Saturday, October 10, 2015

देश है कि जीने का अभिनय कर रहा है.............!दादरी का दर्द.- भाग एक

देश है कि जीने का अभिनय कर रहा है.............!दादरी का दर्द.- 


कनक तिवारी 
दादरी का दर्द.- 

दादरी, बसाहड़ा, अखलाक व्यक्तिवाचक संज्ञाएं हैं। इन्हें भाववाचक संज्ञाओं की तरह ख्यातनाम कर दिया गया है। हालिया वर्षों में मनुष्य व्याकरण की व्यक्तिवाचक संज्ञाओं को भाववाचक संज्ञाओं, फिर सर्वनाम, फिर विशेेषण में तब्दील करने की हिंसात्मक प्रविधि चल रही है। भिवंडी, सहारनपुर, गोधरा, मुजफ्फरनगर, समझौता एक्सप्रेस, ताज होटल वगैरह नफरत और हिंसा के विशेषण प्रतीक हैं। हिंसा, खूंरेजी, हत्या, बलात्कार, फिरौती, अपहरण जैसी पौरुषेय गतिविधियां परत दर परत समाज की चिंता रेखाएं बनकर उसके चेहरे को विकृत कर रही हैं। जमे हुए दूध में खमीर उठाने ‘लव जेहाद‘, ‘घर वापसी‘, ‘हिन्दू औरतों के कम से कम चार बच्चे‘, ‘फतवा‘, ‘काफिर‘, ‘खाप पंचायत‘, ‘पाकिस्तान जिन्दाबाद‘, ‘पुलिसिया एनकाउंटर‘ जैसी लाक्षणिकताएं कुलबुलाती रहती हैं। संविधान की पंथनिरपेक्षता की न सूखने वाले घाव की पतली पपड़ी उखड़ती रहती है। ठीक नीचे बदबूदार मानसिकता का मवाद दुर्गंध का प्रजनक होता रहता है। देश है कि जीने का अभिनय कर रहा है।

सदियों से हिन्दुस्तान घरघुस्सू, अहिंसक, समावेशी और बेहद उदार रहा है। उसकी भौतिक पराजय उसके सद्भाव के गुणों के कारण भी हुई। इसके उलट ताजा इतिहास में सदियों का बदला चुकाने की वृत्ति ने एक सीमित तबके में उग्र आक्रामकता का बीजारोपण किया। अस्सी नब्बे वर्षों की मशक्कत के बाद वह विचार व्यवस्था में परिवर्तित हो गया है। उसके बरक्स और समानांतर मुसलमानों की सदियों पुरानी सलतनत के कारण हुई धर्म परिवर्तित भारतीयों की पीढ़ी ने कथित हिन्दू आक्रामकता से संघर्ष जारी रखा। पीछे अतीत का शोर है। ‘हिन्दू मुस्लिम भाई भाई,‘ ‘सर्वधर्म समभाव,‘ ‘कबीर, गांधी, सुभाष बोस, भगतसिंह, नेहरू वगैरह के जबरिया उल्लेख फिलवक्त उनकी अनसुनी करने का तर्कशील जतन हैं। हिंसा का वीभत्स चेहरा साप्रंदायिक फेसलिफ्टिंग कराकर आकर्षक लग रहा है। सदियों पहले तरह तरह के विदेशी आक्रांता मौजूदा हिन्दुओं के पुरखों को पराजित और नेस्तनाबूद कर गए।
सबसे आखिर में पौने दो सौ बरस से ज्यादा अंगरेज व्यापारी बनकर आए। फिर हाकिम हुक्काम हो गए। उन्हें भारतीयों से नफरत थी। आखिर वे चले गए। अपनी वेस्टमिन्स्टर पद्धति की सरकार, संसद, न्यायप्रणाली, नौकरशाही, खानपान, पोशाक, रहन सहन, भाषा, तहजीब सब छोड़ गए। यह ताकीद कर गए कि नए स्वाधीन देश को यह सब नहीं छोड़ना है। भारतीय शासक और जनता उनसे चिपटे हुए हैं। उनके पहले मुगल थे। वे पीढ़ी दर पीढ़ी इस देश में बस गए। उन्हें भारत से प्यार था। वे अपनी संस्कृति, कला, स्थापत्य, प्रशासन, भूमिसुधार वगैरह लाए। लेकिन धर्म परिवर्तन, हिन्दुओं पर अत्याचार और रोटी बेटी के रिश्तों में घुसपैठ करने की उनकी शिकायतें इतिहास में झूठ की तरह नहीं समझी जाएंगी। सदियों का पराजय बोध हिन्दुओं में आजादी के आंदोलन से ही वितृष्ण, कुंठित और प्रतिशोधी होकर नए रास्ते तलाशने लगा। कुछ लोग नए संगठनों के नाम पर लामबंद हुए और अपने अभियान को मुकाम तक पहुंचाने की उनकी दृढ़ इच्छा ढीली नहीं हुई।

