Friday, November 20, 2015

भारत की वो 100 दमदार औरतें, जिन्होंने नियम बदले,

आधी आबादी: सौ चेहरे

#100Women में बीबीसी हिंदी ने चुना भारत की वो 100 दमदार औरतें, जिन्होंने नियम बदले, नए रास्ते खोले और मिसाल कायम कर दी. और नहीं तो कम से कम समाज को तो झकझोरा। 

अजैता शाह

अजैता शाह
अजैता शाह ‘फ्रंटियर मार्केट्स’ की संस्थापक हैं. यह मार्केटिंग कंपनी भारत के निम्न आय वर्ग के परिवारों के लिए सस्ते सोलर सोल्यूशन उपलब्ध कराने, बिक्री करने और सर्विस मुहैया कराने का काम करती है.
‘सोलर सहेली’ अभियान के ज़रिए वह गांवों की महिलाओं को उद्यम करना सिखा रही हैं और राजस्थान के गांवों में सौर ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा दे रही हैं.
अजैता 2006 में ‘क्लिंटन सर्विस कॉर्प फेलो’, 2012 में ‘इकोइंग ग्रीन फेलो’, 2013 में ‘कोर्ड्स फेलो’ रह चुकी हैं. उन्होंने अंडर-30 कैटेगरी में माइक्रोफाइनेंस का सबसे प्रभावी पुरस्कार मिल चुका है. ‘बिज़नेस वीक’ ने अपने 30 अंडर 30 में और ‘फोर्ब्स पत्रिका’ ने साल का टॉप 30 अंडर 30 सोशल आंत्रप्रिन्योर में अजैता को शामिल किया है.

अंजली नोरोन्हा

अंजली नोरोन्हा
दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स से 1982 में एमए करते हुए ही अंजली नोरोन्हा स्कूली शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए बन रहे समूह ‘एकलव्य’ से जुड़ गईं. संस्था के संस्थापक सदस्यों में शामिल अंजली ने स्कूली पाठ्यक्रम एवं पाठ्य सामग्री तैयार करने में अहम भूमिका निभाई.
33 साल के सफ़र में उन्होंने प्राथमिक शिक्षा, पुस्तकालय और शिक्षक शिक्षा को हाशियाकृत बच्चों के प्रति संवेदनशील बनाने पर काम किया है. अंजलि ने सामाजिक विज्ञान के पाठ्यक्रम में नागरिक शास्त्र को आधुनिक नागरिकता की शिक्षा में तब्दील करने करने का सफल प्रयास किया. उनकी इस कोशिश को राज्यों के पाठ्यक्रमों और एनसीईआरटी में भी शामिल किया गया.
वे कई राज्यों और केंद्र में नीति बनाने की समिति में शामिल हैं. इन दिनों वह स्थानीय भाषाओं में बच्चों को सीखाने के लिए बहुभाषी कार्यक्रम तैयार करने में जुटी हैं.

दुर्गा रघुनाथ

दुर्गा रघुनाथ
दुर्गा रघुनाथ ‘जगरनॉट बुक्स’ की सह संस्थापक और सीईओ हैं. जगरनॉट बुक्स भारत में मोबाइल पर किताब प्रकाशित करने वाली पहली कंपनी है. इससे पहले दुर्गा नेटवर्क18 डिजिटल की सीईओ थीं. उन्होंने ही ‘फर्स्टपोस्ट डॉटकॉम’ की शुरुआत की थी.
फर्स्टपोस्ट डॉटकॉम महज़ तीन साल के अंदर भारत का तीसरा सबसे बड़ा डिजिटल न्यूज़ ब्रांड बन गया. फर्स्टपोस्ट ने करीब एक करोड़ पाठकों को अपनी साइट पर आकर्षित किया. इसने ऑनलाइन समाचार एवं विचार लेखन ने दुनिया में नए मानक बनाए. इसके ऐप को दुनिया भर में बेहतरीन आईपैड ऐप के लिए वेब्बी नामिनेशन भी मिला.
जगरनॉट से पहले दुर्गा फूड-टेक ब्रांड ‘ज़ोमाटो’ में कंज्यूमर ग्रोथ की जिम्मेदारी संभाल रही थीं. दुर्गा उद्यमशीलता और स्टार्टअप्स पर वक्ता के तौर पर भी देश भर में बुलाई जाती हैं.

एकता कपूर

एकता कपूर
एकता कपूर को भारत में टेलीविजन की दुनिया की बदलने का श्रेय जाता है. वह'बालाजी टेलीफिल्म्स' की क्रिएटिव प्रमुख हैं. इसकी स्थापना 1994 में जब हुई थी, तब एकता की उम्र महज 19 साल थी.
2001 में एकता कपूर ने बालाजी के काम को विस्तार दिया और फिल्म निर्माण का सिलसिला शुरू किया. एकता कपूर कई कामयाब फ़िल्मों का निर्माण कर चुकी हैं.
कई टेलीविजन अवार्ड जीतने के अलावा उन्हें युवा प्रतिभा के तौर पर कई सम्मान मिल चुके हैं. इनमें द इकॉनॉमिक टाइम्स का बिज़नेस वुमेन ऑफ़ द ईयर, 2002 और अर्नेस्ट एंड यंग आंत्रप्रिन्योर ऑफ़ द ईयर, 2001 और अमरीकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीच्यूट का वुमेन ऑफ़ द ईयर, 2001 का सम्मान भी शामिल है.

गौरी सिंह

गौरी सिंह
घरेलू कामगारों के बड़े बाज़ार को देखते हुए गौरी सिंह ने 'द मेड्स कंपनी' बनाई. लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनामिक्स की डिग्री और स्वंयसेवी महिला संगठन 'सेवा' के साथ काम के अनुभव के साथ गौरी ने घरेलू कामगारों के काम को सेवा के तौर पर पेश किया.
उन्होंने कामगारों के अधिकार, उनकी गरिमा और सुरक्षा को भी रेखांकित किया है.
आज उनकी कंपनी 1,500 से ज़्यादा ग्राहकों को सेवा मुहैया करा रही है और 3,000 से ज़्यादा मज़दूरों को प्रशिक्षित कर चुकी है. 2015 में उन्होंने तकनीक आधारित डिजिटल फर्म ‘नयाफाई’ की स्थापना की है जो घरेलू श्रम बाज़ार पर नज़र रख रही है.
गौरी को ‘फार्च्यून इंडिया’ ने 2014 में 40 अंडर 40 युवा उद्यमियों की सूची में शामिल किया गया.

जया भारती

जया भारती
राजस्थान का ‘अयाद फाउंडेशन’ एक ऐसे समाज की कल्पना है जहां लोग ख़ुशी से और सम्मान से रह सकें. इसका सपना बिहार की जया भारती ने 14 साल की उम्र में देखा था और दिल्ली की निधि अग्रवाल के साथ मिलकर उसे साकार कर दिखाया.
दोनों ने 2012 में अयाद फाउंडेशन बनाया, जो मुश्किल स्थितियों में रहने वाले बच्चों और बुजुर्गों को जीने लायक माहौल देने का काम कर रहा है.
इनके परिसर में सामूहिक आवास, सामूहिक रसोई, कला और गतिविधि केंद्र, पुस्तकालय और स्वास्थ्य केंद्र, ऐंबुलेंस, सामुदायिक केंद्र, बिजली, पानी और इंटरनेट जैसे मूलभूत सुविधाएं मौजूद होंगी.
इसके अलावा फाउंडेशन ने बारिश के पानी के संकलन और सौर ऊर्जा के इस्तेमाल इत्यादि का भी ख्याल रखा है.

कल्पना सरोज

कल्पना सरोज
कल्पना सरोज की पहचान एक ऐसी दलित उद्यमी की है कि जिन्होंने एक बीमार ओद्यौगिक यूनिट को कामयाबी की राह पर डाल दिया है. वह ‘कमानी ट्यूब्स लिमिटेड’ की चेयरपर्सन हैं. यह यूनिट दो दशक तक बंद रही है लेकिन कल्पना सरोज ने इसकी तस्वीर बदल दी है.
महाराष्ट्र के अकोला ज़िले में एक दलित परिवार में जन्मीं कल्पना सरोज अपने पिता की तरह पुलिस में शामिल होना चाहती थीं. लेकिन बाल विवाह के बाद उन्हें सुसराल में अत्याचार का सामना करना पड़ा. कल्पना अपने घर लौट आईं और छोटे मोटे काम करना शुरू करते हुए आखिर कामयाबी के शिखर तक पहुंचीं.
कल्पना को भारत सरकार ने भारतीय महिला बैंक का निदेशक भी बनाया है. वह ‘दलित इंडियन चैंबर्स एंड इंडस्ट्री’ की अधिकारी भी हैं.

नेहा कृपाल

नेहा कृपाल
नेहा कृपाल ने 2008 में 'इंडिया आर्ट फेयर' की शुरुआत की. इस मेले का उद्देश्य भारतीय कला जगत और उसके बढ़ते बाज़ार को दर्शाना है. शुरुआत के साथ ही इस मेले को दुनिया भर में पहचान मिली.
इस मेले को देखने 3 लाख दर्शक पहुंचने लगे हैं. आयोजन के सात साल के भीतर यह दुनिया के सबसे आकर्षक कला मेले के तौर पर स्थापित हो चुका है.
इसकी कामयाबी के बाद नेहा ने 2015 में इंडिया आर्ट्स काउंसिल की शुरुआत की जिसका उद्देश्य भारतीय कला और अंतरराष्ट्रीय कला जगत को आपस में जोड़ना है.
नेहा को कला एवं सांस्कृतिक उद्यमशीलता के लिए कई सम्मान मिल चुके हैं. हाल ही में उन्हें वर्ल्ड इकॉनामिक फोरम, 2015-2021 की ओर से यंग ग्लोबल लीडर चुना गया है.

रमीना होरोकचाम

रमीना होरोकचाम
जिस देश में लोग सेक्सुअलिटी की बात भी खुले तौर पर नहीं करते हैं वहां रमीना होरोकचाम अंतरंग वस्त्रों और सेक्सुअल उत्पादों का कारोबार करती हैं वो भी ऑनलाइन. उनकी वेबसाइट है 'गोजी लव डॉट कॉम'. एमबीए करने के बाद शंघाई में तीन साल तक काम करने के बाद रमीना ने इस कारोबार में उतरने का फ़ैसला लिया.
कारोबार के साथ-साथ रमीना का उद्देश्य पर्सनल उत्पादों के बारे में लोगों की आम धारना को बदलना भी है. वो मानती हैं कि उनकी वेबसाइट और उस पर मौजूद उत्पादों की वजह से समाज में अंतरंगता और सेक्सुअलिटी के बारे में जागरूकता का स्तर भी बढ़ेगा.
रमीना को नेस्कॉम ने स्टार्टअप्स के लिए शीसीईओ अवार्ड से सम्मानित किया है. ऑनलाइन पोर्टल ‘नार्थ ईस्ट व्हाइस’ ने उन्हें 12 भविष्य के कारोबारियों में चुना है.

रूतवी मेहता

रूतवी मेहता
सात साल तक हॉस्पीटलिटी सेक्टर में काम करने के बाद रूतवी ने ‘फोटोकथा’ब्लागिंग साइट की शुरुआत की. यह एक ट्रैवल साइट है, जो आपको डिजिटल मार्केटिंग सर्विस के अलावा हॉस्पिटलिटी की सेवा भी उपलब्ध कराता है.
अपनी कंपनी के माध्यम से रूतवी महिलाओं की स्टार्टअप के मार्केटिंग और सेल्स के काम में मदद करती हैं. हाल ही में रूतवी ने जैसलमेर से शिलांग तक की 3,300 किलोमीटर का सफर ऑटोरिक्शा से 12 दिन में पूरा किया है.
जल्दी ही रूतवी एक ख़ास डिविज़न शुरू करने वाली हैं जिसमें महिलाओं के लिए ऐसी यात्राओं की योजाना होगी जिसमे दुनिया भर के विभिन्न उत्सवों को देखना शामिल होगा.
हर साल दो महीने तक रूतवी लद्दाख जाकर बच्चों को पढ़ाने का काम भी करती हैं.

क्या आप इन दमदार औरतों को जानते हैं?










महिलाएंImage copyrightTHINKSTOCK

बीबीसी हिंदी की विशेष सीरीज़ #100Women के तहत अगले 15 दिनों तक ख़बरों के केंद्र में होंगी औरतें. दमदार औरतें.
हम उन औरतों के बारे में बताएंगे जो इज़्ज़त के नाम पर जान लेने को तैयार परिवार से लड़ रही हैं और अपनी पसंद के मर्द से मोहब्बत करने की जुर्रत कर रही है.
सामने लाएंगे उन औरतों की कहानी जो पति की मौत के बाद ख़ुद किसान बन गईं. वो औरत जो सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति दर्ज कर रही है.
वो औरत जो शादी के मंडप पर विरोध की आवाज़ उठाने का माद्दा रखती है. वो लड़कियां जो कभी ‘नाकुशा’ कहलाती थीं और अब नाम पाकर ज़िंदगी में कुछ बनकर दिखाने की कोशिश कर रही हैं.
औरतों की ख़बरों के अलावा उन मर्दों से भी मिलवाएंगे जो औरतों के मुद्दों को अपना, सबका मामला समझते हैं और इसके लिए आवाज़ उठाने का काम कर रहे हैं.
और वो जोड़े जिनमें औरत नौकरी कर घर का ख़र्च चला रही है जबकि पति परिवार और घरेलू काम संभाल रहे हैं.









