Thursday, November 19, 2015

इप्टाः सपने बिखरे हैं, टूटे तो नहीं

इप्टाः सपने बिखरे हैं, टूटे तो नहीं

  • 18 नवंबर 2015
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पीसी जोशीImage copyrightrajendra dhodapkar
Image captionसीपीआई के नेता रहे पीसी जोशी
आज़ादी मिली. लोग बंटे. एक ही दल के लोगों में अपनापा ना रहा.
मशहूर लेखिका राज थापर ने अपनी किताब 'ऑल दोज़ डेज़' में ज़िक्र किया है, "कम्युनिस्ट पार्टी में नेहरू को लेकर गंभीर मतभेद उभरने लगे."
इतना कि, बकौल राज थापर, नेहरू का समर्थन करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी के कुछ लोग पीसी जोशी की हत्या करने पर आमादा हो गए. नतीजा, पीसी जोशी को पार्टी से निकाल दिया गया."
आजादी के बाद से ही सरकार ने इप्टा की निगरानी शुरू कर दी. इसके नाटकों को प्रतिबंधित किया गया, सेंसर और ड्रामेटिक पर्फ़ार्मेंस एक्ट का डंडा चला कर कई प्रदर्शनों और प्रसार को रोका गया.
सदस्य भूमिगत होने लगे. ऐसे माहौल में इलाहाबाद कांफ्रेस में बलराज साहनी ने व्यंग्य नाटक ‘जादू की कुर्सी’ का मंचन किया जिसमें सत्ता के चरित्र की तीखी आलोचना थी.
हबीब तनवीरImage copyright
Image caption'चरनदास चोर' नाटक का एक दृश्य
पीसी जोशी के बाद बीटी रणदिवे भाकपा के महासचिव बने. पार्टी की नीतियां और इप्टा के प्रति उसका रवैया बदला.
पार्टी जो थोड़ी बहुत आर्थिक सहायता इप्टा को देती थी, वह बंद कर दी गई. इप्टा में बहुत से ऐसे लोग भी थे जो पार्टी मेंबर नहीं थे.
उन्हें अब बंधन का अनुभव हुआ और वे इप्टा छोड़ने लगे. शान्तिवर्धन, रविशंकर, अवनिदास गुप्त, शचिन शंकर, नरेन्द्र शर्मा ने सेंट्रल ट्रुप छोड़ दिया जिसे अंततः मार्च 1947 में बंद कर दिया गया था.
हबीब तनवीर के अनुसार, “सन 1948 की इलाहाबाद कांफ़्रेंस इप्टा की मौत थी जिसका जनाज़ा निकला 1956 में. कई बार हैरत होती है क्या काम किया था इप्टा ने और कैसे ख़त्म हो गया चुटकियों में”.
इप्टाImage copyrightmumbai ipta
Image captionइप्टा के नाटक '[डमरू' का दृश्य
रूस्तम भरूचा ‘रिहर्सल ऑफ़ रिवोल्युशन’ में लिखते हैं, “इप्टा पहला राष्ट्रीय संगठित आंदोलन था जिसमें भारतीय रंगकर्मियों ने पहली बार सहभागिता से फ़ासीवाद और साम्राज्यवाद विरोध की ठोस कलात्मक अभिव्यक्ति की और समकालीन रंगमंच के सस्ते व्यावसायिक चमक दमक के विरूद्ध प्रतिक्रिया की."
"इसने रंगमंच के प्रति उपलब्ध समझ को बदला और इसे अभिजात वर्ग के सीमित हिस्से से निकालकर बड़े तबके तक पहुंचा दिया”.
इप्टा ने तमाशा, जात्रा, बर्रकथा नाट्य शैलियों को अपनाया और उनमें नए आयाम जोड़े. किसानों, मजदूरों के संघर्षों, हिंदू मुस्लिम एकता के प्रति जागरूकता को अपने विषय में शामिल किया और समूह गान, नृत्य नाटिका, मंच नाटक, नुक्कड़ नाटक के ज़रिये जनता तक पहुंची.
राजनीतिक रंगमंच और वैकल्पिक जन मनोरंजन की इस विरासत की तरफ़ अस्सी के दशक में युवा रंगकर्मी आकर्षित हुए.
