औरतों से छेड़छाड़ से किसी को नहीं पड़ता फ़र्क़ ?
- 2 घंटे पहले
पंजाब के मोगा कस्बे में बस में एक लड़की और उसकी मां के साथ छेड़छाड़ का आरोप, उसे बस से फ़ेंका गया या उसने बस से छलांग लगाई इस पर दिन भर बहस होती रही.
इस मुद्दे पर सियासत के 'बादल' छाने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा.
बस में क्या हुआ, कैसे हुआ, बस कंपनी बादल परिवार की है या नहीं और उस पर हुई सियासी बहसा-बहसी से परे, कुल जमा 'हासिल' ये रहा कि 14 साल की एक नाबालिग़ लड़की की मौत हो गई.
कुछ नहीं बदला ?
14 साल वह उम्र होती है जब बचपन धीरे-धीरे अपनी चादर उतार एक ऐसी उम्र की ओर दबे पाँव बढ़ रहा होता है जहां मन में हज़ारों तरंगे हिलोरें मार रही होती हैं. कई मीठे सपने उड़ान भरने से पहले ही उधेड़-बुन में होते हैं.
लेकिन हम शायद ये कभी नहीं जान पाएंगे कि उसके सपने क्या थे, वह ज़िंदगी में क्या करना चाहती थी. और उस मां का क्या जिसने आंखों के सामने अपनी बच्ची को खो दिया...
मैने अपना बचपन पंजाब में ही गुज़ारा है. ठीक यही उम्र रही होगी... कोई 13-14 साल. मोगा में जो कुछ इस लड़की के साथ हुआ उसे देखकर और सुनकर सबसे पहले एक ही ख़्याल मन में आया- क्या पिछले 10-15 सालों में चीज़ें कुछ भी नहीं बदली हैं.
अगर बदली होती तो क्या उस लड़की को अपनी जान गंवानी पड़ती?
सड़क पर आते-जाते छेड़छाड़, छीटांकशी, घर-परिवार-दोस्तों के दायरे में दुर्व्यहार... छोटी उम्र से ही इस सबसे सामना शुरू हो जाता है.
अगर आप इसका कोई वैज्ञानिक सुबूत मांगेगे तो माफ़ कीजिएगा शायद मेरे पास न हो लेकिन सामाजिक सुबूत हर दूसरे कदम पर मिल जाएंगे. और आपको सूबूत चाहिए ही तो महिला अपराध से जुड़े आधिकारिक आंकड़ों का एक बड़ा अंबार है.
क्या माँ को डर लगा होगा?
अपनी बात करूं तो दस-एक साल की उम्र रही होगी जब शायद पहली बार मैं किसी ऐसे बर्ताव का शिकार बनी. फिर उसके बाद जैसे-जैसे बड़ी होती गई, कुछ चीज़ों की आदत सी पड़ती गई.
वह साइकिल से स्कूल जाते समय किसी का पीछे-पीछे आना, कॉलेज में बस से आते समय किसी का अनचाहा स्पर्श, पैदल ऑफ़िस आते समय किसी राह चलते मनचले का किसी फूहड़ गाने के बोल सुनाना...
इन वाक्यों में से 'मैं' निकालकर अगर मैं किसी और महिला का नाम लिख दूं तो शायद कइयों की कहानी बहुत अलग नहीं होगी.
वैसे ये बात किसी से बांटी तो नहीं पर आज कलम ख़ुद ब ख़ुद जैसे ये मुझसे लिखवा रही है. बचपन में एक दफ़ा मैं और मम्मी पंजाब में ही किसी दूसरे शहर से बस से शाम को लौट रहे थे.
बग़ल में बैठा व्यक्ति बार-बार ग़लत तरीके से सट रहा था.
कुछ देर बाद माँ ने उसे ज़रा कड़क आवाज़ में समझाया. उन चंद घंटों में मैंने बहुत असहज महसूस किया था, लगा सारी बस हमारी तरफ़ देख रही हो.
तब तो मैं काफ़ी छोटी थी पर आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो सोचती हूँ कि मां ने उस वक़्त क्या महसूस किया होगा.
अनसुलझे सवाल
मेरी और अपनी हिफ़ाज़त में मां ने आवाज़ उठाई होगी पर क्या अंदर ही अंदर वह डर गई होंगी?
आपको भी पढ़ने में शायद यह असहज लग रहा हो. लेकिन कड़वा सच यही है कि इस तरह की घटनाएं आए दिन होती हैं.
शायद आपमें से कइयों के साथ हुआ हो. और अगर आप पुरुष हैं तो ज़रा पांच मिनट निकालकर बस अपनी किसी महिला दोस्त, बहन, मां, पत्नी, महिला कर्मचारी से पूछिए.
घूम फिरकर दिमाग़ में मोगा की उसी लड़की का ख़्याल आता है जिसकी ज़िंदगी छिन गई...
वह होती तो किसी भी 14 साल की लड़की की तरह आंगन में इधर से उधर कूद-फांद कर रही होती, टीवी पर पंसदीदा शो देखने के लिए भाई या बहन के साथ टीवी रिमोट के लिए लड़ रही होती.
सहेलियों के साथ मस्ती करती, मां के आगे-पीछे घूम रही होती. लेकिन अब पीछे बची हैं तो ज़ख्मी मां और कुछ अनसुलझे सवाल. हमारे और आपके लिए.
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