सोफिया अशरफ़, रैपरImage copyrightAlok Rajoo
Image captionसोफिया अशरफ़, रैपर.

बदलते भारत की नब्ज़ पकड़ती ये सीरीज़ इन सच्ची कहानियों के साथ पेश करेगी चुनिंदा 100 दमदार औरतों की एक सूची.
बीबीसी हिंदी ने इस सूची में उन औरतों को शामिल किया है जिन्होंने नियम बदले, नए रास्ते बनाए और मिसाल क़ायम की, और कुछ नहीं तो कम से कम समाज को तो झकझोरा ही.
ये केवल इन औरतों के काम और उपलब्धियों की सूची भर नहीं है. ये हमारे समाज का एक आईना भी है.









नेहा कृपालImage copyrightNEHA KIRPAL
Image captionनेहा कृपाल, संस्थापक, इंडिया आर्ट फ़ेयर

इसमें छिपी हैं कहानियां उन औरतों की जिन्होंने उस काम को शुरू करने की हिम्मत दिखाई जिसे हमेशा से मर्दों का हक़ माना गया, उनकी फ़ितरत मानी गई.
जानिए पर्बति बरुआ को. वो महावत हैं. इसके अलावा हेतल दवे को जो भारत की पहली महिला पहलवान हैं और नेहा कृपाल जिन्होंने इंडिया आर्ट फ़ेयर की स्थापना की.









पर्बति बरुआImage copyrightPARBATI BARUA
Image captionपर्बति बरुआ, महावत

इनमें वो भी शामिल हैं जिन्होंने अपने लिए तय कर दी गई सीमाओं को चुनौती दी. कुछ ऐसा कर दिखाया जो मिसाल बन गया. जैसे कि बेबी हल्दर. उन्होंने एक घरेलू कामगार होने की आत्मकथा लिखी है.
सत्ता के ख़िलाफ़ बेख़ौफ़ आवाज़ बुलंद करती औरतों को भी हम जानेंगे. जैसे मणिपुर की वो औरतें जिन्होंने नग्न होकर सेना को विशेषाधिकार देने वाले क़ानून का विरोध किया.
सूची में उन्हें भी जगह मिली है जिन्होंने अपने काम के क्षेत्र में बुलंदियां छू लीं फिर वो चाहे खेल हो, कला, कारोबार, विज्ञान, लेखन हो या सिविल सेवा. जैसे अरांचा सांचेज़ जो विश्व की मौजूदा बिलियर्ड्स और स्नूकर चैम्पियन हैं.









अरांचा सांचिस, बिलियर्ड खिलाड़ीImage copyrightARANTXA SANCHIS
Image captionअरांचा सांचिस, बिलियर्ड-स्नूकर खिलाड़ी

#100Women सीरीज़ की कोशिश है वैसी औरतों के बारे में बताना जिनका काम ज़मीनी स्तर पर हमारे देश समाज में कुछ बदलाव रहा है.
छोटे से शुरू होकर बड़े स्तर तक पहुंचता ये बदलाव, निजी हो या सामूहिक, हौसला बढ़ाता है. देशभर में बिखरी ऊर्जा को साथ ला रहा है.
ये सीरीज़ साथ ही उन मुद्दों पर भी ध्यान खींचेगी है जिनसे औरतें अभी भी जूझ रही हैं, फिर चाहे वो 'अच्छी लड़की' की परिभाषा हो, कपड़ों को हिंसा की वजह बताने का भ्रम, माहवारी जैसे मुद्दों पर शर्म, या शादी और मां बनने के दबाव हों.
या फिर डायन बताकर मारने की प्रथा हो, आदिवासी महिलाओं के साथ अत्याचार या नौकरी या पढ़ाई ना करने की बंदिशें हों.


इस सिरीज़ में विभिन्न खेलों में कामयाबी का इतिहास रचने वाली 10 महिलाएं.


आरांचा सांचेज़

Arantxa Sanchis
महाराष्ट्र की 25 साल की आरांचा सांचेज़ स्नूकर और बिलियर्ड्स की विश्व चैंपियन हैं.
आरांचा दो इंटरनेशनल गोल्ड मेडल और दस नेशनल टाइटल्स जीत चुकी हैं.
ये कामयाबी उन्होंने तब हासिल की है जब वह आंखों की मुश्किल बीमारी से पीड़ित हैं.
इस वजह से उनकी आंखों किसी चीज़ पर फोकस नहीं कर पातीं.
सितंबर 2015 में उन्होंने एडिलेड में बिलियर्ड्स का वर्ल्ड वीमेन चैंपियनशिप ख़िताब जीता.
वह बिलियर्ड्स और स्नूकर के वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल हासिल करने वाली दुनिया की पहली महिला खिलाड़ी हैं.
महाराष्ट्र के सर्वोच्च खेल सम्मान शिव छत्रपति सम्मान से सम्मानित आरांचा एमबीए (फ़ाइनेंस) करने के बाद इन दिनों 'क्रेडिट सुइस' में काम कर रही हैं.

अर्चना सरदाना

Archana Sardana
अर्चना सरदाना भारत की पहली और इकलौती महिला 'बेस जंपर' हैं.
दो बच्चों की मां अर्चना दुनिया की अलग अलग जगहों पर अब तक 335 बार स्काई डाइविंग कर चुकी हैं.
उनका नाम 2011 में 'लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स' में दर्ज हो चुका है.
वे 13,500 फ़ीट की ऊंचाई से 'फ्री फाल स्काई डाइविंग' कर चुकी हैं.
अमरीका के यूटाह स्थित 400 मीटर ऊंचे पुल से बेस जंपिंग, मलेशिया के मशहूर केएल टावर्स से राष्ट्रीय झंडे के साथ जंपिंग और समुद्र में 30 मीटर की गहराई तक राष्ट्रीय झंडे के साथ डाइविंग इसमें शामिल है.
ये सब कारनामे अर्चना ने शादी के बाद किए हैं. वो दिल्ली में स्कूबा डाइविंग अकादमी भी चलाती हैं.

द्युति चंद

Dutee Chand
19 साल की द्युति चंद भारत की ऐसी एथलीट हैं जिन्हें अपनी प्रतिभा साबित करने के लिए स्विट्ज़रलैंड स्थित 'कोर्ट ऑफ़ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट्स' में अपनी लैंगिक पहचान की लड़ाई लड़नी पड़ी.
2014 में 'अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक्स महासंघ' ने द्युति के शरीर में टेस्टोस्ट्रॉन (पुरुष हार्मोंस) की मात्रा अधिक होने के चलते पाबंदी लगा दी थी.

गीता फोगाट

Geeta Phogat
गीता फोगाट 2012 में ओलंपिक खेलों के लिए क्वालिफ़ाई करने वाली भारत की पहली पहलवान बनीं. हालांकि लंदन ओलंपिक में वह कोई पदक नहीं जीत पाईं.
गीता को पहली कामयाबी नई दिल्ली के 2010 राष्ट्रमंडल खेलों में 55 किलोग्राम वर्ग फ्रीस्टाइल प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीतकर मिली.
यह महिला कुश्ती में भारत का पहला स्वर्ण पदक है. गीता ने 2012 में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीता.
2012 और 2015 की एशियाई कुश्ती चैंपियनशिप में भी गीता कांस्य पदक जीत चुकी हैं.
हरियाणा के भिवानी ज़िले की गीता के जीवन पर बॉलीवुड में 'दंगल' नाम से फ़िल्म बन रही है, जिसमें आमिर ख़ान मुख्य भूमिका निभा रहे हैं.
इस वजह से वह 2014 के राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में हिस्सा नहीं ले पाईं.
द्युति की जीत और पाबंदी का हटना दुनियाभर में मिसाल है.
उड़ीसा के एक गरीब बुनकर परिवार की द्युती ने 2013 में रांची में हुए 'नेशनल सीनियर एथलेटिक्स चैंपियनशिप' में 11.73 सेकेंड के समय के साथ 100 मीटर और 23.73 सेकेंड समय के साथ 200 मीटर की रेस जीतने का करिश्मा दिखाया था.

मेरी कॉम

Mary Kom
32 वर्षीय मांग्ते चुंगनेज़ियांग मेरी कॉम मुक्केबाज़ी की पांच बार की विश्व चैंपियन हैं जबकि चार बार वो एशियन चैंपियनशिप में भी गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं.
2012 में लंदन ओलंपिक में जब महिला मुक्केबाज़ी प्रतियोगिता को शामिल किया गया तो वो वहां कांस्य पदक जीतकर ओलंपिक में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला मुक्केबाज़ बनीं थीं.
मेरी को पद्म भूषण, अर्जुन अवॉर्ड और राजीव गांधी खेल रत्न समेत कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया हैं.
तीन बच्चों की मां, मेरी के जीवन पर एक बॉलीवुड फ़िल्म बनी है जिसमें प्रियंका चोपड़ा ने उनका किरदार निभाया है.
बॉक्सिंग को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने साल 2006 में इंफ़ाल में एक बॉक्सिंग अकादमी स्थापित की है.

प्रीति श्रीनिवासन

Preethi Srinvasan
महज़ आठ साल की उम्र में तमिलनाडु क्रिकेट का सितारा बन गईं थीं प्रीति श्रीनिवासन.
राज्य क्रिकेट टीम में इतनी कम उम्र में जगह बनाने का रिकॉर्ड अब तक उनके नाम है.
अंडर 19 क्रिकेट में तमिलनाडु ने प्रीति की कप्तानी में 1997 में राष्ट्रीय स्तर का टूर्नामेंट जीता था.
लेकिन एक हादसे में उनकी स्पाइनल कार्ड की हड्डी टूट गई और गले के नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया.
प्रीति हमेशा के लिए व्हील चेयर पर आ गईं पर उनका हौसला कायम रहा.
हादसे के बाद प्रीति ने सोलफ्री चैरेटिबल ट्रस्ट शुरू किया.
36 साल की प्रीति की संस्था विकलांग महिलाओं के कल्याण के लिए कई कार्यक्रम भी चलाती है.

सबीहा नबी

Sabhiya Nabi
20 साल की सबीहा नबी भारत की उभरती हुई स्कीईंग चैंपियन हैं.
2013 में उत्तराखंड में राष्ट्रीय ऐल्पाइन स्कीईंग चैंपियनशिप में सबीहा ने तीसरा स्थान हासिल किया.
इससे पहले भी सबीहा राष्ट्रीय चैंपियनशिप में दो गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं.
स्नातक की पढ़ाई कर रहीं सबीहा को 2013 में स्कीईंग के अंतरराष्ट्रीय मुक़ाबले में भाग लेने का मौक़ा भी मिला था, लेकिन पासपोर्ट नहीं होने की वजह से वह जा नहीं पाईं.
इससे पहले सबीहा ने गुलमर्ग में आयोजित 'नेशनल जूनियर स्कीईंग चैंपियनशिप' में दो गोल्ड मेडल जीते थे.
भारत प्रशासित कश्मीर के ज़िला बारामूला के तंगमर्ग इलाके की सबीहा का सपना अब ओलंपिक खेलों में क्वालिफ़ाई करना है.

साइना नेहवाल

Saina Nehwal
25 वर्षीय साइना नेहवाल ओलंपिक खेलों में बैडमिंटन में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं.
2012 में उन्होंने लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीता. 'बैडमिंटन वर्ल्ड फ़ेडरेशन' (बीडब्लूएफ़) की रैंकिंग में 2015 में साइना दुनिया के शीर्ष पायदान पर पहुंच चुकी हैं.
इसी साल वह 'वर्ल्ड बैडमिंटन चैम्पियनशिप' के फाइनल में पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी भी बनीं.
महज़ 16 साल की उम्र में साइना ने 2006 के कॉमनवेल्थ खेलों में कांस्य पदक जीता था.
इसके बाद उन्होंने 2010 दिल्ली कॉमनवेल्थ खेलों में स्वर्ण और 2014 के ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों में रजत पदक भी जीता.
उन्हें देश के सबसे बड़े खेल पुरस्कार, राजीव गांधी खेल रत्न से भी सम्मानित किया गया है.

सानिया मिर्ज़ा

Sania Mirza
28 साल की सानिया मिर्ज़ा महिला डबल्स में दुनिया की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी हैं.
2015 में उन्होंने अपनी जोड़ीदार मार्टिना हिंगिस के साथ मिलकर विंबलडन, और अमरीकी ओपन में महिला डबल्स का ख़िताब जीता है.
सानिया ने 15 साल की उम्र में पहली बार 2002 में एशियाई खेलों में लिएंडर पेस के साथ मिक्स्ड डबल्स में कांस्य पदक जीता.
इसके बाद 2003 में सानिया डब्ल्यूटीए टूर में शामिल हुईं. सिंगल्स इवेंट में सानिया 27वें पायदान तक पहुंचने में कामयाब रहीं.
लेकिन चोट की वजह से जल्दी ही उन्होंने अपना ध्यान डबल्स पर लगाना शुरू कर दिया.
सानिया को 2015 में राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार से नवाज़ा गया.
उन्हें अर्जुन पुरस्कार और पद्मश्री से भी सम्मानित किया जा चुका है.

