Tuesday, November 17, 2015

इप्टा में महिलाएंः मेरे संग ही चलना है तुझे

इप्टा में महिलाएंः मेरे संग ही चलना है तुझे

  • 17 नवंबर 2015
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इप्टा में महिलाएंImage copyrightnatrang pratishtahn
चालीस का दशक. मंच पर सुबह से ही गहमागहमी. सभी रिहर्सल में मशगूल. बलराज साहनी निर्देशन कर रहे थे और शौक़त का पहला नाटक था.
अचानक सबसे ज़हीन समझे जाने वाली दो शख्सियतों में ज़बरदस्त कहासुनी हो गई. बीच-बचाव की नौबत आ गई. दरअसल बलराज नहीं जानते थे कि शौक़त गर्भवती हैं. और वे सुबह से उनसे मंच पर दौड़ने का अभ्यास करवा रहे थे. क़ैफ़ी आज़मी को ये गंवारा ना हुआ तो वे फूट पड़े.
इस बात से ज़रा सा एहसास होता है कि इप्टा में सक्रिय महिलाओं का जीवन कैसा रहा होगा.
आज भी स्त्री स्वतंत्रता के खिलाफ़ प्रतिक्रियाएं अपने उभार पर हैं. महिलाओं को भ्रूण हत्या से लेकर ऑनर किलिंग तक के नासूर झेलने पड़ते हैं.
तो ज़रा कल्पना कीजिए कि 40 के दशक में इप्टा में शामिल हुई महिलाओं का जीवन कैसा रहा होगा.
इप्टा में महिलाएंImage copyrightnatrang pratishthan
Image captionइप्टा के अहमदाबाद सम्मेलन में जूलूस का नेतृत्व करतीं रेखा जैन.
इप्टा का बड़ा योगदान सार्वजनिक स्पेस में महिलाओं को आगे लेकर आना भी था. बल्कि इप्टा की स्थापना में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली महिला ही थीं- अनिल डी सिल्वा, जो श्रीलंका की थीं और भारत में उन्होंने काफी काम किया.
अपने माता-पिता (नेमिचंद्र जैन-रेखा जैन) के साथ सेंट्रल ट्रूप में रहीं नटरंग पत्रिका की संपादक रश्मि वाजपेयी बताती हैं, ''परंपरागत परिवारों से निकलने के बाद उन्होंने किस तरह अस्वीकार को झेला होगा यह कल्पना करना संभव नहीं है. लड़के-लड़कियां साथ काम करते थे, टूर पर जाते थे, जिस तरह की स्वतंत्रता थी उसके बरक्स आज अधिक संकुचित हो गया है.''
उस समय के माहौल में व्यावसायिक रंगमंच कंपनियों में काम करने वाली महिलाओं को समाज में नीची नज़र से देखा जाता था.
फिर भी इन महिलाओं ने अपनी शर्तों पर मुक्त स्पेस में काम किया. लेकिन इनकी स्वीकार्यता सहज नहीं थी.
इप्टा में महिलाएंImage copyrightnatrang
Image captionहिंदी सिनेमा की मशहूर चरित्र अभिनेत्री दीना गांधी ऊर्फ दीना पाठक इप्टा के दिनों में.
इन्हें अपने सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश से भी लड़ना पड़ा. इन महिलाओं का संघर्ष बाहरी भी था, आंतरिक भी.
रेखा जैन लिखती हैं, ''लंबाड़ी नृत्य के लिए जिस लचक की ज़रूरत होती है, वह मुझसे नहीं बनी तो किसी ने व्यंग्य किया कि मैं बेकार ही हूं. मुझे लगा कि मेरे मन की झिझक के कारण ऐसा हो रहा है. परिवारिक संस्कारों का जो बवंडर मेरे भीतर चलता था, उससे मैं कई बार ठीक से सीख नहीं पाती थी. इसे मेरा अधूरापन समझा गया. मेरे भीतरी संघर्ष को कोई नहीं देख पाया.''
चालीस के दशक में ज़ोहरा सहगल, तृप्ति मित्रा, गुल वर्द्धन. दीना पाठक, शीला भाटिया, शांता गांधी, रेखा जैन, रेवा रॉय, रूबी दत्त, दमयंती साहनी, ऊषा, रशीद जहां, गौरी दत्त, प्रीति सरकार जैसे चर्चित अभिनेत्रियों के नाम इप्टा से जुड़े थे.
