Sunday, November 15, 2015

बिरसा से जुड़े दस्तावेज ऐतिहासिक धरोहर


बिरसा से जुड़े दस्तावेज ऐतिहासिक धरोहर



अनुज कुमार सिन्हा


दुनिया का हर विकसित समाज अपने इतिहास के संरक्षण की हरमुमकिन कोशिश करता है. अपने भविष्य निर्माण के लिए अतीत को जानना और समझना बहुत ही जरूरी है. अन्य देशों की तुलना में इस काम में अपने देश का ट्रैक रिकार्ड बहुत अच्छा नहीं है और अपना राज्य झारखंड इसे जरूरी काम भी नहीं समझता. 
 
बिरसा मुंडा झारखंड के महानायकों में से एक हैं. इतिहास के पन्नों में उन्हें पर्याप्त जगह भी नहीं मिली है. अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति यह उदासीनता एक समाज के रूप में हमें महंगी पड़ेगी. प्रस्तुत है एक टिप्पणी.
 
नवंबर यानी मुंडा विद्रोह-उलगुलान के नायक बिरसा मुंडा का जन्म दिन. उसी बिरसा मुंडा का, जिन्होंने अंगरेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. जो सिर्फ झारखंड में ही नहीं, पूरे देश में आदिवासियों के लिए सर्वाधिक पूजनीय रहे हैं. एकमात्र आदिवासी नेता, जिनकी तसवीर संसद भवन में टंगी है, जिनके नाम पर सरकारी योजनाएं चलती हैं. बिरसा एयरपोर्ट, बिरसा बस टर्मिनल, बिरसा जूलोजिकल पार्क, बिरसा स्टेडियम आदि दर्जनों महत्वपूर्ण संस्थाओं का नामकरण जिनके नाम पर हुआ है, उस बिरसा मुंडा से संबंधित ऐतिहासिक सरकारी दस्तावेजों का झारखंड में अता-पता नहीं है. 
 
अफसोस की बात यह है कि बिरसा पर शोध करनेवाले झारखंड आते हैं, लगभग खाली हाथ लौटते हैं क्योंकि इस झारखंड में न तो बेहतर शोध संस्थान है, न ही झारखंड सरकार का आर्काइव्स (अभिलेखागार), जहां ऐतिहासिक दस्तावेज, सामग्री एक जगह मिल सके.  15 साल में राज्य में एक बेहतर शोध संस्था नहीं बन सकी. सिर्फ बिरसा ही क्यों, प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र-छात्रों, शोधार्थी के लिए बेहतरीन शोध संस्थान, लाइब्रेरी तक नहीं बन सकी. 
 
ऐसी बात नहीं है कि बिरसा मुंडा से संबंधित दस्तावेज कहीं हैं ही नहीं. हां, जहां इन्हें होना चाहिए था, वहां नहीं है.  बिरसा का कार्यक्षेत्र (1895-1900 के बीच) छोटानागपुर ही रहा था. तब छोटानागपुर प्रमंडल बन चुका था. बिरसा के आंदोलन से संबंधित छोटानागपुर के कमिश्नर को लोहरदगा के डिप्टी कमिश्नर के अनेक पत्र, एसपी द्वारा डिप्टी कमिश्नर को लिखे पत्र बिहार राज्य अभिलेखागार में मौजूद हैं. इन पत्रों की प्रति-मूल प्रति छोटानागपुर के कमिश्नर के रिकार्ड रूम में होना चाहिए था.
 
इन पत्रों को सहेज कर नहीं रखा गया. बिरसा मुंडा रांची जेल में थे, फिर हजारीबाग सेंट्रल जेल में गये.  इन जेलों में भी बिरसा से संबंधित दस्तावेज नहीं मिलते. या तो ये दस्तावेज नष्ट हो गये, किसी ने फेंक दिया या किसी कोने में धूल जमे लाल रंग के कपड़े में बंधा सड़ रहा होगा. इन ऐतिहासिक दस्तावेजों को खोज कर सुरक्षित रखने की जरूरत है.
 
दुनिया में कई जगहों पर बिरसा से संबंधित दस्तावेज हैं. इसकी प्रति को झारखंड भी लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए गंभीर प्रयास करने होंगे. ऐसा तभी होगा, जब बिरसा पर शोध संस्थान बने, जब यह सरकार की प्राथमिकता में आये. यह ऐतिहासिक धरोहर है.  बिरसा से संबंधित दस्तावेज बिहार राज्य अभिलेखागार के अलावा पटना के काशी प्रसाद जायसवाल शोध संस्थान, नेशनल आर्काइव्स ऑफ इंडिया (कोलकाता) में भी उपलब्ध है. 
 
