भूमि अधिग्रहण कानून : एक सदी बाद का बदलाव और सार्थकता के सवाल
Author: शिवप्रसाद जोशी Edition : February 2014
पूरी एक सदी और दो दशक लग गए देश के सबसे महत्त्वपूर्ण और जन अधिकार से जुड़े एक कानून को बदलने में। 1894 के भूमि अधिग्रहण बिल की जगह 2014 की पहली तारीख से नया कानून लागू हो गया है। कहा जा रहा है कि यह उन तमाम नाइंसाफियों का जवाब है जो ब्रिटिश हुकूमत से आजाद देश में 66 साल तक चली आ रही थी।
लेकिन क्या वाकई अपनी जमीन से बेदखल किए गए लोगों के लिए इस कानून में इंसाफ और अधिकार की गूंज उतनी ही ठोस और मौलिक है जैसा कि दावा किया जा रहा है या यह लोकप्रियतावाद के भेस में वही पुराना हथकंडा है जिसके दम पर जमीनों के असली मालिकों को देखते ही देखते वंचित और भूमिहीन और विस्थापित बना दिया जाता रहा है। 12वीं पंचवर्षीय योजना के मुताबिक आजादी के बाद से देश के करीब छह करोड़ लोग विकास प्रोजेक्टों के नाम पर विस्थापित किए गए हैं। इनमें से 40 फीसदी आदिवासी हैं।
करीब 120 साल का वक्त लग गया एक जनविरोधी कानून को बदलने में। कैसी हैरानी है। 1894 का कानून जबरन अधिग्रहण को सही ठहराता था। जमीन पर कब्जे की नीयत बनते ही कार्रवाई शुरू हो जाती थी बगैर इसकी परवाह किए कि जमीन के मालिक पर इसका क्या असर पड़ेगा। वह कितना उत्पीडि़त होगा। उसकी सुनवाई का कोई जरिया नहीं था। जमीन अधिग्रहीत हो गई तो हो गई। पुनर्वास के मुद्दे पर ये कानून खामोश था। अरजेंसी का क्लॉज था ही नहीं। यानी कब्जे की क्या अनिवार्यता है इसे लेकर भी कानून नें कोई बात नहीं थी। मन किया और पैसा फेंका, जमीन अपनी। और मुआवजा! आधा अधूरा, मनमाना। सुप्रीम कोर्ट में कब्जे से जुड़ी मर्यादाओं की अनदेखी के कई मामले आए। जजों ने इस बात पर चिंता भी जताई कि यह कानून फ्रॉड बन गया है और साधारण मनुष्य के कल्याण की घोर अनदेखी करता है। कानून की आड़ में यह लूट चलती रही। सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने इस कानून को बदले जाने की जरूरत भी बताई थी। लेकिन 66 साल से अधिग्रहण का यह सिलसिला बदस्तूर जारी रहा और देश के कई हिस्से इसकी चपेट में आ गए। लोग तो जो बेहाल हुए सो हुए ही।
इस सरकार ने भी 10 साल झोंक दिए यह समझने में कि कानून कितना खतरनाक और उपनिवेशी है। इससे उन दलों का किरदार भी सामने आया है जो किसी न किसी रूप में सरकारों मे भागीदार रहे हैं। उसे समर्थन करते रहे हैं। फिर वह चाहे बीजेपी हो या वामदल। इस कानून से इतर देश के आर्थिक और सामाजिक हालात को देखें तो विस्थापन ही सबसे बड़ी हलचल रही है। चाहे वह अधिग्रहण जैसी राजनैतिक आर्थिक गतिविधि से हो या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण या किसी दंगे जैसी घृणित मुहिम से। सरकारों के और नौकरशाही के रवैये ने भी समाज में एक ध्रुवीकरण बनाया है। मिसाल के लिए उत्तराखंड को ही देखें जहां बांध परियोजनाओं ने लोगों को रोजगार, नगद धन और अन्य कथित गारंटियों की एवज में अपने मूल स्थानों से बेदखल किया है। उत्तराखंड जैसे खेतिहर प्रदेश में आज खेती की हालत शोचनीय है और लोग खेती की जमीनों को बेच रहे हैं। पूंजी का ऐसा दुष्चक्र पहाड़ में फैला है कि इसका अंदाजा अभी योजनाबद्ध ढंग से सरकारी या गैरसरकारी स्तर पर लगाया ही नहीं जा सका है। न जाने इस मामले पर सरकारों की और गैर सरकार सरदारों की नींद कब टूटेगी।
