Sunday, November 22, 2015

इप्टाः रंगमंच से ऐसे सड़क पर आया नाटक

इप्टाः रंगमंच से ऐसे सड़क पर आया नाटक

  • 21 नवंबर 2015
साझा कीजिए
इप्टाImage copyright
Image captionइप्टा से प्रेरित जन नाट्य मंच का एक नुक्कड़ नाटक
गली के नुक्कड़ पर बैठे कुछ लोग. सुबह की चाय पर शुरू हो जाती है बहस कि अंग्रेज़ किस तरह की नीतियां अपना रहे हैं, क्या कांग्रेस उनका मुक़ाबला कर पाएगी, क्या हुकूमत किसानों को उनका हक़ देगी?
बहस ज़ोर पकड़ती है और पुलिस के दो कारिंदे बीच बचाव करते हैं, धमकाते हैं, अंग्रेज़ सरकार की पैरवी करते हैं, शोरगुल बढ़ता जाता है.
इतने में असल पुलिस आ जाती है, जो पहले रुआब जमा रहे थे भाग खड़े होते हैं. तो आसपास इकट्ठा हुई भीड़ को एहसास होता है कि अरे ये तो नाटक है.
इस तरह शुरुआत हुई नुक्कड़ नाटक की.
इप्टाImage copyrightAkram Feroze
Image captionफ़ाइल फोटो
मुंबई इप्टा की संचालक शैली सैथ्यू बताती हैं कि ग़ुलाम भारत में नुक्कड़ नाटकों का मंचन इतना आसान नहीं होता था.
कई बार अभिनेताओं को गिरफ़्तार कर लिया जाता था, भीड़ को तितर बितर करने के लिए लाठियां बरसाई जाती थीं.
लेकिन इप्टा के सदस्य हर तरह की तैयारी से निकलते थे. उनका एक ही मक़सद होता- लोगों में अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ विरोध की अलख जगाना, उन्हें तमाम सामाजिक धार्मिक कड़ियों से आज़ाद कर राजनीतिक लड़ाई के लिए एकजुट करना.
वरिष्ठ रंगकर्मी लोकेंद्र त्रिवेदी कहते हैं कि उस वक़्त पूरी दुनिया में भी ऐसा माहौल था.
इप्टाImage copyrightjnu IPTA
Image captionनाटक स्वांतः सुखाय से निकल कर समाज के बीच समाज की बात करने लगे
कलाएं स्वांतः सुखाय की सीमा से निकल कर जनता से संवाद कर रही थीं, जनता के बीच जनता की बात कर रही थीं.
जर्मनी के प्रसिद्ध लेखक नाटककार बर्तोल्त ब्रेश्त ने थ्री पैनी ऑपेरा को एक नया आयाम दिया था जिसमें नाटकों में रंगमंचीय साजसज्जा को हटा दिया जाता और संवादों के साथ संगीत का प्रयोग किया जाता.
इस तरह नाटक को किसी रंगमंच की ज़रूरत भी नहीं पड़ती. उसका मंचन किसी भी खुली जगह किया जा सकता था.
इप्टा के रंगकर्मियों ने इससे भी प्रेरणा ली. फिर भारत के पास तो लोक नाटकों की संपदा भी थी. फिर क्या था. तमाशा, जात्रा, नौटंकी, पांडवानी जैसी तमाम लोक शैलियों में आधुनिक विषयों को लेकर नाटक लिखे और खेले जाने लगे.
इप्टाImage copyrightIPTA
ये कुछ उसी तरह था, जब 19वीं सदी में भारतेंदु ने प्रासंगिक नाटकों का लेखन और मंचन किया था, जिससे हिंदी का विकास हुआ.
उनके लिखे नाटक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और पूरे उत्तर भारत में इनका मंचन किया जाता है. इप्टा ने इन नाटकों के स्वरूप को और बदला. और बग़ैर किसी ‘प्रॉप’ के नाटकों के मंचन को आसान बनाया.
इप्टा के नाटकों के कथानक में विरोध का स्वर ज़्यादा मुखर होता. बल्कि ज़्यादातर नाटक तो विशुद्ध राजनीतिक थीम पर ही लिखे गए.
ये किसका कानून, मैं कौन हूं, ज़ुबैदा, गांधी और गुंडा, जादू की कुर्सी, धानी बांके, दंगा जैसे बहुत से नाटक लिखे गए जिनमें कम्युनिस्ट पार्टी का रुख़, हुकूमत का विरोध और आज़ादी का आह्वान मुख्य कथानक थे. विदेशी नाटककारों के नाटकों का रूपांतरण भी किया गया.
इ्प्टाImage copyright
