Thursday, May 7, 2015

रावघाट परियोजना से बस्तर का भला नहीं होगा



रावघाट परियोजना से बस्तर का भला नहीं होगा


रावघाट परियोजना से बस्तर का भला नहीं होगा। परियोजना के नाम पर पेड़ काट दिए जाएंगे। जरूरत पड़ने पर और पेड़ काटे जाएंगे। विकास और विनाश साथ-साथ चलते हैं। रावाघाट परियोजना में विकास किसी और का होगा, लेकिन विनाश बस्तर का ही होगा। क्योंकि बस्तर का आदमी यहां मजदूरी करेगा। यह कहना है बस्तर के साहित्यकार और चिंतक हरिहर वैष्णव का।
नईदुनिया से एक विशेष बातचीत में श्री वैष्णव ने कहा कि उद्योगों के नाम पर बस्तर के पेड़ काटे जा रहे हैं। स्कूल और कॉलेज के लिए सरकार के पास जमीन नहीं है, लेकिन टाटा को देने लिए जमीन है। लोग जंगलों पर अतिक्रमण कर रहे हैं और सरकार उन्हें उस जमीन का पट्टा देते जा रही है। रावाघाट परियोजना में बस्तर का लौह अयस्क ढोया जाएगा, स्थानीय आदिवासियों के हाथ कुछ नहीं आएगा। ये बहुत बड़ी विडंबना है।
अनपढ़ रखने की साजिश
श्री वैष्णव कहते हैं कि बस्तर में शिक्षा का स्तर बहुत खराब है। स्कूलों में शिक्षक नहीं हैं और जिन स्कूलों में शिक्षक हैं, उन्हें प्रशासन दूसरे कामों में झोंक देता है। शिक्षकों को प्रशासन ने आलू बना दिया है। ऐसे माहौल में पढ़ाई क्या होगी। यह एक साजिश है, क्योंकि अगर बस्तर का आदिवासी पढ़-लिख गया तो वह सरकार से अपना हक मांगने लगेगा। प्रशासन के आला अधिकारी एसी कमरों में बैठे रहते हैं और शिक्षकों को स्कूलों तक पहुंचने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ती है।
खत्म हो रही आदिवासी संस्कृति
समय के साथ आदिवासी संस्कृति भी खत्म होती जा रही है। लोककथाएं, लोक गीत सुनाने वाला कोई नहीं है, क्योंकि इसे कोई सुनने वाला भी कोई नहीं है। एक समय था जब बस्तर का 40 हजार पंक्तियों वाला गीत लोगों को कंठस्थ था। लेकिन ये मौखिक परंपरा भी अब विलुप्त होने की कगार पर है। हल्बी, गोंडी, भतरी से ज्यादा लोग अब हिन्दी को महत्व दे रहे हैं।
विदेश के आदिवासी शिक्षित
अपनी विदेश यात्रा का जिक्र करते हुए श्री वैष्णव ने बताया कि विदेश में जो आदिवासी हैं, वे पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत को कभी नहीं छोड़ा। वे आज भी उसका पालन करते हैं। उन्होंने जर्मनी के साउंड रिकॉर्डिस्ट सेल्फ क्लियूस का किस्सा बताते हुए कहा कि जब क्लियूस भारत आए थे, तब धनकूल वाद्य यंत्र पर चखना गीत सुना और वे गीत सुनकर झूमने लगे। मैंने उनसे पूछा कि आप को यह गीत समझ में आ रहा है तो उन्होंने कहा कि यह लोकधुन तो जर्मनी के आदिवासियों की लोकधुन जैसी ही है। फिर उन्होंने इस लोकधुन को दोबारा बजाने को कहा और उस पर जर्मनी के लोक गीत की पंक्तियां पिरोईं। इससे समझ में आता है कि विदेश के आदिवासी और यहां के आदिवासियों में काफी समानता है।
[ नईदुनिया ]


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