निर्माण को विकास का विकल्प बताकर जो देशव्यापी एजेंडा सरकारें, कॉरपोरेट और उनके दलाल चला रहे हैं उसने संस्कृति, भूगोल और समाज सबकुछ उलटपुलट दिया है। यह तब है जब विश्व बैंक और आईएमएफ पोषित कई एनजीओ सक्रिय हैं उन इलाकों में जिन्हें वलनरेबल कहा जाता है। इसी वलनरेबिलिटी के नाम पर एनजीओ की फंडिंग का निर्बाध प्रवाह जारी है। किसान खेती किसानी छोड़ कर मैदानों का रुख कर रहे हैं। मैदानों में उनके लिए जगहें नहीं हैं धक्के हैं। एक विराट आलस्य पूरी कौम पर पसर गया है। जैसा चल रहा है चलने दो का भाव यथास्थिति, निराशा और ऊब के साथ बना हुआ है। कोई भी राजनैतिक मूवमेंट कोई भी सामाजिक आंदोलन इस समय इस गतिरोध को तोडऩे के लिए आगे नहीं आया है। शायद है ही नहीं। जो दिखता है वह छिटपुट प्रतिरोध है। बेशक वह दमदार है लेकिन उससे हवाला लेकर आगे बढ़ाने वाली शक्तियां कुंद पड़ चुकी हैं।
क्योंकि आगे बढ़ाने का दावा करने वाली शक्तियां किसी और ही विमर्श पर दो-चार हैं। यह सत्ता का विमर्श है। वे ऐसे कैसे हो गईं इसकी छानबीन भी की जा रही है लेकिन यह छानबीन भी चंद पन्ने भरकर और चंद आंकड़े इकट्ठा कर सोने चली जाती है। सोना इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है इस देश में। या तो टीवी देखेंगे या सोएंगे। या सोने की हास्यास्पद खोज करेंगे।
बहरहाल लौटते हैं नए साल की पहली तारीख से अमल में आ गए इस भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुन:स्थापन अधिनियम, 2013(एलएआरआर—लार एक्ट) पर। इसमें न्यायसंगत मुआवजे के अधिकार और पारदर्शिता पर खास जोर दिया गया है। इसी के आसपास भूमिधारी समुदाय के हकहकूक के मसलों को कानून में रेखांकित किया गया है। मुकम्मल पुनर्वास इस कानून का मूल आधार है। बिना उसके कोई भी जमीन किसी भी किसान से देश के किसी भी हिस्से में किसी भी कीमत पर नहीं ली जा सकेगी। लेकिन जितना क्रांतिकारी यह कानून दिखाया गया है उतना यह है नहीं। सरकारी और पब्लिक प्राइवेट भागीदारी के जिन भी उपक्रमों के लिए जमीन चाहिए होगी उसका अधिग्रहण वहां के 70 फीसदी लोगों की रजामंदी के बाद हो जाएगा और विशुद्ध निजी उपक्रमों के लिए जनसहमति का यह प्रतिशत 80 का होगा। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में तो 100 फीसदी का सुझाव आ गया था लेकिन उस मोड़ पर बिल लचीला हो गया।
बिल में यूं अधिग्रहण को लेकर कुछ कड़े प्रावधान हैं। सही है कि नया कानून हक के रास्ते पर एक गनीमत की तरह आया है। इसमें जाहिर है विकास के उपनिवेशी मॉडल का मुखरता से विरोध करते आ रहे कुछ जनसंघर्षों और उनके पक्ष में खड़ी आवाजों का भी योगदान है। जवाबदेही इस कानून में लगभग अपरिहार्य कर दी गई है। और यह जवाबदेही जमीन की मंजूरी से शुरू होकर मुआवजे के आकार उसकी अवधि और मुकम्मल पुनर्वास तक जाती है। पुनर्वास के लिए गाइडलाइन तय की गई है। यह पहला बिल है जिसमें भूमि अधिग्रहण और उसमें शामिल आरएंडआर यानी रीसेटलमेंट और रीहैबिलटेशन की जरूरतों को जोड़ा गया है। कानून के पांच अध्याय और दो समूचे शेड्यूल पुनर्वास और पुन:स्थापन की प्रक्रिया की बारीकियां बताने के लिए रखे गए हैं। पुनर्वास और पुन:स्थापन से पहले कानून में मुआवजे के भुगतान का उल्लेख है जिसके तहत ग्रामीण इलाकों में जमीन की बाजार कीमत का चार गुना और शहरी इलाकों में बाजार मूल्य का दोगुना जमीन के मालिक को दिया जाएगा। इसमें कोई आयकर और स्टांप शुल्क भी नहीं लगेगा।