ताशी मलिक, नुंग्शी मलिक

Tashi Nungshi
ताशी और नुंग्शी मलिक कमाल की जुड़वां बहनें हैं.
ये पहली जुड़वां बहनें हैं जिन्होंने माउंट एवरेस्ट की सफलतापूर्वक चढ़ाई पूरी की.
इसके चलते ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में इनके नाम दर्ज है.
इतना ही नहीं दोनों ‘एडवेंचर्स ग्रैंड स्लैम’ पूरा कर चुकी हैं.
यानी दुनिया के हर महादेश की सबसे ऊंची चोटी को फ़तह करने के साथ मलिक बहनों ने उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने का कारनामा दिखाया है.
ऐसा कारनामा दिखाने वाली ये दुनिया की सबसे कम उम्र की एथलीट है.
24 साल की मलिक बहनें इस मुकाम तक पहुंचने वाली दक्षिण एशिया की पहली एथलीट भी हैं.
उत्तराखंड सरकार ने इन दोनों बहनों को ‘बेटी बचाओ’ अभियान का ब्रैंड एंबैसडर बनाया.

इस  कड़ी में पढ़ें उन 10 औरतों के बारे में जिनके काम ने समाज की सोच को बदलने पर मजबूर कर दिया.

अंजली गोपालन

Anjali Gopalan
भारत में एचआईवी और एड्स संक्रमण के ख़िलाफ़ मुहिम का सशक्त चेहरा हैं अंजली गोपालन.
उन्होंने एड्स पीड़ितों के बीच काम करने के लिए 1994 में 'नाज़ फाउंडेशन' का गठन किया.
2000 में उन्होंने एचआईवी से संक्रमित बच्चों की देखरेख के लिए 'नाज़ केयर होम' की स्थापना की. इस केयर होम में मौजूदा समय में पांच से 17 साल की उम्र के 29 बच्चों की देखभाल होती है.
अंजली ने समलैंगिकता को अपराध ठहराने वाले भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अदालत में चुनौती दी.
उनकी कोशिशों के बाद ही 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 को व्यक्तिगत अधिकारों का उल्लंघन माना. अंजली को देश-विदेश के कई सम्मान मिल चुके हैं.

लैशराम ज्ञानेश्वरी

लैशराम ज्ञानेश्वरी
मणिपुर में सशस्त्र सुरक्षा बल अधिनियम (आफ़्स्पा) के विरोध में पूरी तरह नग्न हो प्रदर्शन करने वाली महिलाओं में एक हैं लैशराम ज्ञानेश्वरी.
साल 2004 में एक मणिपुरी महिला थंगजाम मनोरमा के सेना द्वारा कथित बलात्कार और हत्या के बाद ज्ञानेश्वरी के नेतृत्व में, राज्य में सत्ता का केंद्र माने जाने वाले कांगला फोर्ट के सामने, क़रीब 30 महिलाओं ने सेना के अत्याचार के ख़िलाफ़ ये ऐतिहासिक कदम उठाया.
पिछले सालों में मणिपुर के सात नगरनिगम को आफ़्स्पा कानून के दायरे से हटाया गया है.
स्कूली दिनों से ही सामाजिक आंदोलनों में हिस्सा लेने वाली ज्ञानेश्वरी 1968-69 में मणिपुर को राज्य का दर्ज़ा देने वाले आंदोलन में भी शरीक हो चुकी हैं. इसके बाद वो राज्य में शराब और नशाखोरी के अभियान से भी जुड़ी रहीं.

लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी

लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी
ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता और कलाकार लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी भारत में हिजड़ा समुदाय की आवाज़ बन गई हैं. वह पहली किन्नर हैं जो संयुक्त राष्ट्र में एशिया प्रशांत क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती हैं.
लक्ष्मी टोरंटो में आयोजित विश्व एड्स सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व भी कर चुकी हैं. किन्नर समुदाय के समर्थन और विकास के लिए वो ‘अस्तित्व’ नाम का संगठन भी चलाती है.
'मी हिजड़ा, मी लक्ष्मी’ नाम की उनकी आत्मकथा, अंग्रेज़ी, मराठी, गुजराती और अब हिंदी में प्रकाशित की गई है.
इस आत्मकथा के माध्यम से लक्ष्मी समाज में प्रेम और सम्मान पाना चाहती हैं. लक्ष्मी लोकप्रिय टीवी कार्यक्रम बिग बॉस (सीज़न 5) में भी हिस्सा ले चुकी हैं.

लक्ष्मी

लक्ष्मी
दिल्ली की लक्ष्मी एसिड अटैक की शिकार महिलाओं के हक की लड़ाई लड़नेवाला जानामाना चेहरा हैं. एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी लक्ष्मी संगीत की दुनिया में गायक के तौर पर मुकाम बनाना चाहती थी.
पर एक दिन स्कूल जाते वक्त किसी ने एसिड से हमला किया और लक्ष्मी का 45 फ़ीसदी चेहरा जल गया. कई जटिल ऑपरेशन करवाने के बाद जब लक्ष्मी लौटीं तो संस्था ‘स्टॉप एसिड अटैक्स’ के साथ जुड़ गईं.
साल 2006 में लक्ष्मी ने एक जनहित याचिका की जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला सुनाते हुए भारत में एसिड की खुली बिक्री पर रोक लगाने और पीड़िताओं के मुफ़्त इलाज़ का आदेश दिया. लक्ष्मी अब एक बच्ची की मां हैं.

नलिनी नायक

नलिनी नायक
नलिनी नायक बीते तीन दशकों से समुद्रतटीय इलाके में रहने वाले समुदायों के बीच काम कर रही हैं और ‘इंटरनैश्नल कलेक्टिव इन सपोर्ट ऑफ फिशवर्कर्स’ के संस्थापकों में से एक हैं.
उन्होंने मछुआरे परिवार की महिलाओं के जीवन-स्तर को बेहतर बनाने और छोटे पैमाने पर मछलीपालन के काम तक उनकी पहुंच बनाने के लिए काम किया है. वे केरल में असंगठित क्षेत्र में महिलाओं को एकजुट करने का काम कर रही संस्था ‘सेवा’ की सह-संस्थापिका भी हैं.
मौजूदा समय में वे ‘सेवा भारत’ की महासचिव हैं. 1989-91 के बीच बतौर अशोका फेलो, नलिनी ने कन्याकुमारी के दो ज़िलों में तटवर्तीय इलाके की वनस्पति और मैंग्रोव के पेड़ों पर काम किया. बैंगलोर में पैदा हुईं नलिनी अब तिरुवनंतपुरम में रहती हैं.

नंदिता दास

नंदिता दास
अभिनेत्री और निर्देशिका नंदिता दास की सोच और प्राथमिकताएं उनके काम के चयन से ज़ाहिर होती है. निर्देशक के तौर पर उनकी पहली फ़िल्म, गुजरात दंगों पर आधारित ‘फ़िराक’, को देश विदेश में काफी सराहना मिली थी.
लैंगिक असमानताओं पर आधारित नाटक, ‘बिटवीन द लाइन्स’, लिखने के साथ नंदिता ने उसमें अभिनय और उसका निर्देशन भी किया.
सोशल वर्क में मास्टर्स के बाद से ही नंदिता सामाजिक मुद्दों से जुड़ी रही हैं. मसलन, ‘डार्क इज़ ब्यूटीफुल’ अभियान, जो त्वचा के रंग से इंसान की कीमत जोड़ने का विरोध था.
नंदिता को फ्रांस सरकार की ओर से प्रतिष्ठित नागरिक सम्मान 'नाइट ऑफ़ ऑर्डर' से नवाज़ा गया है. नंदिता 2005, 2013 में कान फ़िल्म महोत्सव की जूरी सदस्य और 2014 में 'येल वर्ल्ड फैलो' रह चुकी हैं.

सबा हाजी


सबा हाजी
33 साल की सबा हाजी भारत प्रशासित कश्मीर के एक दूरस्थ गांव में स्थानीय बच्चों को शिक्षित करने की मुहिम में जुटी हैं. बीते सात सालों में हाजी पब्लिक स्कूल के माध्यम से उन्होंने अपने आसपास के इलाकों में नई उम्मीद जगाई है.
सबा ने यह सब अपना कॉरपोरेट करियर छोड़कर किया है. दुबई में पली बढ़ी और बेंगलुरु में नौकरी करने के बाद सबा ने अपने गांव के लोगों के बीच काम करने का फ़ैसला लिया. वह ट्विटर पर बेहद लोकप्रिय हैं.
इसके अलावा सबा तहलका, लाइव मिंट, हिंदुस्तान टाइम्स और सेमिनार जैसे अख़बारों और पत्रिकाओं के लिए लिखती भी हैं. सबा अंतर्राष्ट्रीय मंच ‘टेड-एक्स’ में वक्ता रह चुकी हैं और कई सम्मानों से भी नवाज़ी गई हैं.

संदीप कौर

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संदीप कौर
पंजाब के अमृतसर की संदीप कौर महिला सशक्तिकरण की जीती जागती मिसाल हैं. बीते 25 साल से वह अनाथ बच्चियों के जीवन को संवारने का काम कर रही हैं.
फ़िलहाल उनके परिवार में 90 बच्चियां हैं, जिनके खाने पीने से लेकर स्कूल भेजने के काम में संदीप कौर हर सुबह नए उत्साह के साथ जुट जाती हैं.
एक मारे गए चरमपंथी धरम सिंह कश्तीवाल की पत्नी संदीप कौर कश्तीवाल ने अमृतसर के करीब सुल्तानविंड में 'भाई धरम सिंह ख़ालसा चैरिटेबल ट्रस्ट' की स्थापना की.
यह ट्रस्ट अभी फ़िलहाल 1,000 से ज़्यादा बच्चियों की शिक्षा का ख़र्चा उठाती है. इनमें से कुछ बीटेक, एलएलबी, एमबीए, एमएससी, एमसीए जैसे पाठ्यक्रम भी कर रही हैं.

थिम्माक्का


थिम्माक्का
थिम्माक्का की पहचान कर्नाटक में बरगद के सैकड़ों पेड़ लगाने वाली महिला के तौर पर है.
इनकी उम्र भले 80 साल से ज़्यादा की हो चुकी है लेकिन बेंगलुरु से 80 किलोमीटर दूर कुदुर से लेकर हुलीकल के बीच पांच किलोमीटर लंबे दायरे में थिम्माक्का ने बरगद के पेड़ लगाए हैं.

पी विजी

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पी विजी
जब पी विजी ने देखा कि आंगनवाड़ी, कपड़ा मिलों और गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में काम करनेवाली कई महिलाएं दिनभर पानी नहीं पीती थीं, क्योंकि उनके पास शौचालय की कोई सुविधा नहीं थी, तो उन्होंने असंगठित महिलाओं का एक समूह बनाया – पेनकूट.
तीन साल बाद उन्होंने इसे ट्रेड यूनियन की शक्ल दी. काम की जगह पर सुविधाओं की मांग के साथ बनी अज़ंगाढ़ा मेखला थोएलाली यूनियन ने फिर बेहतर वेतन का मुद्दा भी उठाया.
इस यूनियन में 85 फ़ीसदी कर्मचारी यानि 6,000 से ज़्यादा महिलाएं हैं. 46 साल की विजी को मुन्नार की महिलाओं की प्रेरणा भी माना जाता है जिन्होंने देश की सबसे बड़ी चाय कंपनी में एक के मालिकों को झुका कर 20 फ़ीसदी बोनस हासिल किया.
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थिम्माक्का की कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने अपने पति के साथ इस अभियान की शुरुआत की थी. दोनों मिलकर बरगद के पौधे को अपने बच्चे की तरह बड़ा करने लगे.
1995 में पहली बार इन दोनों की कोशिशों को स्थानीय मीडिया में चर्चा मिली. अपने पति के मौत के बाद भी थिम्माक्का ने अपना अभियान जारी रखा है.

'मैं जो कुछ भी हूं फ़ेसबुक की वजह से हूँ'

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मैं जो कुछ भी हूँ फ़ेसबुक की वजह से हूँ.. ये बात सुनने में अटपटी लग सकती है लेकिन इन महिलाओं के लिए फ़ेसबुक का कुछ ऐसा ही महत्व है.
ये महिलाएं भारत के छोटे शहरों से आती हैं और पिछले लगभग पांच सालों में उनके जीवन में बड़े परिवर्तन आए हैं जिसके लिए वो फ़ेसबुक को ज़िम्मेदार मानती हैं.
आइए मिलते हैं ऐसी तीन महिलाओं से.









