Wednesday, November 25, 2015

'हमारे प्रति लोगों की सोच बदल गई है'

'हमारे प्रति लोगों की सोच बदल गई है'

  • 33 मिनट पहले
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Image captionमां पूछती है, "रमज़ान नहीं है फिर भी तुम खाना क्यों नहीं खा रहे हो? बच्चा जवाब देता है, "डर के मारे मेरी भूख ख़त्म हो गई है."
बहुत से माता-पिताओं के लिए पेरिस हमले के बारे में अपने बच्चों से बात करना मुश्किल साबित हो रहा है, और मुस्लिम परिवारों के लिए यह काम कहीं ज़्यादा मुश्किल भरा है.
इसे ध्यान में रखकर बच्चों के लिए छपने वाला अख़बार 'ली पेती कोतीदीं' हर मंगलवार का अंक नन्हे मुस्लिम पाठकों को समर्पित कर रहा है.
अख़बार छह से 10 साल के बच्चों के लिए छपता है.
नौ साल के अयमान ने अख़बार को बताया, "जब मैं सोमवार को स्कूल पहुंचा तो मेरे कई दोस्तों ने मुझसे चरमपंथी जैसा व्यवाहर किया. मैंने अपने टीचर को इस बारे में बताया. उन्होंने क्लास के मेरे साथियों को बताया कि मुसलमान होने का मतलब चरमपंथी होना नहीं होता है."
नौ साल के मोहम्मद ने अख़बार को बताया, "मैं स्तब्ध था. मैंने अपनी मां से इसके बारे में बात की. मैं डरा हुआ था. मुझे डर था कि चरमपंथी मेरे शहर पर भी हमला करने आ रहे हैं."
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पेरिस हमले के बाद यह अख़बार और बड़े उम्र के बच्चों के लिए छपने वाले इसके सहयोगी प्रकाशन 'मों कोतीदीं' और 'ला'क्तु' ने चार दिन तक विस्तार से इस हमले और पाठकों के सवालों के जवाब छापे हैं.
अखबार के संपादक फ्रांसुआ डॉफ़ार ने बताया, "बच्चों के माता-पिता और शिक्षकों ने हमारी तारीफ़ की और कहा कि हमें वाक़ई अपने बच्चों के अनसुलझे सवालों का जवाब देने के लिए आपके शब्दों की ज़रूरत थी."
लेकिन उन्हें 10 ख़त भी मिले जिनमें अख़बार की आलोचना की गई थी.
फ्रांसुआ डॉफ़ार बताते हैं, "ये पत्र कई मुस्लिम मां-बाप की ओर से थे. उनका कहना था कि आप यह नहीं लिख सकते कि वे हमलावर मुसलमान हैं क्योंकि वे मुसलमान नहीं है. वे सिर्फ़ इस्लाम का इस्तेमाल कर रहे हैं. हममें से कई लोग इस्लाम का सख़्ती से पालन करते हैं और यह हमें चरमपंथी नहीं बनाता."
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Image captionबाईं तरफ़ के लोग कह रहे हैं, "हम चरमपंथी नहीं हैं!!!" दूसरे इसका जवाब दे रहे हैं, "ठीक है! ठीक है! हम तुम पर यक़ीन करते हैं लेकिन हमें जीने दो!"
इसलिए फ्रांसुआ डॉफ़ार ने मुसलमान पाठकों से अपील की कि वे पिछले 10 दिनों के अपने अनुभव अख़बार के साथ साझा करें.
वह कहते हैं, "उन्हें बात करने के लिए मनाना आसान नहीं था."
जिन्होंने बात की, उनका कहना था कि वो "डरे हुए, स्तब्ध और निराश" हैं. वे इस बात से ज़्यादा निराश है कि कुछ लोग उनके धर्म का इस्तेमाल लोगों को मारने के लिए कर रहे हैं.
फ्रांसुआ डॉफ़ार बताते हैं, "बच्चे यह जानकर ताज्जुब में हैं कि कुछ चरमपंथी फ्रेंच हैं तो क्या फ्रेंच ही फ्रेंच को मार रहे हैं. यह उनके लिए बहुत चौंकाने वाला था."
अपने डर और चिंताओं के बारे में बात करने के अलावा बच्चों ने इस्लाम के अपने अनुभव भी साझा किए.
शाइमा का कहना है, "मैंने इस्लाम में सीखा है कि आप किसी को मार नहीं सकते."
एलिसिया रीम लिखती हैं, "मेरे लिए इस्लाम के मायने ग़रीब लोगों को भोजन और पैसा देना है. बीमारों के लिए अस्पताल बनाना है, किसी ज़रूरतमंद को अपना कोट देना है."
थोड़े बड़े उम्र के बच्चे हमले की निंदा करते हैं और थोड़े विस्तार से अपने अनुभवों के बारे में बताते हैं.
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Image captionबंदूकधारी आदमी कहता है, "मैं सच्चा मुसलमान हूँ!" उसे जवाब मिलता है, "बिल्कुल नहीं..सिर्फ़ एक सच्चे हत्यारे हो."
13 साल के अब्दुल क़ादिर के मुताबिक़, "13 नवंबर के बाद हमारे प्रति लोगों का नज़रिया बदल चुका है. सोमवार को जब मैं अपनी मां के साथ मेट्रो में चढ़ा तो मैंने एक औरत को यह कहते सुना, ओह नहीं, अब यह नहीं. उस वक़्त मेरी मां ने हिजाब पहन रखा था."
अज़ीज़ के अनुभव भी कुछ ऐसे हैं. वह कहते हैं, "आप कह सकते हैं कि हर कोई मानता है कि हम चरमपंथी हैं. वे हमें सड़कों पर अजीब सी नज़रों से देखते हैं. वे असहज रहते हैं. मैं महसूस करता हूं कि वे हमसे डरे हुए हैं. वे सोचते हैं कि हम भी ऐसी कोई घटना को अंजाम दे सकते हैं क्योंकि हम अरबी मुसलमानों की तरह दिखते हैं."
बड़े बच्चों की टिप्पणियां अधिक जटिल मसले उठाती हैं.
17 साल के उमर का कहना है, "फ्रेंच सरकार हमारी क़द्र नहीं करती है. वे हमें एक अप्रवासी की तरह हेय दृष्टि से देखती है. चरमपंथियों ने लोगों को मारा, यह ग़लत था. लेकिन फ्रांस की सरकार ने पहले सीरिया पर बम गिराए."
वह कहते हैं, "आप किसी देश के ऊपर इस तरह से बम नहीं गिरा सकते. पेरिस में इस्लामिक स्टेट की ओर से किया गया हमला उस नफ़रत का नतीजा है जिसे फ्रांस ने पैदा किया है."
वहीं 17 साल के उस्मान कहते हैं कि इस्लामिक स्टेट नफ़रत का इस्तेमाल करता है और फ्रांस में होने वाले नस्लवादी भेदभाव से भी उसका काम आसान होता है.
वह कहते हैं कि फ्रांस में बहुत से मुसलमान अपने ही इलाक़ों तक में सीमित रहते हैं और समाज में व्यापक रूप से घुलमिल नहीं पाते.
19 वर्षीय अनीसा की राय है कि चरमपंथी इस्लाम या किसी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व नहीं करते, बल्कि उनका धर्म तो सिर्फ़ आतंक है.
(बीबीसी हिन्दी 

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