आदिवासी और अनुसूचित इलाकों में तो जमीन अधिग्रहण अव्वल तो किया ही नहीं जा सकेगा और अगर होगा भी तो इसके लिए वहां जो भी स्थानीय जन प्रतिनिधित्व ढांचा सक्रिय होगा मिसाल के लिए ग्राम सभा तो उसके अनुमोदन के बाद ही जमीन ली जा सकेगी अन्यथा नहीं। ओडीशा नियमगिरी में वेदांता के खनन प्रोजेक्ट को वहां के आदिवासियों ने अपनी ग्राम सभाओं के जरिए ही पीछे धकेला था। लेकिन कानून में एक बड़ी खामी आदिवासियों के उचित चिह्निकरण की है। पांचवे शेड्यूल से बाहर भी देश में आदिवासी समुदाय है जिसकी संख्या जानकारों के मुताबिक कुल आदिवासी आबादी की कोई 50 फीसदी से ज्यादा बैठती है, उनकी जमीनों का क्या होगा।
एक आकलन के मुताबिक देश का 90 फीसदी कोयला आदिवासी इलाकों में है। 50 प्रतिशत के करीब प्रमुख खनिजों के स्रोत वहीं हैं और कई हजार लाख मेगावाट की ऊर्जा संभावनाएं भी वहीं बिखरी हुई हैं। तो निशाने पर सबसे ज्यादा यही समुदाय है जो पूरे देश में बिखरा हुआ है। तो क्या यह बिल आर्थिक उदारवाद के ताजा चरण की आंधी में इन इलाकों को बचाएगा या उन्हें खोदने के लिए इस कानून की ढाल लेकर जाएगा। क्योंकि आदिवासियों के पास अंतत अपने जल जंगल जमीन के बाद जो बचता है वह संघर्ष और प्रतिरोध ही है। इस प्रतिरोध से टकराना सरकारों और निगमों के लिए आसान नहीं है सो यह कानून प्रतिरोध की दीवार में कुछ छेद कर सके, क्या असली मंतव्य यह तो नहीं। क्योंकि आखिरकार ‘नेशनल इंटरेस्ट’ भी तो एक तर्क रहा है, विकास के इस मॉडल का।
यूं इस नए बिल में 26 सब्स्टेंशल यानी पक्के संशोधन किए गए हैं जिनमें से 13 संशोधन इस मामले पर गठित स्टैंडिंग कमेटी और 13 संशोधन मंत्री समूह के लाए हुए हैं। नए कानून के लागू होने के बाद लाजिमी हो गया है कि 13 और कानूनों में भी संशोधन किए जाएं जिनका संबंध किसी न किसी रूप में भूमि अधिग्रहण और बुनियादी ढांचे के विकास से है। इनमें सबसे प्रमुख तो कोयला क्षेत्र अधिग्रहण और विकास कानून 1957 और भूमि अधिग्रहण(खदान) कानून 1885, और राष्ट्रीय राजमार्ग अधिनियम, 1956 है। झारखंड और ओडीशा में कोयला और दूसरे खनन मामले स्थानीय लोगों में आक्रोश का कारण रहे हैं। दूसरे कानून जिनमें संशोधन अनिवार्य हो गया है वे हैं एटमी ऊर्जा कानून 1962, इंडियन ट्रामवेज एक्ट 1886, रेलवे एक्ट 1989, प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम 1958, पेट्रोलियम और खनिज पाइपलाइन एक्ट 1962, दामोदर घाटी निगम अधिनियम 1948, बिजली अधिनियम 2003, अचल संपत्ति अधिग्रहण अधिनियम 1952, विस्थापितों का पुनर्वास अधिनियम 1948, और मेट्रो रेलवे अधिनियम 1978।