कुमुद सिंह बिहार के पटना में रहती हैं और मैथिली भाषा में 'ईसमाद' नाम का ई-पेपर चलाती हैं. ये मैथिली भाषा में पहला ईपेपर है. कुमुद का संबंध दरभंगा राजघराने से है और शादी के बाद ही उनका आम लोगों से मिलना जुलना शुरू हुआ.
कुमुद ने औपचारिक स्कूली पढ़ाई नहीं की है. शादी के बाद उन्होंने ओपन स्कूल से दसवीं पास की. उनकी बेटी जब स्कूल जाने लगी तो उन्होंने कंप्यूटर सीखा और ई-पेपर की शुरुआत हुई.
वो फ़ोन पर हंसते हुए कहती हैं, "फ़ेसबुक नहीं होता तो मैं एक अच्छी मां होती, गृहिणी होती, मैगज़ीन निकाल रही होती. फ़ेसबुक ने मुझे एक आवाज़ दी अपनी बातें रखने की. मैंने खूब लड़ाइयां की हैं लोगों से. बहस की है. डांटा है. पलट कर गालियां दी हैं. अब लोग मुझे पहचानते हैं मेरे फ़ेसबुक पोस्टों की वजह से."
फ़ेसबुक पर कुमुद सिंह की पहचान एक ऐसी महिला के रूप में है जो बिहार की राजनीति, दरभंगा राजघराने और सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखती हैं, बेकार की टिप्पणी करने वालों को डांट देती हैं और अपने तर्कों के लिए ऑनलाइन लिंक्स का खूब इस्तेमाल करती हैं.









वो कहती हैं, "ऐसा नहीं है कि सब एकदम अच्छा ही था. फ़ेसबुक पर लड़ती मैं हूँ और तनाव परिवार को हो जाता है. मेरी बेटी को बहुत चिंता होती है. लेकिन फ़ेसबुक ने मुझे लड़ना झगड़ना सिखा दिया. मज़बूत कर दिया मुझे सामाजिक रुप से. मुझे पहचान मिली है फ़ेसबुक से. कुमुद को कुमुद सिंह फ़ेसबुक ने ही बनाया."
एक तरफ कुमुद की छवि तेज़ तर्रार महिला की है वहीं प्रवेश सोनी मृदुभाषी कवयित्री हैं.
प्रवेश सोनी राजस्थान के कोटा की रहने वाली हैं और उन्होंने भी इंटरनेट बच्चों से ही सीखा है. पिछले दिनों उनकी कविताओं को 'स्त्री होकर सवाल करती है' नामक पुस्तक में शामिल भी किया गया.
वो कहती हैं, "मैं बस ग्यारहवीं तक पढ़ी हूँ. शादी हो गई तो पढ़ना छूटा...लेकिन पढ़ने की इच्छा नहीं छूटी. जब बच्चे बड़े हुए तो इंटरनेट सिखाया उन्होंने. पहले मैं ऑरकुट पर थी फिर फ़ेसबुक पर आई. कविताएं डायरी में थीं..फिर धीरे-धीरे फ़ेसबुक पर लोगों ने हौसला बढ़ाया तो मैं लिखने लगी."
प्रवेश कहती हैं कि उन्होंने भी बुरे लोगों का सामना किया है फ़ेसबुक पर. वो कहती हैं, "बुरे लोगों को इग्नोर कर के चलना चाहिए. मुझे आज लोग मेरे नाम से जानते हैं. इसकी वजह सिर्फ फ़ेसबुक है. मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं. तब मैं यहां आई और जितना यहां सीखा उतना उम्र के किसी दौर में नहीं सीख पाई."
प्रवेश के पति बिजनेसमैन हैं और आने वाले दिनों में प्रवेश की पुस्तक भी छपने वाली है.









वो एक मज़ेदार बात कहती हैं, "बहुत सारे लोग तो मेरे लिखे की तारीफ़ सिर्फ महिला होने के कारण कर देते हैं लेकिन मुझे पता है कि कौन वाकई तारीफ़ कर रहा है. ये अनुभव होते-होते हुआ है."
वो कहती हैं, "अगर फ़ेसबुक नहीं होता तो मैं शायद अपने पड़ोसियों से ज्यादा गप्पे मार रही होती. टीवी देख रही होती लेकिन फ़ेसबुक है तो एक किताब में छपी हूँ. शायद किताब भी छपे. ऐसी उम्मीद तो करती ही हूँ."
प्रवेश ने ख़ुद से पेंटिंग सीखी है और उन्होंने जब फ़ेसबुक पर इन्हें शेयर किया तो कई प्रकाशकों ने इन पेंटिंग्स को किताबों का कवर पेज भी बनाया है.
कुमुद और प्रवेश जैसी कई महिलाएं हैं जिनका जीवन फ़ेसबुक के कारण बदल रहा है.
अनुशक्ति सिंह अपने जीवन के कठिन दौर से गुज़र रही हैं और वो कहती हैं कि फ़ेसबुक ने उन्हें बहुत संबल दिया है.
अनुशक्ति सिंह मास कॉम की पढ़ाई के बाद 'इंडिया मार्ट' में काम करती थीं लेकिन शादी के बाद सब कुछ बदल गया.
वो बताती हैं, "मेरी शादी अरेंज्ड मैरेज के तहत एक आर्मीमैन से हुई थी. शादी के बाद बंधन हो गए. मुझे घर से बाहर जाने की भी परमिशन नहीं थी. मेरा अस्तित्व घर में काम करने वाली बहू जैसा हो गया था. मैं फ़ेसबुक पर थी लेकिन 2015 मार्च में मुझे फ़ेसबुक पर ही एक दोस्त ने कहा कि मैं ब्लॉग लिखूं."









ब्लॉग लिखते-लिखते अनुशक्ति सिंह का आत्मविश्वास जागा.
वो कहती हैं, "एक नया अखबार है 'गांव कनेक्शन'. मैंने उनके फ़ेसबुक पर ही आवेदन किया कि मैं उनके लिए कुछ लिखना चाहती हूँ. उन्होंने आर्टिकल मांगा और वो आर्टिकल छप गया. इससे मेरा आत्मविश्वास जग गया. मेरे ससुराल में हंगामा हुआ. मेरे ससुरालवालों को मेरा लैपटॉप और फ़ेसबुक पर जाना ही पसंद नहीं आया."
अनुशक्ति बताती हैं कि अगले कुछ महीनों में घर में लड़ाई झगड़े बढ़े और अब वो अपने बच्चे के साथ अलग रह रही हैं.
वो कहती हैं, "फ़ेसबुक ने मुझे ये भरोसा दिया कि मैं अपने पैर पर खड़ी हो सकती हूँ. ऑनलाइन पर मुझे लोगों ने जो सपोर्ट दिया, मेरे लेखन की तारीफ़ कर के....उस बात ने मुझे बल बहुत दिया. पहले लेख के बाद कई जगहों पर लिखने का प्रस्ताव मिला तो मुझे लगा मैं आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो सकती हूँ."
अनुशक्ति सिंह राजनीतिक मुद्दों पर भी लिखती हैं और ऑनलाइन पर गालियां भी झेलती हैं लेकिन वो कहती हैं कि फ़ेसबुक ऐसा माध्यम है जहां एक आदमी टांग खींचता है तो कई और लोग सपोर्ट भी करते हैं.
अब अनुशक्ति फ्रीलांस करती हैं और अपना नया जीवन बसाने की कोशिश में लगी हुई हैं.

ऐश्वर्या जो कभी थी अनचाही बेटी

  • 20 नवंबर 2015
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पश्चिम महाराष्ट्र के सतारा ज़िले के एक गांव में रहने वाली निकिता 11 साल की हैं, लेकिन ये नाम उसे 11 बरस पहले उसके माता-पिता ने नहीं दिया. चार साल पहले 2011 में उसे ये नाम यहां की ज़िला परिषद ने दिया है.
निकिता को इससे पहले ‘नकुशा’ या ‘नकोशी’ कहा जाता था जिसका मतलब है 'अनचाही'.
बेटे की चाह रखने वाले मां-बाप अक्सर तीसरी बेटी होने पर उसे नकुशा कहते हैं ताकि इसके बाद अगर घर में बच्चा हो तो लड़का हो और किसी बेटी का मुंह ना देखना पड़े.
साल 2011 में सतारा की ज़िला परिषद ने लड़कियों के प्रति नकारात्मक रवैये को बदलने के लिए उन्हें नाम देने की रस्म अदा करने का फ़ैसला किया.
अबतक 285 नकुशाओं की पहचान हुई. उनमें से क़रीब 265 का नामकरण कर दिया गया.








उम्मीद जताई गई कि नया नाम लोगों के मन में बेटियों को अनचाही कहने की प्रवृत्ति को ख़त्म करने में मदद करेगा.
पर क्या नाम बदलने से इन लड़कियों की ज़िंदगी पर कोई असर पड़ा?
चार साल पहले नकुशा से निकिता बनने की बात उत्साह से बताते हुए 11 साल की निकिता कहती हैं कि "पहले मुझे घर पर और बाहर भी नकुशा कहा जाता था. सब मुझे नकुशा कहकर चिढ़ाते तब मुझे बहुत ग़ुस्सा आता था. फिर मेरा नामकरण निकिता कर दिया गया. अब घर और स्कूल में सब मुझे निकिता ही कहते हैं. मुझे अपना नया नाम बहुत पसंद है. मैं छठी में पढ़ती हूँ और बड़ी होकर पुलिस अधिकारी बनना चाहती हूँ."
जिन 285 लड़कियों के नाम बदले गए उनमें से ज़्यादातर की या तो शादी हो चुकी है या फिर वो पढ़ने के लिए आस-पास के ज़िलों में चली गई हैं.








13 साल की एक और लड़की जिसे चार साल पहले ऐश्वर्या नाम दिया गया, भावुक होकर कहती है "मैं अपनी माँ के साथ सतारा में नाम बदलने गई थी फिर मेरा नाम ऐश्वर्या रखा गया. नकुशा नाम मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था. मेरी चार बड़ी बहने हैं जिनमें से दो की शादी हो चुकी है. मैं रोज़ अपने गांव से पैदल चलकर स्कूल आती हूँ. मैं डॉक्टर बनना चाहती हूँ लेकिन मेरे घर में ग़रीबी है. अगर आर्थिक मदद मिली तो पढ़ाई पूरी करूंगी और डॉक्टर बनूंगी."
वो बताती हैं, "जब से मेरा नाम ऐश्वर्या रखा गया है तब से मेरे परिवार वाले और सहेलियां ऐश्वर्या कहकर पुकारते हैं. स्कूल में मेरा नाम ऐश्वर्या पड़ने पर मुझे बहुत ख़ुशी हुई."
नाम बदलने से लड़कियों के लिए सोच बदलने की ये उम्मीद क्या वाकई कारगर साबित हुई है?







Image captionऐडवोकेट वर्षा देशपांडे नामकरण की मुहिम का हिस्सा थीं.

नकुशा नामकरण की मुहिम का हिस्सा रहीं, महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली वक़ील वर्षा देशपांडे कहती हैं, "नाम रखने का मक़सद मानसिकता में बदलाव की तरफ़ एक क़दम था. मैं फिर भी उन लोगों को बुरा नहीं कहूँगी जो कम से कम लड़कियों को नकुशा कह कर भी जीने देते हैं. ज़्यादा बड़ी समस्या तो ये है कि विदेशी मशीनों के ज़रिए बेटियों को ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से मारा जा रहा है."
वर्षा बताती हैं, "हमने कन्या भ्रूण की पहचान कर उसे ख़त्म करने वाले डॉक्टरों के ख़िलाफ़ अभियान चलाया. कई डॉक्टरों के ख़िलाफ़ केस चला और चल रहा है. उनमें छह को जेल की सज़ा भी हुई है. प्रशासन पर पीसीपीएनडीटी एक्ट का सख़्त क्रियान्वयन करवाने का दबाव डाला मेरे ख़्याल से वो ज़्यादा अहम है."







Image captionज़िलाधिकारी अश्विन मुदगल मानते हैं कि नामकरण सामाजिक जागरूकता के लिए अहम साबित हुआ है.

सतारा के ज़िलाधिकारी अश्विन मुदगल कहते हैं, "2011 में नाम रखने की पहल का सबसे बड़ा असर लिंगानुपात में लड़कियों के हक़ में सुधार है. अगर आप देखें तो उस वक्त ये 881 था आज ये सुधर कर 923 हो चुका है. ये उस नामकरण कार्यक्रम का ही असर है कि उन गांवों में जहां सबसे ज़्यादा संख्या में हमें नकुशा मिलीं, वहां अब लोगों ने उन्हें नकुशा कहना बंद कर दिया है."
अश्विन कहते हैं कि "उस रस्म से जो संदेश गया और उसके बाद हमने जन्म से पहले भ्रूण की जांच नियंत्रित करने वाले क़ानून का बहुत सख़्ती से क्रियान्वयन किया. हमने क़रीब 100 सोनोग्राफ़ी सेंटर बंद कराए हैं और लगातार चेकिंग होती है."
प्रशासन का कहना है कि इन सभी लड़कियों के नाम स्कूलों में भी बदले जा चुके हैं जबकि वर्षा कहती हैं कि उनकी जानकारी के मुताबिक़ कई स्कूलों में नाम बदले नहीं जा सके हैं.
नाम बदलना लड़कियों के लिए अहम है. सामाजिक संदर्भ में उसके सकारात्मक असर से भी इंकार नहीं किया जा सकता, लेकिन अहम ये भी है कि इस तरह के कार्यक्रम क्या लड़कियों के हालात बदलकर उनके लिए नए अवसर भी पैदा कर सकेंगे.


इस सिरीज़ में बात उन महिलाओं की जिन्होंने अपने आसपास की दुनिया को बदल दिया.