Image captionजन नाट्य मंच और सफदर हाश्मी ने अस्सी के दशक में नुक्कड़ नाटक को नया आयाम दिया
नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत के साथ ही रंगमंचीय नाटकों का स्वरूप भी बदला. सन बयालीस-तिरालीस का भारतीय रंगमंच और सिनेमा पारसी थिएटर और पश्चिमी नाटकों की परंपरा से प्रभावित था.
इसमें भव्य सेट हुआ करते और सामान्यतः मिथकों या राजा रानियों पर आधारित कथाएं होतीं. लाउड और मेलोड्रामेटिक अभिनय होता. इप्टा ने ना सिर्फ़ समाज के आख़िरी आदमी को नाटकों/फिल्मों का केंद्रीय पात्र बनाया बल्कि संगीत और संवादों को भी पैना किया. मंच की लाइटिंग, पात्रों की वेशभूषा में भी इसी अनुसार बदलाव लाए गए.
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि पूरे भारत के रंगमंच और सिनेमा में ऐसा असर और कोई नज़र नहीं आता जैसा इप्टा का रहा.
'धरती के लाल' नाम की फिल्म से केए अब्बास ने फिल्मों के कथानकों को भी आम मज़दूर और किसान की समस्याओं की तरफ मोड़ा. फ्रेंच सिनेमा में एक नई शैली, निओ रिएलिज्म का आग़ाज हो चुका था.
इटली के फिल्मकार विटोरियो डि सिका ने 1948 में एक प्रयोगात्मक फिल्म बनाई द बाइसिकल थीफ, जिसमें कोई केंद्रीय पात्र नहीं था. एक आम आदमी की मशक्कत पर आधारित इस फिल्म ने विश्व सिनेमा पर गहरी छाप छोड़ी.
इप्टाImage copyrightjnu IPTA
इसी तरह का सिनेमा इप्टा से जुड़े फिल्मकारों ने भी रचा और इस तरह कुछ कालजयी फिल्में बनीं- दो बीघा ज़मीन, नीचा नगर, जागते रहो, बंदिनी, सुजाता, अजांत्रिक (बांगला में) और गरम हवा. इससे भी ज़्यादा अहम बात ये है कि इस मूवमेंट ने भावी फिल्मकारों और फिल्म संगीतकारों की एक पूरी खेप को प्रभावित किया.
अभिनेता परीक्षित साहनी अपने पिता बलराज साहनी को याद करते हुए बताते हैं कि नव यथार्थवादी सिनेमा में अभिनय के लिए बलराज महीनों किरदार की ज़िंदगी, उसकी मानसिकता, भाषा का अध्ययन करते.
दो बीघा ज़मीन में काम करने के लिए उन्होंने दो महीने नंगे पैर कोलकाता की सड़कों पर रिक्शा खींचा था, काबुलीवाला की यादगार भूमिका के लिए वे महीनों सायन में स्थित काबुलीवालों की छोटी सी बस्ती में जाकर रहे थे.
सिर्फ अभिनेता ही नहीं, फिल्म निर्देशक, स्क्रिप्टराइटर्स सभी उस विषय और किरदारों का गहरा अध्ययन करते, जिन्हें वे गढ़ते थे.
इप्टाImage copyrightjnu IPTA
Image captionइप्टा ने अभिनय में भी नवयथार्थवाद को प्रेरित किया
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं कि इप्टा के प्रभाव को भारत की सभी कलाओं में देखा जा सकता है. इप्टा आज़ादी से पहले और बाद के भारत का वह अकेला सांस्कृतिक आंदोलन है जिसने भारतीय अभिव्यक्ति और रचनात्मकता को गढ़ा.
अस्सी के दशक का समांतर सिनेमा और आपातकाल के विरोध का थिएटर हो या आज का ‘नीश’ सिनेमा, जब भी विरोध के स्वर उठते हैं, रचनाकार फ़ैज़ के इसी जज़्बे में प्रेरणा ढूंढते हैं, जो इप्टा की प्राणवायु था-
यूँ ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नईयूँ ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूलन उनकी हार नई है न अपनी जीत नई
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक औरट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)

No comments:

Post a Comment