ठहरे हुए समाज के नैतिक मानदंडों से जूझते हुए सामाजिक सरोकारों के लिए लड़ने का जूनून कहां से मिलता था?
इप्टा में महिलाएंImage copyrightwww.azmikaifi.com
Image captionक़ैफी और शौक़त आज़मी
इप्टा की महिलाओं पर शोध कर रहीं लता सिंह कहती हैं, ''ये महिलाएं राजनीति के रास्ते संस्कृति में आईं. जब संस्कृति और राजनीति जुड़ती है तो ये ताक़त मिलती है. इनके पुरुष साथियों ने भी मदद की. सबसे बड़ी खूबी थी कि संभ्रांत परिवार की इन महिलाओं ने कंफर्ट ज़ोन त्यागकर संघर्ष की इस प्रक्रिया में अपने को डीक्लास भी किया.''
कल्पना साहनी 'द हिंदू' में छपे एक लेख में अपने पिता और लेखक भीष्म साहनी का ज़िक्र करते हुए लिखती हैं कि जब वे अपने भाई बलराज साहनी को समझा-बुझाकर घर वापस लाने के लिए मुंबई आए तो उन्होंने पाया कि पाली हिल के एक छोटे से फ्लैट में तीन परिवार साथ गुज़ारा कर रहे थे.
ये तीनों परिवार संभ्रांत पृष्ठभूमि के थे- चेतन और उमा आनंद, बलराज और दमयंती साहनी, हामिद और अज़रा बट. इसके अलावा देव आनंद और उनके भाई गोल्डी भी वहीं रह रहे थे.
बाद में पृथ्वी थिएटर में काम करने वाली दमयंती अपनी तन्ख्वाह का चेक इप्टा के परिवार को चलाने के लिए इस्तेमाल करती थीं.
इस तरह न सिर्फ अपने परिवार और संस्कार की दहलीज़ लांघना उस समय की स्त्रियों के लिए एक बड़ी चुनौती थी, बल्कि इस नए माहौल में रहना और जीवन गुज़ारना भी कम चुनौतीपूर्ण नहीं था.
इप्टा में महिलाएंImage copyrightnatrang pratishthan
इस परिवेश में उन्हें पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करना था. यहां प्राइवेसी या निजी स्पेस की कोई अवधारणा ही नहीं थी. इप्टा के पहले दौर में महिलाओं की सक्रियता प्रस्तुतियों में अपेक्षाकृत अधिक रही.
मुंबई इप्टा की संचालक शैली सैथ्यू के मुताबिक़, इप्टा ने ना सिर्फ महिलाओं की समस्याओं पर नाटकों का मंचन किया बल्कि इप्टा हमेशा से ऐसी संस्था रही जिसमें महिलाओं को बराबरी का दर्ज़ा दिया गया.
अस्सी के दशक में इप्टा छोटे शहरों में अधिक सक्रिय हुई. पटना इप्टा में रहे श्रीकांत किशोर बताते हैं कि बिहार में पटना के अलावा बेगूसराय, बीहट, सीवान, छपरा, गया, रांची, मुजफ़्फ़रपुर और औरंगाबाद जैसे शहरों की शाखाओं में महिलाएं अच्छी संख्या में सक्रिय थीं.
इप्टा में महिलाएंImage copyrightnatrang pratishthan
इस बार इनके पास नेतृत्व भी था. छत्तीसगढ़ के डोंगरगढ़ इप्टा के दिनेश चौधरी मानते हैं कि इस दौर में संगठन में उनकी भूमिका बढ़ी है. रायगढ़ इप्टा के संचालक अजय आठले कहते हैं कि अब लड़कियों को परिवार से इजाज़त आसानी से मिल जाती है.
अब वे अपेक्षाकृत अधिक आज़ाद और आत्मनिर्भर हैं. शैली सैथ्यू कहती हैं कि ऊपरी तबके की महिलाओं के नाम तो हम जानते हैं, जो निजी ज़िंदगी के आराम को छोड़कर इस आंदोलन में शामिल हुईं. लेकिन उन कामगार महिलाओं के बारे में कोई नहीं जानता जिन्होंने मुश्किल जीवन के बावजूद इप्टा के लिए काम किया.
आज भी बहुत सी ऐसी लड़कियां और महिलाएं हैं जो हर स्तर पर इप्टा के लिए काम कर रही हैं, तमाम मुश्किलों के बावजूद.
उनका मकसद मशहूर होना या पहचान पाना नहीं है.
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