बीरूबाला राभा

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बीरूबाला राभा
एक महिला की कोशिशों के चलते सरकार को कानून बनाना पड़ जाए, ऐसा कम ही होता है लेकिन असम की 62 साल की बीरूबाला की कोशिशों को नतीजा है कि वहां की विधानसभा ने पिछले दिनों डायन हत्या निषेध विधेयक पारित किया है.
बीरूबाला, डायन बताकर मार देने वाले अंधविश्वास के खिलाफ सालों से लड़ रहीं हैं और अब तक 42 से अधिक महिलाओं की जान को बचा चुकी हैं. इसके लिए उन्हें कई सम्मान भी दिए जा चुके हैं.
1996 में जब उनके बेटे को मलेरिया हुआ तो गांव के लोगों की बताई 'देवधोनी' ने इलाज करने की बजाए कहा कि बेटा मर जाएगा. बेटा ज़िंदा रहा औऱ तभी से बीरूबाला ने अंधविश्वास के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू की.

यामणि बारला

दयामणि बारला
49 साल की दयामणि बारला झारखंड में आदिवासियों के संघर्ष का चेहरा हैं. उन्होंने कोयल कारो बांध बनाने के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. अपने एक साथी के साथ बैंक लोन लेकर 'जन हक़ पत्रिका' का प्रकाशन शुरू किया ताकि आदीवासी परिपेक्ष से ख़बरें लिखी जा सकें.
दयामणि बारला का सफर इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि अपनी पढ़ाई के लिए उन्होंने दूसरे के घरों में काम किया, चाय भी बेची. इसी के बूते पर रांची विश्वविद्यालय से मास्टर्स की पढ़ाई की और अब ‘प्रभात ख़बर’और अन्य बड़े अख़बारों के लिए लिखती हैं.
साल 2014 में उन्होंने आम आदमी पार्टी की टिकट पर आम चुनाव लड़ा पर हार गईं. उन्हें पत्रकारिता के कई सम्मान भी मिल चुके हैं.

इरोम शर्मिला

इरोम शर्मिला
28 वर्ष की उम्र में इरोम शर्मिला ने देश के कई हिस्सों में लागू सैन्य सशस्त्र बल अधिकार कानून (आफ़्सपा) को हटाने की मांग के साथ आमरण अनशन शुरू किया. 15 साल बाद वो अनशन अब भी जारी है.
इरोम पर आत्महत्या की कोशिश का आरोप लगाकर उन्हें मणिपुर के एक अस्पताल में न्यायिक हिरासत में रखा गया है और जबरन नाक के ज़रिए आहार दिया जा रहा है. आफ़्सपा कानून को मणिपुर के कुछ इलाकों से हटाया गया है पर कई जगह ये अभी भी कायम है.

परवीना आहंगर

परवीना आहंगर
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर की 58 साल साल की परवीना आहंगर ने बीते दो दशक के दौरान ऐसे सैकड़ों लोगों को एकजुट किया है जिनके परिजन सालों से लापता हैं.
'एसोसिएशन ऑफ़ पैरेंट्स ऑफ़ डिसएपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी)' संस्था बनाने वाली परवीना इन लोगों के साथ हर महीने की दस तारीख को श्रीनगर के प्रताप पार्क में खामोशी से प्रदर्शन करती हैं.
महज पांचवीं तक पढ़ीं परवीना के लिए 18 अगस्त, 1990 की रात काली रात बनकर आई. परवीना का आरोप है कि सेना के जवान 17 साल के उनके बेटे जावेद अहमद आहंगर को उठा कर ले गई और अब तक उनके बेटे का पता नहीं चल पाया है.
परवीना का नाम 2005 में नोबेल शांति पुरस्कार के लिए शार्ट लिस्ट हो चुका है.
इरोम के मुताबिक इस कानून की आड़ में कई मासूम लोगों की जान ली जा रही है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इरोम के साथ हो रहे बर्ताव को मानवता के ख़िलाफ़ बताया है.

रोमा दास

रोमा दास
दिल्ली में पली-बढ़ी रोमा दास दो दशकों से उत्तर प्रदेश के सोनभद्र इलाके में जनजातीय समुदाय, महिलाओं, दलितों और अन्य अल्पसंख्यकों के हितों के लिए काम कर रही हैं.
उन्हें इस दौरान कई बार दमन का शिकार होना पड़ा है. कन्हार नदी पर बांध का विरोध करने के चलते 30 जून, 2015 में स्थानीय पुलिस ने उन्हें कई आरोप लगाकर जेल में डाल दिया. चार महीने जेल में रहने के बाद जिला अदालत ने रोमा को ज़मानत पर रिहा करने का आदेश दिया.
इससे पहले, 2007 में वह राष्ट्रीय सुरक्षा कानून, एनएसए, के तहत उत्तर प्रदेश में गिरफ़्तार होने वाली पहली महिला थीं. रोमा दास आल इंडिया यूनियन ऑफ़ फारेस्ट वर्किंग पीपुल की उप महासचिव भी हैं.

सोनी सोरी

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सोनी सोरी
बस्तर के समेली गांव की 40 साल की सोनी सोरी सितंबर 2011 में उस समय चर्चा में आईं, जब पुलिस ने आरोप लगाया कि वह एस्सार कंपनी से माओवादियों के लिए लेवी वसूलने का काम कर रही हैं.
एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका सोनी सोरी पर आठ मुकदमे दर्ज किये गये. दो साल बाद उन्हें छह मामलों में बाइज्जत बरी किया गया और दो में ज़मानत दे दी गई.
कैद के दौरान सोनी सोरी ने पुलिस पर यौन प्रताड़ना का आरोप लगाया और भूख हड़ताल भी की. जेल से बाहर आने के बाद अब वो महिला कैदियों के अधिकारों के लिए लड़ रही हैं.
साल 2014 में सोनी सोरी ने आम आदमी पार्टी की टिकट पर आम चुनाव लड़ा पर हार गईं.
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सुधा वर्गीज

सुधा वर्गीज
1965 में 15 साल की सुधा वर्गीज केरल से बिहार पहुंचीं. उन्होंने सुना था कि बिहार बहुत गरीब राज्य है और यहां मुसहर समाज के लोग चूहा पकड़कर खाते हैं.
वो बस इन लोगों को देखने आई थीं लेकिन इनकी गरीबी ने उनके जीवन को बदल दिया. सुधा वर्गीज तब से इस महादलित समाज के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की कोशिशों में लगी हैं. उन्होंने विवाह भी नहीं किया.
दानापुर के आसपास ये साइकिल वाली दीदी के तौर पर मशहूर हैं. 4 से 7 साल के मुसहर बच्चों के लिए 10 आनंद शिक्षा केंद्र, 250 स्वयं सहायता समूह और 75 किशोरी संगठन बना चुकीं सुधा को 2006 में पद्मश्री मिल चुका है.

तीस्ता सीतलवाड़

तीस्ता सीतलवाड़
तीस्ता सीतलवाड़ आतंकवाद और धार्मिक दंगों के पीड़ितों को क़ानूनी मदद देनेवाली संस्था, ‘सिटिज़न्स फॉर जस्टिस एंड पीस’ (सीजेपी) की सह-संस्थापक हैं.
साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के बाद विजय तेंदुल्कर समेत कई मुंबईवासियों के साथ बनाई सीजेपी की बदौलत 126 मामलों में दोषियों को सज़ा मिली, 68 मामलों में उम्र कैद की सज़ा हुई है.
करीयर की शुरुआत में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ जैसे अख़बारों के साथ काम करने के बाद तीस्ता ने 1993 में अपने पति के साथ मासिक पत्रिका, ‘कम्यूनलिज़म कॉमबैट’ शुरू की ताकि वो स्वतंत्र सोच से लिख सकें.
1997 से तीस्ता ने ‘खोज’ अभियान की शुरुआत की जिसका उद्देश्य इतिहास और समाज ज्ञान की बेहतर समझ बनाने के लिए वैकल्पिक पाठ्यक्रम बनाना है. तीस्ता को 2007 में पद्म श्री से नवाज़ा गया.

ज़किया सोमन

ज़किया सोमन
साल 2007 में दिल्ली में एक कॉन्फ्रेंस में करीब 500 मुस्लिम महिलाओं ने अपने नागरिक और क़ुरानी अधिकारों की मांग रखी, तो उसी का नेतृत्व करते हुए ज़किया सोमन और डॉ. नूरजहां सफ़िया नियाज़ ने मिलकर ‘भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन’ की शुरुआत की.
ज़किया सोमन और डॉ. नूर जहां सफिया निआज़ ने कौमी दंगों, घरेलू हिंसा और महिलाओं के साथ सामाजिक अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद की.
आंदोलन में इस्लाम में महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार, औरतों की शरीअत अदालतें, ज़ुबानी तलाक के खिलाफ राष्ट्रव्यापी मुहिम और भारत में मुस्लिम पारिवारिक कानून के विधिकरण के लिए कुरान पर आधारित कानून का ड्राफ्ट बनाया गया.
भारत के 13 राज्यों में फैले इस आंदोलन में अब 70,000 से ज़्यादा महिलाएं हैं.

ज़मरोदा हबीब

ज़मरोदा हबीब
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर की 55 साल की अंजुम ज़मरोदा हबीब तीन दशक से सक्रिय अलगाववादी नेता हैं.
2003 में उन्हें दिल्ली पुलिस ने पाकिस्तान से पैसे लेने के आरोप में गिरफ़्तार किया था. पांच साल तक तिहाड़ में रहीं ज़मरोदा ने 'कैदी नंबर 100' नाम से अपने अनुभवों को लिखा.
कश्मीर में हिंसा के चलते विधवा हुई महिलाओं के बीच काम करने वाली ज़मरोदा जेलों में बंद राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मुहिम भी चलाती हैं.
वह कई मानवाधिकार संगठनों से भी जुड़ी हुई हैं.
ज़मरोदाह ने अब तक शादी नहीं की है. इसकी वजह बताती हुईं ज़मरोदा कहती हैं कि कोई ऐसा मर्द नहीं मिला जो एक महिला अलगाववादी नेता से शादी करता.


'मैं बहुत कुछ लिखना चाहती हूं...बहुत कुछ बोलना चाहती हूं लेकिन नहीं कर पाती.’
जहां फेसबुक ने कई महिलाओं की आवाज़ बुलंद की है और उन्हें नई पहचान दी है वहीं ऐसी महिलाओं की भी कमी नहीं है जो चाह कर भी फेसबुक या अन्य सोशल मीडिया पर सक्रिय नहीं हो पाती हैं.


कई मामलों में पारिवारिक दबाव होता है तो कई मामलों में सामाजिक दबाव काम करता है.
अनुराधा झा जमशेदपुर की हैं और फेसबुक पर एक समय में काफी सक्रिय थीं लेकिन अब लगभग न के बराबर.


वो बताती हैं, "मैं 2010 में फेसबुक पर आई. मैं खूब लिखती थी. लाइफ में जो भी होता था वो शेयर करती थी. लेकिन शादी के बाद अब नहीं करती हूं. बहुत कम एक्टिव हूं. कभी कभार फोटो डाल देती हूं. बस और कुछ नहीं."
तो क्या इसका कारण पति की नाराज़गी है? अनुराधा हंसती हैं और कहती हैं, "आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मैं अपने पति से फेसबुक पर ही मिली थी. फिर डेढ़ साल तक परिचय रहा तब शादी हुई. अब वो थोड़ा पोजेसिव हैं मुझे लेकर, तो मना करते हैं. इसे लेकर बहस भी हुई. लेकिन इसके अलावा, जब लड़कियां कुछ लिखती हैं तो उसको अलग ढंग से लिया जाता है."
अनुराधा बताती हैं, "एक बार मैंने किसी फिल्म एक्टर के बारे में पोस्ट लिखा कि मैं इस एक्टर को पसंद करती हूं. इसके बाद मेरे ही फील्ड के एक व्यक्ति ने फ्लर्ट करना शुरु कर दिया. ये अनुभव अच्छा नहीं रहा."
अनुराधा अकेली नहीं हैं. मृग तृष्णा इस तरह के संदेशों से इतना परेशान हुईं कि उन्होंने अपना प्रोफाइल ही बदल दिया.
मृग तृष्णा ने बीबीसी हिंदी से फेसबुक के ज़रिए ही संपर्क किया. फोन पर बात करते हुए उन्होंने बताया कि मृग तृष्णा के नाम से उनकी प्रोफाइल फेक है, जहां वो अपनी कोई तस्वीर नहीं लगाती हैं क्योंकि वो नहीं चाहती हैं कि लोग उन्हें पहचानें.