हालांकि जमीन अधिग्रहण से जुड़े इन सभी बिलों को एक छाता कानून के दायरे में लाने की वाम की मांग को केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने नहीं माना। उनकी दलील है कि ऐसा करने के चक्कर में यह बिल ही अटक जाता। सरकार का दावा है कि नया कानून अगर सही भावना और सही इरादे से अमल में लाया गया तो यह नक्सल समस्या का एक बड़ा हल बन सकता है। नक्सलवाद के पनपने के पीछे आदिवासी इलाकों में हकहकूक पर अनैतिक और अवैध कब्जे, विस्थापन, बेरोजगारी और बुनियादी सुविधाओं का अभाव ही है। लेकिन ये कानून आदिवासी हकों की कितनी परवाह करता है ये स्पष्ट नहीं है क्योंकि इसका मूल इरादा तो अवस्थापना विकास का ही है। यानी बड़े निवेश और बड़े प्रोजेक्टों के लिए जगह बनाना। आर्थिक उदारवाद के दूसरे तीसरे चौथे भाग को गति देने के लिए अब निवेश और निर्माण का सहारा लिया जा रहा है।
नए कानून में जमीन अधिग्रहण बेशक आसान नहीं होगा लेकिन इसके दूसरे पहलू भी देखें। ऐसा तो है नहीं कि सरकार उदारवाद से पीछे हट गई है और मुक्त बाजार से उसका मोह टूट गया है। वह तो और मुक्तगामी हुई जा रही है। जो भी सरकार आएगी वह भला पीछे क्यों रहेगी। निर्माण परियोजनाएं लाइए लेकिन ऐसा तो नहीं हो सकता कि लोगों को कह दो तुम जाओ, ये पहाड़ जल जंगल जमीन आज से हमारे। तो बिल इस खुराफात को रोकेगा। लेकिन कब तक रोकेगा। क्या उसमें किसी भी हद तक जाकर या ऐसा कड़ा से कड़ा प्रावधान है जो राष्ट्रहित के नाम पर लोगों को बरगलाता जान पड़े तो फौरन कार्रवाई हो सके। क्या लोगों को अच्छीखासी नगद राशि या बड़े मुआवजे के झांसे में फंसाना कठिन होगा। क्या ग्राम सभाओं को ‘मैनेज’ करने की कुटिलता नहीं होगी। नया कानून कॉरपोरेट, निगमों और कंपनियों की संभावित ‘अधमताओं’ पर खामोश है और यही इसकी एक बुनियादी कमजोरी भी है।
एक और आशंका देखिए। रियल एस्टेट और जमीन के कारोबार से जुड़े बड़े बिल्डर्स और बड़े ठेकेदारों के लिए इस बिल में पौ बारह होने की सुनहरी नौबते भी हैं। जमीनों के दाम बढ़ेंगे, अपार्टमेंट बनाने या दूसरे इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्टों की कीमतों में उछाल आएगा। निर्माण सेक्टर, ऊर्जा सेक्टर, खनन सेक्टर के कॉरपोरेट धुरंधर नए कानून पर जितना चाहें भौहें चढ़ाएं लेकिन कुल मिलाकर निवेश और आर्थिक उदारवाद का चक्का भीषण तेजी से घूमेगा और जमीनों के वास्तविक मालिक और दूर नहीं फिंकवा दिए जाएंगे, कौन जानता है। वरना अपने जन के प्रति ये सदाशयता यूपीए को अपने शासनकाल के दूसरे चरण में ही क्यों सूझी।
बेशक कानून में यह प्रावधान है कि पांच साल पुराने अधिग्रहण इसके दायरे में होंगे और मुआवजा भारीभरकम होगा और पुनर्वास के नियम नए सिरे से ही तय होंगे लेकिन वे मामले जो और पहले के हैं। वे लोग जो अपनी अपनी जमीनों से विस्थापित होकर भूमंडलीय पूंजी के रचाए अन्य असहाय ठिकानों को कूच कर गए हैं, उनका क्या होगा। मिसाल के लिए टिहरी बांध या नर्मदा के बांधों के विस्थापित कहां जाएंगे। जैतपुर और कुडनकुलम तो हाल के ही अधिग्रहण हैं, और यूपी के एक्सप्रेस हाईवे और फॉर्मूला वन रेस सर्किट के विस्थापित—नए कानून की झिलमिल में क्या उनका संकट किसी को दिखेगा।
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