हिन्दू मुस्लिम संघर्ष का उत्पाद हिंसा है। एक व्यक्ति दूसरे के प्रति हिंसक और दूसरा पहले के प्रति प्रतिहिंसक हो तो इससे समाज में कोई संस्थागत नजीर नहीं बनती। एक गिरोह या समूह भौतिक तथा संपत्ति संबंधी कारणों आदि से दूसरे समूह या गिरोह के साथ हिंसक हो उठे। तो भी वह कानून की औपचारिकताओं का मामला होता है। एक नए किस्म की हिंसा ने आतंकवाद और नक्सलवाद के रूप में भी अपनी पहचान बनाई है। ऐसी हिंसा का लक्ष्य अपरिचित और असंबद्ध लोग ही होते हैं। उनका मकसद हिंसा करना भर नहीं है। उससे राजनीतिक फलितार्थ ढूंढ़ना है। ये हिंसक लोग किसी सिद्धांतप्रियता का नकाब जरूर ओढ़ते हैं। चैथी और अंतिम किस्म की हिंसा भारतीय मनुष्य के अस्तित्व को झकझोर रही है। पिछली तरह की हिंसाओं में जाति और धर्म प्रेरक नहीं होते। दो आतंकी या नक्सली भी भिन्न धर्मों या जातियों के हो सकते हैं। निजी हिंसा में उलझे लोग एक ही जाति, धर्म या खून के रिश्ते वाले परिवार के भी खून के प्यासे होते हैं। दादरी, मुजफ्फरपुर, गोधरा वगैरह की हिंसा की तह में जाति और धर्म के सांप फुफकारते बैठे हैं। वे केवल फुफकारकर भी माहौल में जहर का पोचारा फेरते रहते हैं।

अखलाक से पूरे बसाहड़ा गांव को पहले से नफरत नहीं थी। उस एक व्यक्ति की हत्या करने के लिए पूरे गांव बल्कि आसपास के लोगों को लामबंद होने की जरूरत नहीं थी। अखलाक ने कोई कारण भी उत्पन्न नहीं किया। यह तो एक मानसिकता ने तय किया कि दूसरे धर्म के एक व्यक्ति को मारकर उससे राजनीतिक और सामाजिक परिणाम हासिल किए जाएं। एक षड़यंत्रकारी योजना के तहत मंदिर से लाउडस्पीकर बजाकर तुगलकी ऐलानेआम किया गया कि अखलाक गोमांस का संग्राहक और गोमांस भक्षी है। सबसे पालतू दुधारू पशु होने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की बुूनियाद रही गाय को रूढ़ हिन्दू मानसिकता यदि मां का दर्जा देती है तो इसमें आपत्तिजनक कुछ नहीं है। इसीलिए देश के अधिकांश प्रदेशों में गोवंश हत्या पर पाबंदी है। कुछ छोटे पूर्वी राज्यों में मिली छूट के कारण भारत गोमांस का विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक है। किसी सरकार ने इस कथित व्यापार पर रोक नहीं लगाई है।


अखलाक को सैकड़ों की भीड़ ने पीटपीटकर लुगदी बना दिया। परिवार चीखता, बिलबिलाता रहा। पूरा गांव बाहरी लोगों के साथ मिलकर हिंसा का हरावलदस्ता बन गया। हत्यारे भूल गए कि वे वर्षों या पीढ़ियों से हमदम होकर रह रहे थे। आरोप सही होता तब भी अखलाक को यह सजा एक उन्मादी भीड़ नहीं दे सकती थी। जैसा वह कई बार अन्य जगहों पर भी कर चुकी है। एक खास विचारधारा पर दोषारोपण किया गया। उसके जवाब में हत्यारी मानसिकता का विरोध नहीं किया गया। बल्कि उकसाने की शैली में आईन के मकसद धर्मनिरपेक्षता पर ही चोट की गई। संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने तो संस्कृति का मुंह काला कर दिया। कहा कि उस वक्त अखलाक की जवान बेटी घर में थी। भीड़ ने उसके शील के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की। प्रधानमंत्री के लिए तो ऐसे मसलों में भारत कौरव सभा है। उन्हें आजकल धृतराष्ट्र अच्छा लगता होगा।


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