वो कहती हैं, "देखिए मैं पहले अपने नाम से फ़ेसबुक पर थी. हिंदी साहित्य, कविताओं, राजनीति पर लिखती थी. लेकिन जब आप खुलकर लिखते हैं तो लोग समझते हैं कि आप अवेलेबल हैं. कई संदेश इनबॉक्स में आए कि मैं आपके साथ सिगरेट पीना चाहता हूं चांदनी रात में. ये सम्मानित लोग थे मेरी नज़र में...मैं कुछ कह नहीं सकी. ऐसे कई अनुभवों के बाद मैंने प्रोफाइल हटा लिया और दूसरी प्रोफाइल बनाई. फेसबुक ज़रुरत है, दूर रह नहीं सकते, लेकिन अपनी प्राइवेसी बचा कर एक्टिव रहती हूं."
मृग तृष्णा पिछले कुछ सालों से इसी प्रोफाइल से एक्टिव हैं लेकिन अब अपनी ऐसी कोई तस्वीर नहीं लगातीं जिसमें उनका चेहरा दिखता हो. इस तरह से वो अपनी प्राइवेसी भी बचा लेती हैं और लोगों के आपत्तिजनक मैसेजों से भी बच पाती हैं.
निधि शर्मा जामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही हैं.
वो कहती हैं कि फेसबुक आज के जमाने की सच्चाई है और इससे दूर नहीं रहा जा सकता, लेकिन इसके बावजूद लड़कियों के लिए खुलकर लिखना मुश्किल है.
निधि ने उनको आने वाले कई आपत्तिजनक मैसेज बीबीसी के साथ शेयर भी किए जिन्हें हम प्रकाशित नहीं कर सकते हैं.


वो कहती हैं, "मैं ज्यादा लिखती भी नहीं हूं. जो तस्वीरें शेयर करती हूं वो भी दोस्तों के साथ ही करती हूं लेकिन इसके बावजूद गंदे मैसेज आते हैं फेक आइडी से."
लेकिन इससे आपका लिखना कैसे रुक जाता है?
निधि कहती हैं, "अरे जब लिखती नहीं हूं तो इतने गंदे मैसेज आते है, सोचिए राजनीतिक पर टिप्पणी करते हुए कोई पोस्ट लिखी तो और तंग करेंगे लोग. ये डर है. इनबॉक्स में ऐसे लोग भी मैसेज लिखते हैं जो मेरी मित्र सूची के लोगों के दोस्त हैं. मैंने डांटा भी हैं कुछ को. एक दो तो ऐसे लोग हैं जो अच्छा लिखते हैं अपने फेसबुक पर वो भी इनबॉक्स में गंदी बातें लिखते हैं."
निधि बताती हैं कि जब मैसेज में डांटो तो लोग यहां तक कहते हैं कि जब आप चैट में इंट्रेस्टेड नहीं हो तो फेसबुक पर क्यों हो?
निधि बताती हैं कि परिवार का दबाव होता है और वो समझाते हैं कि हम लोग अपनी तस्वीरें न डालें.
निधि कहती हैं कि वो बहुत क्रांतिकारी बातें नहीं लिखना चाहती हैं और न ही कोई बड़ी बात करना चाहती हैं, बल्कि एक आम लड़की की तरह फेसबुक पर रहना चाहती हैं. लेकिन इनबॉक्स के गंदे मैसेज उन्हें परेशान कर देते हैं.
वो कहती हैं कि अगर माहौल बेहतर होता लड़कियों के लिए तो शायद वो ज्यादा लिखतीं, या फिर लिखने के बारे में और ज़रूर सोचतीं.



इस सिरीज़ में बात उन महिलाओं की जिन्होंने उन क्षेत्रों में अपना क़दम रखा जो अब तक केवल पुरुषों के लिए मान्य माने जाते थे.

अरुणिमा सिन्हा

अरुणिमा सिन्हा
अप्रैल 2011 को ट्रेन से लखनऊ से नई दिल्ली के सफ़र के दौरान राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल खिलाड़ी अरुणिमा सिन्हा को अपराधियों ने लूटमार के बाद पद्मावती एक्सप्रेस से बरेली के पास नीचे फेंक दिया.
इस हादसे में अरुणिमा को एक पांव गंवाना पड़ा. लेकिन उनके हौसले कम नहीं हुए.
करीब दो साल की कड़ी मेहनत के बाद मई 2013 में उन्होंने माउंट एवरेस्ट की चोटी फ़तह कर ली. एवरेस्ट की ऊंचाई तक पहुंचने वाली वह भारत की पहली विकलांग महिला एथलीट हैं.
इसके अलावा उन्होंने दक्षिण अफ्रीका, रूस और ऑस्ट्रेलिया की सबसे ऊंची चोटियों को भी फ़तह किया है.
अरुणिमा की जीवटता और उनकी उपलब्धियों को देखते हुए भारत सरकार ने 2015 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया.

बेनो ज़फीन

बेनो ज़फीन
‘मेरे पास दृष्टि नहीं थी, लेकिन सिविल सेवा में जाने की दृष्टि थी.’ ये कहना है बेनो ज़फीन एन.एल. का, जो 100 फ़ीसदी नेत्रहीनता के बावजूद विदेश सेवा की अधिकारी बनी हैं.
69 साल के विदेश मंत्रालय के इतिहास में पहली बार 100 फ़ीसदी नेत्रहीन को अधिकारी पद की नियुक्ति मिली है.
25 साल की ज़ेफीन इससे पहले भारतीय स्टेट बैंक में प्रोबेशनरी ऑफ़िसर के रूप में काम कर रही थीं. बेनो के मुताबिक महिलाएं किसी भी मामले में पुरुषों से कम नहीं होतीं.
बेनो 2008 में अमरीका में आयोजित ‘ग्लोबल यंग लीडर्स कांफ्रेंस’ में हिस्सा ले चुकी हैं और इसके बाद ही उनका आत्मविश्वास काफी बढ़ा.
उन्हें ‘डेक्कन क्रानिकल’ की ओर से ‘वुमन ऑफ़ द ईयर’ का सम्मान मिल चुका है.

भारती सिंह

भारती सिंह
भारती सिंह भारत की पहली कामयाब महिला स्टैंडअप कॉमेडियन हैं. पंजाब के अमृतसर में जन्मीं भारती ने इतिहास में मास्टर्स की पढ़ाई की है.
कॉलेज के दिनों में भारती पिस्टल शूटिंग की गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी रही हैं. इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्तर की तीरंदाज़ी प्रतियोगिताओं में भी हिस्सा लिया.
पैसों की तंगी की वजह से खेल छोड़कर उन्होंने टीवी रियलिटी शो की दुनिया में क़दम रखा और देखते देखते अपनी पहचान बना ली.
टीवी पर कामयाब होने के बाद भारती सिंह ने फ़िल्मों में काम करना शुरू किया. उन्हें टीम अभिनय के लिए कई अवार्ड मिल चुके हैं.
भारती ने अपने सफ़र में मोटापे को भी आड़े नहीं आने दिया. वह कहतीं है कि जब आप ख़ुद पर हंसना सीख जाते हैं तो लोग क्या कहते हैं उससे फर्क नहीं पड़ता.


महिला जो 'वेजाइना मोनोलॉग्स' को भारत ले आईं


अनविता दत्त

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अनविता दत्त
14 सालों तक विज्ञापन की दुनिया में काम करने और फ़िल्मों में काम करने के ख़्वाब देखने के बाद अनविता दत्त को 2006 में बॉलीवुड में ब्रेक मिला. पिछले दशक के करियर में अनविता ने लोकप्रिय गीतों से लेकर दमदार डॉयलाग तक लिखे हैं.
अनविता आदित्य चोपड़ा, करण जौहर और विक्रमादित्य मोटवाने सहित प्रमुख निर्माताओं के साथ काम कर चुकी हैं. उनका काम पॉपुलर भी हुआ है और सराहा भी गया है.
बॉलीवुड में बतौर लेखक, महिलाएं कम ही हैं. लेकिन अनविता के मुताबिक इसका कतई ये मतलब नहीं कि इस काम में कोई लिंगभेद है या वहां पुरुषों का वर्चस्व है. उनका कहना है, 'फ़िल्मों में ना कोई पुरुष लेखक होता है, ना महिला लेखक, बस लेखक होते हैं.'
वह अपने काम को जेंडर के चश्मे से देखा जाना पसंद नहीं करतीं. वह कहती हैं, 'बॉलीवुड ऐसी इंडस्ट्री है, जहां आपको क्षमता की बदौलत काम मिलता है, जेंडर की बदौलत नहीं.'

बेबी हल्दर

बेबी हल्दर
भारत प्रशासित कश्मीर में पैदा हुईं बेबी हल्दर, शायद पहली ऐसी महिला हैं जिन्होंने एक घरेलू कामगार होने के बावजूद अपनी आत्मकथा लिखी.
एक ग़रीब परिवार में पली-बढ़ीं बेबी ने सातवीं कक्षा तक पढ़ाई की. मां के गुज़रने के बाद पढ़ाई छूट गई. 13 साल की उम्र में पश्चिम बंगाल में शादी हुई. 14 साल में वो मां बन गईं और घर का खर्च चलाने के लिए दूसरों के यहां काम करना पड़ा.
पति के बुरे बर्ताव की वजह से उन्होंने घर छोड़ दिया और दिल्ली आ गईं. दिल्ली में ऐसे शख़्स के घर काम मिला जिन्होंने बेबी को उनकी ज़िंदगी के बारे में लिखने को प्रेरित किया. यही संस्मरण ‘आलो अंधारी’, के तौर पर प्रकाशित हुई.
अब तक उनकी आत्मकथा 26 भाषाओं में छप चुकी है. इसके बाद वो दो और किताबें लिख चुकी हैं. अब बेबी एक सामाजिक सरोकार से जुड़ी संस्था में काम कर रही हैं.
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कुट्टी रेवती

कुट्टी रेवती
तमिल साहित्य जगत और विश्व साहित्य के बीच कविताओं और राजनीति की दुनिया में कुट्टी रेवती ने अपनी नई पहचान बनाई है.
वे महिलाओं के शरीर और उस पर होने वाली राजनीति, जिसपर तमिल साहित्य जगत मौन ही रहा है, पर काफी मुखरता से अपनी बात कहती हैं.
महिलाओं, दबे- पिछड़ों के अलावा कुट्टी दलितों के हितों के लिए भी आवाज़ उठाती रही हैं.
महिलाओं के लेखन को बढ़ावा देने के लिए उन्होंने तमिल साहित्य में औरतों के लेखन का त्रैमासिक, ‘पानीकुडम’ शुरू किया.
इस पत्रिका में महिलाएं परिवार, राजनीति और कारोबार के मुद्दे पर लिखती हैं.
कुट्टी अब तक आठ कविता संकलन और छह डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बना चुकी हैं. वे एआर रहमान के लिए भी गीत लिख चुकी हैं.
कुट्टी रेवती पेशे से सिद्ध चिकित्सिका भी हैं और तमिल फ़िल्मों के लिए स्क्रिप्ट और गीत भी लिख रही हैं.

माहबानो मोदी

माहबानो मोदी
महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर ईव इंसलर के बहुचर्चित नाटक ‘द वेजाइना मोनोलॉग्स’ को भारत में पहले पहल लाने का साहस किया था माहबानो मोदी ने.
वेजाइना (योनि) के माध्यम से स्टेज पर यौनिकता, यौन हिंसा और औरतों के शरीर पर खुली चर्चा साल 2003 में भारतीय समाज के लिए क्रांतिकारी कदम था.
लेकिन माहबानो अपने बेटे डॉ. कैज़ाद कोतवाल के साथ ना केवल इस नाटक को भारत में लेकर आईं बल्कि इसे अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी में भी मंचित करने का साहस दिखाया.
बीते 12 सालों से माहबानो इस नाटक की निर्माता, निर्देशक और अभिनेत्री की भूमिका निभा रही हैं.
माइक्रोबॉयलॉजी-केमेस्ट्री और जियोलॉजी-केमेस्ट्री में उच्च शिक्षा प्राप्त कर माहबानो अमरीका में अपने सफल करियर को छोड़कर महाराष्ट्र में महिलाओं को जागरूक बनाने और प्रताड़ना की पीड़ित महिलाओं के लिए पैसा इकट्ठा करने के काम में जुटी हैं.
उन्होंने ‘ब्लैक’, ‘बुड्ढा मर गया’, ‘शिरीन फरहाद’ समेत भारत और विदेश की कई फ़िल्मों में काम किया है.

मीना कंडसामी

मीना कंडसामी
मीना कंडसामी कवियत्री हैं, लेखिका हैं और आंदोलनकारी भी. वह जाति उन्मूलन, भाषाई पहचान और महिलाओं के मसले पर साहस और मुखरता के साथ अपनी बात रखती हैं.
उनके दो कविता संग्रह 'टच' और 'मिस मिलिटेंसी' और एक उपन्यास 'द जिप्सी गॉडेस' प्रकाशित हो चुके हैं.
मीना केंट यूनिवर्सिटी में ‘ब्रिटिश काउंसिल-चार्ल्स वॉलेस इंडिया ट्रस्ट फेलो’ रह चुकी हैं.
इतना ही नहीं आयोवा यूनिवर्सिटी के अंतरराष्ट्रीय लेखन कार्यक्रम, 2009 की सबसे कम उम्र की ‘राइटर-इन-रेज़ीडेंस’ रहीं थीं.
मीना पीटसबर्ग के ‘सिटी ऑफ़ असायलम जैज़ पोएट्री कंसर्ट’ और 14वें ‘पोएट्री अफ़्रीका इंटरनेशनल फेस्टिवल’ में भी कविता पढ़ चुकी हैं.
मीना केरल के दलित क्रांतिकारी अयंकली की आत्मकथा की सह-लेखिका हैं और इससे पहले द्विमासिक अंग्रेज़ी पत्रिका, ‘द दलित’ की संपादक रही हैं.