पटना के रंगकर्मी जावेद अख्तर खां याद करते हैं कि प्रगतिशील लेखक संघ का उभार, आपातकाल के बाद के माहौल, नुक्कड़ नाटकों की लोकप्रियता ने यह एहसास कराया कि इप्टा का पुनर्गठन होना चाहिये.
इप्टा नाटकImage copyright
1985 में आगरा और 1986 में हैदराबाद में कांफ़्रेंस हुई. इसके बाद कई शहरों में इसकी इकाईयों का गठन हुआ.
आज इप्टा की धार और तेवर नरम हुए हैं, इसकी कई वजहें रहीं. पहली वजह तो ये कि इप्टा के शुरुआती सदस्य मध्यवर्गी और उच्चमध्यवर्ग के थे.
जब ज़रूरत महसूस हुई तो वे रोज़ी रोटी के काम में लग गए. संस्था पीछे छूट गई.
रंगकर्मी लोकेंद्र त्रिवेदी कहते हैं, "आज़ादी और दूसरे विश्व युद्ध के बाद गरीबी बढ़ गई तो ज़्यादातर लोग जीविका कमाने में जुट गए फिर इस संस्था में अधिकतर लोग अव्वल यानी ऊपरी वर्ग के थे वो अपने संदेश को गरीब और निचले तबके तक तो लेकर गए लेकिन उन्हें साथ लेकर नहीं चल पाए और अपने अपने काम में मशगूल हो गए."
आज़ादी के बाद जो पुनर्गठन हुआ उसमें कई लोग इसलिए भी शामिल नहीं हुए कि इप्टा से प्रेरणा लेकर उन्होंने अपनी संस्थाएं भी शुरू कर दी थीं.
इप्टा नाटकImage copyrightmumbai ipta
90 के दशक के दौरान देश और संस्कृति ने अचानक खुद को वैश्वीकरण और दुनिया की अन्य संस्कृतियों के बरक्स खड़ा पाया.
उपभोक्तावाद भूमंडलीकरण की दौड़ ने सामाजिक सरोकारों के पीछे धकेल दिया. निजी सफलता ज्यादा अहम हो गई.
प्रो. अली जावेद कहते हैं, "इप्टा का ज़ोर बेशक कम हुआ है लेकिन अगर हम ओवर ऑल सामाजिक स्तर पर देखें तो लोगों में राजनीतिक प्रतिबद्धता भी कम हुई है. आज का युवा निजी फायदों पर ज़्यादा केंद्रित है. उपभोक्तावाद से पूरी दुनिया में एक तरह की दिशाहीनता आ गई है जिससे हम भी अछूते नहीं हैं."
लेकिन अब भी ये संस्था जीवंत है और देश के तमाम राज्यों में सामाजिक सांस्कृतिक चेतना के लिए नाटकों, नुक्कड़ नाटकों का मंचन कर रही है.
दिल्ली में जामिया मिलिय़ा इसलामिया और जेएनयू की छात्र संस्थाएं, पटना, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, केरल,पंजाब और राजस्थान में इप्टा अपने अपने स्तर पर सक्रिय है.
शबाना आज़मीImage copyrightIPTA Mumbai
मुंबई इप्टा की संचालक शैली सैथ्यू कहती हैं, "पूरे देश में करीब बीस हज़ार इप्टा सदस्य अपने अपने स्तर पर बिना किसी मशहूरी की इच्छा के काम कर रहे हैं. और ये कहना ग़लत है कि इप्टा के तेवर नर्म हुए हैं."
"ये आज़ादी के समय उग्र और ज़्यादा मुखर था क्योंकि समय की मांग ये थी. आज भी इप्टा सक्रिय है लेकिन अब आज़ाद भारत के सरोकार अलग हैं और अब वह उस पर ध्यान केंद्रित कर रही है."
तेवर हालांकि मद्धम है लेकिन जज़्बा वही है, जो शायद पाश की इन पंक्तियों में ज़ाहिर होता है-
''हम लड़ेंगे साथी/ लड़ने की लगन होगी/ लड़ने का ढंग ना हुआ/ लड़ने की ज़रूरत होगी/ और हम लड़ेंगे कि अब तक लड़े क्यों नहीं/ हम लड़ेंगे अपनी सज़ा कबूलने के लिए/ लड़ते हुए जो मर गए/ उनकी याद ज़िंदा रखने के लिए/ हम लड़ेंगे साथी."
(बीबीसी हिन्दी

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