ही हाल अस्पताल, पुलिस, डाक विभाग और दूसरे सरकारी संस्थानों का है।
यह समझने की जरूरत है कि लोगों को खेती से अलग कर शहरों में सस्ते दिहाड़ी मजदूर बना देना रोजगार सृजन नहीं है। चुनौती तो यह होनी चाहिए कि जो लोग खेती कर रहे हैं, उन्हें उसका भरपूर फायदा मिले। किसानों को खेती से अलग कर उन्हें आधारभूत संरचना वाले उद्योगों की सस्ते श्रम की जरूरत पूरी करने का साधन बना देना अच्छी बात नहीं है। अभी मनरेगा का बजट कृषि के बजट से अधिक है। इसका मतलब यही है कि कृषि को आर्थिक रूप से घाटे का सौदा बनाने की हरसंभव कोशिशें हो रही हैं, ताकि किसान खेती छोड़कर शहरों में दिहाड़ी मजदूर बन जाएं।
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