तब बिहार या झारखंड नहीं बना था. बंगाल के तहत यह क्षेत्र था. बंगाल में ही मुकदमा चला था. इसलिए अनेक दस्तावेज बंगाल सरकार के पास हो सकते हैं. इसके अलावा लंदन की लाइब्रेरी में भी अनेक दस्तावेज हैं. बिरसा के आंदोलन के समय इस क्षेत्र में मिशनरी का आगमन हो चुका था. उन दिनों मिशन से जुड़े अनेक व्यक्ति इस क्षेत्र में आते थे. अपनी डायरी लिखते थे. फादर जेबी हॉफमैन 1893 से 1915 तक इस क्षेत्र में रहे. उनकी डायरी में बिरसा मुंडा और मुंडा विद्रोह के बारे में अनेक जानकारियां हैं. ये दस्तावेज जर्मनी में हैं. 
 
बर्लिन के गोस्सनर मिशन के स्टोर में मिशन इंस्पेक्टर डॉ कार्ल हाइनराइस द्वारा लिखा गया दस्तावेज (1895) उपलब्ध है जिसमें बिरसा मुंडा के पहले चरण के आंदोलन का आंखों-देखा विवरण है. इसकी मूल प्रति जर्मन में है जिसका अंगरेजी अनुवाद रेवरेंड जोहानेस जैपिंग ने किया है. आंदोलन के दौरान जो भी अंगरेज अफसर इस क्षेत्र में थे, ब्रिटेन लौटने पर उन्होंने वहां किताबें लिखीं. बिरसा मुंडा पर झारखंड में दो लोगों ने ज्यादा काम किया. पहले थे एसपी सिन्हा (1964), जो जनजातीय शोध संस्थान के निदेशक के पद तक पहुंचे थे. दूसरे थे कुमार सुरेश सिंह (आयुक्त). अब ये दोनों दिवंगत हो चुके हैं, लेकिन बिरसा मुंडा से जुड़े अनेक दुर्लभ दस्तावेजों को इन लोगों ने संकलित कर रखा था. संभव हो कि ये दस्तावेज अभी भी उनके घरों में हो.
 
बिरसा मुंडा के बारे में लोग जानना चाहते हैं. हालात यह है कि बिरसा मुंडा की तीन ही तसवीरें दुनिया में दिखती हैं. पहली तसवीर एससी राय (1912) के सौजन्य से बाहर आयी थी. एक अन्य तसवीर में बिरसा पुलिसकर्मियों से घिरे और जंजीर से बंधे दिखते हैं. तीसरी तसवीर ‘ट्राइबल इन द लैंड ऑफ मुंडाज : स्टोरी एंड नोट्स ऑफ ए मिशनरी ’(लेखक एच बैन डॉयल, ब्रुसेल्स, वर्ष 1900) पुस्तक से ली गयी है. बिरसा की चौथी तसवीर (स्केच नहीं, मूल तसवीर) कहीं दिखती नहीं. 
 
बिरसा मुंडा बड़े आंदोलनकारी थे और उनका निधन रांची जेल में (वर्ष 1900 में) हुआ था. सवाल यह है कि क्या बिरसा मुंडा के निधन के बाद क्या जेल के अधिकारियों ने उनके शव की या अंत्येष्टि की तसवीर ली थी. अगर हां, तो वह कहां है? इस पर किसी ने काम नहीं किया. अंगरेज अफसर डॉक्यूमेंटेशन पर बहुत ध्यान देते थे. इसलिए इस बात की संभावना है कि बिरसा की गिरफ्तारी या मौत के बाद भी अंगरेज अफसरों ने तसवीर ली होगी. संभव हो, ये तसवीरें जेल के रिकार्ड या ब्रिटेन में मौजूद हों.
 
115-120 साल पहले के कागजातों को खोजना आसान नहीं होता. लेकिन सरकार चाहे तो यह असंभव भी नहीं है. अभी भी वक्त है, जो दस्तावेज झारखंड में नष्ट हो रहे हों, उन्हें खोज कर सुरक्षित रखा जाये, उन्हें डिजिटल फार्म में परिवर्तित कर संरक्षित कर लिया जाये. 
 
रांची, हजारीबाग जेल के अलावा कमिश्नर के कार्यालय के रिकार्ड को खंगाला जाये, तो संभव है कि कुछ दस्तावेज कंडम हालत में मिल भी जायें. काम आगे बढ़ सकता है, लेकिन यह तभी संभव है जब बेहतर शोध संस्थान बने और उसके जिम्मे यह काम हो. आज सुभाष चंद्र बोस से संबंधित दस्तावेज सार्वजनिक हो रहे हैं. दुनिया के जिस कोने में ऐसे दस्तावेज हैं, उन्हें भारत लाने की तैयारी चल रही है तो फिर झारखंड जिस व्यक्ति को सर्वाधिक सम्मान देता है, उसके बारे में दुनिया भर से सामग्री-दस्तावेजों को क्यों नहीं लाया जा सकता.
 


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