मिठू सेन

मिठू सेन
मिठू सेन शांति निकेतन और ग्लासगो स्कूल ऑफ़ आर्ट से पढ़ी हुई कलाकार हैं.
मिठू के काम का दायरा विशाल है, जो चित्रकला, वीडियो, स्थापत्य, इंस्टॉलेशन, कविता, साउंड और परफॉर्मेंस तक फ़ैला हुआ है.
वे अपनी कला के ज़रिए यौनिकता, राजनीतिक, क्षेत्रीय, भावनात्मक और भाषाई पहचान से जुड़े मसलों पर समाज द्वारा थोपे जा रहे रवैये पर सवाल उठाती हैं.
उनकी कई कलाकृतियों में कामुकता मुखर हो कर उभरती है. इस बहाने मिठू लोगों को जटिल मुद्दों पर सोचने पर विवश करती हैं.
मिठू के कला की प्रदर्शनी दुनिया भर की प्रमुख आर्ट गैलरियों में लग चुकी है.
इसके अलावा उन्हें समकालीन एशियाई कला के लिए 2015 का ‘प्रूडेंशियल आई अवॉर्ड’ और 2010 में समकालीन भारतीय कला का ‘स्कोडा अवॉर्ड’ मिल चुका है.

निशा पाहूजा

निशा पाहूजा
‘एम्मी’ सम्मान के लिए नामांकित निशा पाहूजा, दिल्ली में जन्मी और टोरंटो में पली बढ़ी हैं. उन्होंने डॉक्यूमेंट्री रिसर्चर के तौर पर शुरुआत की, लेकिन जल्दी ही वह फ़िल्ममेकर बन गईं.
उनकी डॉक्यूमेंट्री फिल्में ‘बॉलीवुड बाउंड’ जेमिनी सम्मान के लिए नामांकित हुई और हीरे के कारोबार पर बनी फिल्म 'डायमंड रोड' ने ये सम्मान हासिल किया.
लेकिन उनकी तीसरी फिल्म 'द वर्ल्ड बिफ़ोर हर' सबसे असरदार रही. ये फ़िल्म दो लड़कियों की कहानी है, जिसमें एक मिस इंडिया का ख़िताब जीतना चाहती हैं और दूसरी हिंदू राष्ट्रीय संगठन दुर्गा वाहिनी कैंप से जुड़ी हैं.
इन दोनों कहानियों पर बनी ये फ़िल्म दुनिया भर के 130 फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शित हो चुकी है. ‘ट्रिबेका फ़िल्म समारोह’, 2012 में इसे ‘बेस्ट डॉक्यूमेंट्री’ का पुरस्कार भी मिला.
निशा पाहूजा अब इस फिल्म को भारत में दिखाने के अलावा पुरुषत्व के मुद्दे पर अपनी अगली फिल्म, 'सेंड अस यॉर ब्रदर' पर काम कर रही हैं.
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पारो आनंद

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पारो आनंद
भारत की शीर्ष लेखिकाओं में एक हैं पारो आनंद, जो मुश्किल परिस्थितियों का सामना कर रहे किशोरों पर विस्तार से लिखती रही हैं.
पारो आनंद रचनात्मकता को बढ़ावा देने के लिए 'लिट्रेचर इन एक्शन' नाम से कार्यक्रम चलाती हैं.
उनका उपन्यास ‘नो गन्स ऐट माय सन्स फ्यूनरल’, हिंसा के बीच बढ़ते हुए एक किशोर की कहानी है.
इसे ‘आईबीबीवाय ऑनर लिस्ट’, 2006 में शामिल किया गया था. इस उपन्यास पर फ़िल्म बन चुकी है और इसका जर्मन और स्पैनिश भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है.
पारो ‘राष्ट्रीय बाल साहित्य केंद्र’ की प्रमुख भी हैं. उन्होंने 3,000 बच्चों की मदद कर दुनिया का सबसे लंबा समाचार पत्र भी तैयार करवाया है, जिसके लिए राष्ट्रपति भी उन्हें सम्मानित कर चुके हैं.

प्रकृति करगेती

प्रकृति करगेती
प्रकृति करगेती मौजूदा दौर की उभरती हुई कवियत्री हैं. दसवीं के बाद कविता लिखने का उनका दौर शुरू हुआ जो दिल्ली में कई पोएट्री क्लब से जुड़ने के बाद बढ़ता ही गया.
उनकी कविताएं ‘हंस’, ‘आलोचना’ और ‘पब्लिक एजेंडा’ जैसी हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. हंस में प्रकाशित उनकी पहली ही कविता ‘उग्रवाद’ ने लोगों का ध्यान खींचा था.
‘उग्रवाद’ का विषय था माहवारी चक्र, लेकिन प्रकृति ने इसे ख़ूबसूरती से उग्रवाद की क्रांति के साथ जोड़ दिया.
पेशे से टीवी पत्रकार, प्रकृति कविताओं के माध्यम से जो बात नहीं कह पातीं, उसे लघु कथाओं के ज़रिए भी कह रही हैं.
हंस के जनवरी, 2015 अंक में छपी उनकी कहानी को ‘राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान’ मिला है.

उर्मिला पवार

उर्मिला पवार
महाराष्ट्र के कोंकण में एक दलित परिवार की उर्मिला पवार अपने विद्रोही लेखन के लिए जानी जाती हैं.
उनकी आत्मकथा 'आयदान' को मराठी साहित्य में बेहद अहम माना जाता है और यह 2009 से ये अमरीका के कोलंबिया विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम का हिस्सा है. इसका अंग्रेज़ी और स्वीडिश भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है.
उनकी इस आत्मकथा को कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं. इतना ही नहीं उर्मिला ‘महाराष्ट्र साहित्य परिषद’ पर वर्णवाद का आरोप लगाते हुए उनके 'लक्ष्मीबाई तिलक पुरस्कार' को नकार चुकी हैं.
आंबेडकरवादी आंदोलन में महिलाओं के सहभाग पर मीनाक्षी मून के साथ लिखा उनका ग्रंथ 'हमने भी इतिहास रचा' मील का पत्थर माना जाता है. उसके बाद उनकी कई एकांकिकाएं, समीक्षा और कथालेखन प्रकाशित हो चुके है.
पिछले साल उनकी आत्मकथा पर उसी नाम से एक नाटक भी मंचित किया गया है.

मैंने मंडप में अपनी शादी क्यों तोड़ी?

  • 25 नवंबर 2015
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बनारस की एक छोटी सी बस्ती में है धनलक्ष्मी का बसेरा. इस साल उनकी शादी सिंगापुर में काम कर रहे एक लड़के से तय हुई थी.
शादी की तैयारियाँ हो चुकी थीं. दुल्हन के लिबास में धनलक्ष्मी सज-संवरकर मंडप में आईं तो सही लेकिन भरे मंडप में शादी तोड़ दी.
हालांकि धनलक्ष्मी के लिए इस बारे में बात करना आसान नहीं था लेकिन वह बताती हैं, "मेरे पिता ने दहेज में पैसे दिए थे लेकिन शादी के दिन लड़के वालों ने और पैसे मांगे और तमाशा किया. मैने शादी से मना कर दिया."
अब धनलक्ष्मी जीवन में आगे बढ़ना चाहती हैं, नौकरी करना चाहती हैं पर शादी में अभी उन्हें दिक़्क़त आ रही है.
धनलक्ष्मी कहती हैं, "रिश्ते के लिए जो भी आता है यही सोचता है कि उनके साथ भी मैं यही करूँगी. पर मुझे अपने फ़ैसले पर अफ़सोस नहीं."
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इस तरह शादी तोड़ने वाली धनलक्ष्मी अकेली नहीं हैं. पिछले कुछ समय से बदलाव की एक धीमी बयार चल रही है, जहाँ कई महिलाओं ने सामाजिक ऊँच-नीच की परवाह किए बग़ैर शादी तोड़ने का फ़ैसला किया.
उत्तर प्रदेश में अमेठी के जगदीशपुर गाँव की रहने वाली रूपा आठवीं पास हैं.
किताबी पढ़ाई भले उन्होंने कम की हो पर जब ज़िंदगी की पाठशाला में सही-ग़लत का फ़ैसला करने की बारी आई तो रूपा ने इस कमी को आड़े नहीं आने दिया.
इस साल जून में रूपा की शादी पास के गाँव के लड़के से तय हुई. तैयारियाँ पूरी थीं पर ऐन मौक़े पर रूपा ने शादी से इनकार कर दिया.
रूपा बताती हैं, "शादी के दिन मैंने देखा कि वह बुरी तरह झूल रहा था, उसने शराब पी रखी थी. बारातियों ने भी शराब पी रखी थी."
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कुछ हिचकिचाहट लेकिन आत्मविश्वास भरे स्वर में रूपा बताती हैं, "मैने सोचा कि इस इंसान के साथ मैं ज़िंदगी कैसे बिता सकती हूँ. मेरे घर के लोगों ने मेरा साथ दिया. मैं चाहती हूँ मेरा जीवनसाथी ऐसा हो जो पढ़ा-लिखा हो, संस्कारी हो और समझदार हो."
शादी-ब्याह के मामले में आज भी भारतीय समाज काफ़ी हद तक परंपरावादी माना जाता है, जहाँ तय होने के बाद शादी तोड़ने का विकल्प औरतों के पास कम ही होता है.
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Image captionचैताली की शर्त थी कि माँ-बाप शौचालय देंगे तभी करेंगी शादी
अब धनलक्ष्मी और रूपा जैसी महिलाएँ अलग-अलग वजहों से आवाज़ बुलंद कर रही हैं.
महाराष्ट्र निवासी 25 साल की चैताली को शादी से पहले ही पता चल गया था कि ससुराल में शौचालय नहीं है.
बीबीसी को उन्होंने बताया, "मैं बहुत डर गई थी कि क्या मुझे खुले में शौच के लिए जाना होगा. मैने माँ-बाप से साफ़-साफ़ कह दिया कि शादी में गहने, फ्रिज, टीवी न दें, एक शौचालय गिफ़्ट कर दें वरना शादी नहीं करूँगी."
गर्व भरे अंदाज़ में चैताली में बताती हैं, "शादी के मंडप में प्रीफ़ैब्रिकेटिड टॉयलेट रखा गया था, जो हर किसी के लिए एक अनोखी चीज़ थी."
कुछ इसी तरह उत्तर प्रदेश के रामपुर की रहने वाली एक महिला ने इसलिए शादी तोड़ दी थी क्योंकि ठीक जयमाला के वक़्त दूल्हा मिर्गी का दौरा पड़ने पर बेहोश होकर गिर गया था.
दुल्हन का तर्क यही था कि उसे शादी से पहले बीमारी के बारे में क्यों नहीं बताया गया.
दिल्ली में रहने वाली श्रीमोई पियू कुंडु 'द सिताज़ कर्स' जैसी बेस्टसेलर किताब लिख चुकी हैं.
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श्रीमोई कहती हैं, "मैंने सगाई तोड़ने का फ़ैसला किया था. वह मुझे प्रताड़ित करता था. मुझे धीरे-धीरे अहसास हुआ कि उसे सिर्फ़ मेरे जिस्म से मतलब था. वह चाहता था कि मैं अपना करियर भी छोड़ दूँ."
वह मानती हैं कि बदलाव ज़रूर आया है लेकिन रास्ता अभी बहुत लंबा है.
वह कहती हैं, "मेरे लिए रिश्ता तोड़ना आसान नहीं था. पता नहीं क्यों औरतें प्रताड़ना को मौन होकर सह लेती हैं, जैसे यह कोई शर्म की बात हो. यह सच है कि महिलाएँ भावनात्मक तौर पर अपने प्रति पहले से ज़्यादा आश्वस्त हैं, आर्थिक रूप से आज़ाद होने लगी हैं लेकिन फिर भी मैं कहूँगी कि कितनी महिलाएँ शादी तोड़ने का फ़ैसला कर पा रही हैं. भारत में पुरुष और महिलाएँ कभी बराबरी पर नहीं तोले जाएँगे. हाँ, अपनी बात मनवानी है तो लड़ते रहना होगा."
समाजशास्त्री और महिला अधिकारों से जुड़े मसलों पर काम करने वाले इसे औरतों की नई उड़ान के रूप में देखते हैं.
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सामाजिक कार्यकर्ता जगमती सांगवान कहती हैं, "महिलाएँ अब अपनी इच्छाएँ और आकांक्षाएँ न सिर्फ़ जताने लगी हैं बल्कि मनवाने भी लगी हैं. एक इंसान को जो हक़ मिलने चाहिए उसकी आकांक्षा अब महिलाओं में जन्म ले चुकी है. वे एक सीमा से ज़्यादा बंदिशें स्वीकार नहीं करतीं. उन्हें समाज का पलटवार भी झेलना पड़ता है लेकिन समाज में एक बदलाव ज़रूर आ रहा है."
मसलन हाल ही में हुई एक घटना में शादी के दिन दूल्हा गणित का एक साधारण सा सवाल हल नहीं कर पाया जो दुल्हन लवली ने दिया था. इसी बात पर शादी तोड़ दी गई.
ज़ाहिर है लवली जैसी महिलाएँ अब ज़िंदगी के गणित में नुक़सान उठाने को तैयार नहीं हैं.





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चारू खुराना


चारू खुराना एक स्वतंत्र मेक अप आर्टिस्ट हैं जिन्होंने फ़िल्म जगत में महिलाओं के साथ भेदभाव के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई. लैंगिक समानता को लेकर शुरू की गई उनकी मुहिम को तब कामयाबी मिली जब सुप्रीम कोर्ट ने महिला मेकअप आर्टिस्ट्स को भी पुरुषों की तरह काम करने की इज़ाजत देने संबंधी फ़ैसला सुनाया.
चारू की कोशिशों के चलते 50 साल के बाद महिला मेकअप आर्टिस्ट्स के लिए बॉलीवुड के दरवाजे खुले.
सिनेमा मेकअप स्कूल, लॉस एंजलिस, अमरीका से मेकअप में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने वाली चारू ने एक दशक से भी ज़्यादा समय के दौरान चारू ने कमल हसन, अभिषेक बच्चन, करीना कपूर और विक्रम विजय जैसे कलाकारों के साथ काम किया.
दो बच्चों की मां चारू अभी भी महिला अधिकार से जुड़े मामलों के लिए सक्रिय हैं.

हेतल दवे

27 साल की हेतल दवे भारत की पहली महिला सूमो पहलवान हैं. उन्होंने 2009 में ताइवान में आयोजित विश्व सूमो कुश्ती प्रतियोगिता में पांचवां स्थान हासिल किया था.
सूमो कुश्ती को भारत में मान्यता प्राप्त खेल का दर्ज़ा हासिल नहीं है, इसके चलते हेतल कई प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाती हैं.
इस वजह से इन्हें प्रायोजक भी नहीं मिलते. इन चुनौतियों के बावजूद हेतल 2008 में ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स’ में अपना नाम दर्ज करा चुकी हैं.
भारत में महिला सूमो खिलाड़ी नहीं होने की वजह से इन्हें पुरुष सूमो खिलाड़ियों के साथ प्रशिक्षण करना पड़ता है. हेतल अलग अलग स्कूलों में छात्रों को कुश्ती और जूडो का प्रशिक्षण भी देती हैं.

इरा सिंघल

इरा सिंघल 2014 की सिविल सर्विसेज़ परीक्षा की टॉपर हैं.
32 साल की इरा ने स्कॉलोसिस की बीमारी को अपने राह की बाधा नहीं बनने दी और वह भारत की सबसे बड़ी सेवा की परीक्षा में टॉप करने वाली पहली विकलांग हैं.
मज़बूत हौसलों वाली इरा ने दिल्ली से एम.बी.ए. की पढ़ाई की थी और कैडबरी कंपनी में नौकरी भी की. पर बचपन से देश की सेवा करने का सपना साकार करने के लिए उन्होंने सिविल सेवा की परीक्षा दी.
2010 में भारतीय राजस्व सेवा में चयनित हुई थीं लेकिन उनकी विकलांगता को आधार बताते हुए उन्हें नियुक्ति नहीं दी गई थी.
इस फ़ैसले के विरोध में इरा ने ‘सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रायब्यूनल’ का दरवाज़ा खटखटाया. चार साल बाद आखिर इरा को जीत मिली और इसने दूसरे विकलांग लोगों के लिए भी रास्ता खोल दिया है.

पार्बती बरूआ

असम के गोलपाड़ा ज़िले की पार्बती, बरूआ राजघराने से संबंधित हैं. लेकिन इन्होंने ऐसे काम को चुना जिसे पुरुषों का काम समझा जाता रहा है. ये काम था हाथियों को संभालने का. पार्बती बरूआ महावत बनीं और उन्हें आज हाथियों की रानी भी कहा जाता है.
पार्बती बरूआ का अधिकांश समय हाथियों को सिखाने और उनकी देखरेख में व्यतीत होता है. वह भारत की अकेली महिला महावत हैं.
इन्हें 1989 में ‘यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम’ में ‘ग्लोबल 500 रोल ऑफ़ ऑनर’ पुरस्कार मिला था.
पार्बती पर ब्रिटिश पर्यावरणविद मार्क शैंड ने एक किताब लिखी जो बेहद चर्चित हुई और बीबीसी ने उनपर एक डॉक्यूमेंट्री भी बनाई है.

रासीला वढेर

रासीला वढेर 2007 में वन्य विभाग की महिलाओं के पहले सुरक्षा दस्ते में शामिल हुईं. एक परंपरागत परिवार में जन्मीं रासीला के जीवन का मतलब शादी करना और परिवार के लिए भोजन बनाना भर ही था.
2007 में वन्य विभाग को गार्डों की तैनाती हो रही थी, रासीला अपने भाई को परीक्षा दिलाने ले गईं और वन्य विभाग ने रासीला को ही गार्ड के तौर पर चुन लिया.
पहले तो उन्हें दफ़्तर के काम में लगाया गया लेकिन बाद में उनकी फ़ील्ड में तैनाती शुरू हुई.
रासीला अब तक 900 जानवरों का जीवन बचा चुकी हैं, इनमें 200 से ज़्यादा शेर और 425 के करीब तेंदुए शामिल हैं.
हाल ही में रासीला ने डिस्कवरी चैनल की चार भाग की सीरीज़ में अहम रोल अदा किया है.

रासीला वढेर

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रासीला वढेर 2007 में वन्य विभाग की महिलाओं के पहले सुरक्षा दस्ते में शामिल हुईं. एक परंपरागत परिवार में जन्मीं रासीला के जीवन का मतलब शादी करना और परिवार के लिए भोजन बनाना भर ही था.
2007 में वन्य विभाग को गार्डों की तैनाती हो रही थी, रासीला अपने भाई को परीक्षा दिलाने ले गईं और वन्य विभाग ने रासीला को ही गार्ड के तौर पर चुन लिया.
पहले तो उन्हें दफ़्तर के काम में लगाया गया लेकिन बाद में उनकी फ़ील्ड में तैनाती शुरू हुई.
रासीला अब तक 900 जानवरों का जीवन बचा चुकी हैं, इनमें 200 से ज़्यादा शेर और 425 के करीब तेंदुए शामिल हैं.
हाल ही में रासीला ने डिस्कवरी चैनल की चार भाग की सीरीज़ में अहम रोल अदा किया है.

सुषमा वर्मा

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लखनऊ की सुषमा वर्मा ने गरीबी और अभाव को अपने पढ़ाई की राह में बाधा नहीं बनने दिया. सफाई कर्मचारी के बेटी सुषमा सबसे कम उम्र में मास्टर्स की डिग्री हासिल करने वाली भारतीय छात्रा हैं.
उन्होंने महज़ 15 साल की उम्र में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर यूनिवर्सिटी, लखनऊ से माइक्रोबायॉलजी में एम.एस.सी. की डिग्री हासिल की.
इससे पहले महज़ 13 साल की उम्र में सुषमा ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से स्नातक किया था. दस साल की उम्र में वह इंटरमीडिएट की पढ़ाई पूरी कर चुकी थीं.
2000 में सात साल की उम्र में मैट्रिक करने पर सुषमा का नाम सबसे कम उम्र में मैट्रिक करने के चलते ‘लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स’ में दर्ज किया गया.

अब करूंगी तेरे साथ गंदी बात..

  • 2 घंटे पहले





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"वो कहते हैं न पर्सनल इज़ पॉलिटिकल...तो बस ये मेरा पर्सनल यानी निजी मुद्दा था और मैंने फ़ैसला किया कि मैं समाज की सभी बहनों के लिए यह लड़ाई लड़ूंगी."
मिलिए मुमताज़ शेख़ से जो भारत की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले शहर मुंबई में महिलाएं के पेशाब करने की जगह के लिए लड़ रही हैं.
आप सोच रहे होंगे कि रोज़मर्रा की एक ज़रूरत को महिलाओं को हक़ के रूप में क्यों मांगना पड़ा है?



वह इसलिए क्योंकि सार्वजनिक शौचालयों में मूत्रालय के इस्तेमाल के लिए पुरुषों से पैसा नहीं लिया जाता जबकि महिलाओं से पैसे लिए जाते हैं. मुमताज़ शेख़ इसे बदलने के लिए एक नई मुहिम चला रही हैं.
मुंबई में बस्तियों की पतली गलियों में सरपट चलते हुए मुमताज़ कहती हैं, "मुंबई शहर सोता नहीं है, लेकिन जो लोग इस शहर को संवारने में अपने दिन-रात गुज़ार देते हैं, उनकी मूलभूत ज़रूरतों पर ध्यान नहीं दिया जाता. ख़ासतौर पर महिलाओं की. वैसे तो पर्याप्त सार्वजनिक शौचालय हैं नहीं, और जो हैं भी वो महिलाओं से पेशाब करने के भी पैसे मांगते हैं. क्यों दूं मैं पैसे? सिर्फ़ इसलिए कि एक महिला होने के नाते मुझे पेशाब जाने के लिए भी एक चारदीवारी की ज़रूरत पड़ती है."
मुंबई की बस्तियों में अगर सुबह के वक़्त देखें तो हर सार्वजनिक शौचालय के बाहर महिलाओं की लंबी क़तार दिखती है.
इन महिलाओं की हर दिन की शुरुआत इसी तरह होती है. सुबह शौचालय जाने के लिए इन्हें लगभग आधा घंटा इस क़तार में इंतज़ार करना पड़ता है, क्योंकि मुंबई की बस्तियों के घरों में शौचालय ही नहीं हैं.



क़तार में खड़ी महिलाओं के चेहरे पर ग़ुस्सा साफ़ झलकता है. शौचालय का इस्तेमाल कर जैसे ही वो बाहर आती हैं, तो वहां रखी मेज पर दो रुपए का सिक्का रख घर की ओर निकल पड़ती हैं.
झल्लाते हुए कहती हैं, "आदमी का क्या है, वो तो कहीं भी दीवार के आगे खड़े हो जाते हैं, लेकिन हम महिलाएं क्या करें? हर दिन अगर पांच बार भी जाना हो तो 10 रुपए लगते हैं. हम ग़रीब कहां से लाएं इतना पैसा? पूरा दिन टॉयलेट न जाने के लिए पानी तक नहीं पीते हम."
मुंबई में कई महिलाएं पैसे बचाने के लिए शौचालयों की जगह खुले में पेशाब करने जाती हैं. लेकिन वो ये भी जानती हैं कि सुरक्षा के नज़रिए से यह उनके लिए जोखिम भरा हो सकता है.
भारत में पिछले कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जब एकांत में पेशाब करने जा रही महिलाएं बलात्कार का शिकार हुई हैं.
पिछले चार साल से मुमताज़ शेख एक नायाब मुहिम चला रही हैं, जिसका नाम है- 'राइट टु पी' यानी पेशाब करने का अधिकार.
उनकी मांग है कि मुंबई की नगरपालिका महिलाओं के लिए मुफ़्त और सुरक्षित मूत्रालय मुहैया करवाए.



लेकिन मुकाम तक पहुंचने का रास्ता आसान नहीं था.
वह कहती हैं, "जब हम नगर निगम अधिकारियों के पास अपनी मांग लेकर पहुंचे, तो उन्होंने इसे हंसी में उड़ा दिया. कहा कि अब हम ऐसे मुद्दों पर भी बात करेंगे? यह दर्शाता है कि भारत में ज़्यादातर लोगों की मानसिकता यही है कि महिलाओं की कोई ज़रूरतें नहीं है, और अगर हैं भी तो उन पर ध्यान देने की कोई ज़रूरत नहीं है."
लेकिन जब अधिकारियों ने उनकी मांग अनसुना कर दी, तो उनका ध्यान खींचने के लिए मुमताज़ ने एक नायाब तरीक़ा ढूंढा.
हंसते हुए वो बताती हैं, "हमने उन्हें कहा कि अगर उन्होंने हमारी मांगें नहीं सुनीं तो हम महिलाएं उनके दफ़्तर के बाहर खुले में पेशाब करने के लिए बैठ जाएंगी. बस ये सुनते ही अधिकारियों ने हमें बैठक के लिए बुला लिया. और आज आलम ये है कि हम नगर निगम के साथ मिलकर लगभग 90 मुफ़्त मूत्रालय बनवाने को योजना पर काम कर रहे हैं."
'राइट टु पी' मुहिम शहर में जगह-जगह नुक्कड़ नाटक कर लोगों में जागरूकता बढ़ाने में लगी है.



नाटक के एक भाग में महिलाएं एक पुरुष को डांटते हुए गाना गा रही हैं– अच्छी बात कर ली बहुत, अब करूंगी तेरे साथ गंदी बात, गंदी गंदी गंदी गंदी गंदी बात!
यहां गंदी बात से मतलब ज़ाहिर है– अगर महिला पेशाब जैसी अपनी ज़रूरतों की बात करे, तो समाज उसे गंदी बात ही तो कहता है.
दर्शकों के बीच मौजूद कुछ महिलाएं जहां इस नाटक को बड़े ध्यान से देख और सुन रही हैं, तो कुछ महिलाएं शर्म के मारे इधर-उधर नज़रें घुमा रही हैं.
शायद यही इस बात का संकेत है कि भारत में महिलाओं की ज़रूरतों और उनकी आवाज़ को सदियों से दबाया जाता रहा है.
(बीबीसी हिन्दी





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