Thursday, May 7, 2015

छह कारणों से नेताजी की फाइलें नहीं खोल रही भाजपा सरकार

छह कारणों से नेताजी की फाइलें नहीं खोल रही भाजपा सरकार

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“5 मई को लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में भारतीय जनता पार्टी सरकार ने आधिकारिक तौर पर माना कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के परिवार के सदस्यों की 20 सालों तक कथित जासूसी की जांच वह नहीं करवाने जा रही है। गृहराज्यमंत्री हरिभाई पारथी भाई चौधरी ने लोकसभा में एक लिखित सवाल के जवाब में यह भी माना कि नेताजी से संबंधित और कोई दस्तावेज सरकार सार्वजनिक नहीं करेगी। ”
चौधरी के अनुसार पहले नेताजी की मृत्यु की जांच के लिए बने खोसला और मुखर्जी आयोग की रिपोर्टों से संबंधित फाइलें बड़ी संख्या में सार्वजनिक करके भारतीय अभिलेखागार में भेजी जा चुकी हैं जिनसे अलग भी कुछ फाइलें केंद्र और पश्चिम बंगाल सरकारों के पास हैं जिनके बारे में गोपनीयता बरती जाएगी।

आमजन को सरकार का संसद में यह जवाब इसलिए विचित्र लगेगा कि हाल ही में देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी के शासनकाल के शुरूआती दिनों तक लगभग 20 साल, 1947 से 1968 तक नेताजी के परिजनों की निगरानी की मीडिया रिपोर्टों के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर जा जाकर उस अवधि की कांग्रेस सरकारों को नेताजी की मृत्यु के संबंध में कथित गलतबयानी करने और असुरक्षाबोध के कारण उनके परिजनों की कथित जासूसी के लिए पानी भर भरकर कोसते रहे। लेकिन बारी आने पर अब कथित जासूसी की फाइलें सार्वजनिक करने या उसकी जांच कराने से भाजपा सरकार मुंह मोड़ रही है।

कितना अजीब है कि महान स्वतंत्रता सेनानी सुभाषचंद्र बोस का इस्तेमाल अपने राजनीतिक विरोधियों को पीटने के लिए लाठी की तरह करने वाली पार्टी न तो अपने आरोप प्रमाणित करने के लिए कोई जांच कराना चाहती है, न नेताजी की दुर्घटना में मौत की कथा पर फैली धुंध के बारे में सारे कागजात सार्वजनिक कर जनता को अपने निष्कर्ष निकालने देना चाहती है।

यह कितना भी अजीब लगे, करीबी विश्लेषण करें तो इसकी वजहें समझी जा सकती हैं :
यह विवाद मीडिया में जोर शोर से तब उठा जब‌ पश्चिम बंगाल में नगर निकायों के चुनाव होने थे और भाजपा राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के प्रति बहुत आक्रामक थी। पश्चिम बंगाल में सर्वजन प्रिय नेताजी की स्मृति के शहरी मध्यवर्गीय मतदाताओं के बीच भावनात्मक दोहन की अकूत संभावना भाजपा के रणनीतिकारों को दिखाई पड़ी होगी। इसलिए इस प्रश्न पर मीडिया में भाजपा प्रवक्ताओं की आतिशबाजी बखूबी समझी जा सकती है। नेताजी के प्रति आदर अपनी जगह, लेकिन पश्चिम बंगाल के शहरी मतदाताओं को आज अपने मताधिकार के प्रयोग के लिए आज की राजनीति और आज के मसले ज्यादा अहम लगे, न कि इतिहास या स्मृति की चिंताएं। उन्होंने भाजपा को पटखनी देकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीता दिया। नगर निकाय चुनावों के बाद फिर यह मुद्दा छेड़ने की जल्दबाजी भाजपा के लिए नहीं बची।

पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव अगले वर्ष 2016 में होने हैं। नेताजी की स्मृति का चुनावी मुद्दे के तौर पर वर्ष भर तक निर्वहन कठिन है। हो सकता है, तब यह मुद्दा किसी अन्य तरीके से वापस सार्वजनिक विमर्श में लाया जाए लेकिन अभी उसे छेड़कर तब तक निभाना मुश्किल होने की वजह से भाजपा के लिए तत्काल कन्नी काटना ज्यादा उपयुक्त है।

अगर इस मसले को एक सीमा से ज्यादा उभारा जाए तो संभव है कि बंगालियों की उपराष्ट्रीय भावना इतनी जग जाएं कि भाजपा के लिए उस का नियंत्रित इस्तेमाल मुश्किल हो जाए। हो सकता है, बंगाली उपराष्ट्रीयता पर आधारित क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस भड़क‌ी हुई उपराष्ट्रीय भावनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने की बेहतर ‌स्थिति  में हो, इसलिए भी भाजपा अभी नेताजी के मसले पर सावधानी बरतेगी।

नेताजी के परिजनों पर निगरानी की अवधि में इन परिजनों का संबंध नेताजी द्वारा स्‍थापित पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक से था। यह पार्टी हमेशा वामपंथी मोर्चे का भाग रही जिससे भाजपा का जन्मजात विचाराधारात्मक वैर रहा है। तब उस जमाने में, खासकर कम्युनिस्ट नेतृत्व में तेलांगाना के सशस्‍त्र विद्रोहों और पश्चिम बंगाल के लड़ाकू तिभागा आंदोलन के बाद कम्युनिस्ट और उनके तमाम वामपंथी हमदर्द संगठन लगातार भारतीय गुप्तचर प्रतिष्ठान तथा उसके साझीदार ब्रिटेन के गुप्तचर प्रतिष्ठान की जासूसी और निगरानी की जद में रहे। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसलिए इस विषय पर ज्यादा जोर देना पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के नेतृत्व वाले वाममोर्चे की राजनीति में भी कुछ हवा भर सकता है। यह भाजपा को कतई गवारा नहीं होगा।

खुद नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भले ही ‌द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों को शिकस्त देकर देश की आजादी हासिल करने के लिए जर्मनी, इटली और जापान के दक्षिणपंथी अधिनायकवादी निजाम का सहयोग लिया हो, उनका विचारधारात्मक झुकाव वामपंथी था। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ सहयोग के लिए उन्होंने पहले सोवियत संघ की ओर हाथ बढ़ाया। चूंकि द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ जर्मनी के हमले के बाद अमेरिका, ब्रिटेन के साथ जा खड़ा हुआ, इसलिए नेताजी को मजबूरन धुरी राष्ट्रों की मदद लेनी पड़ी। गौरतलब है कि कांग्रेस का आजादी के बाद का समाजवादी झुकाव और सार्वजनिक क्षेत्र आधारित नियोजन की आर्थिक नीति जवाहर लाल नेहरू से भी ज्यादा नेताजी सुभाषचंद्र बोस से निसृत है। देश में योजना आयोग जैसी संस्‍था नेताजी ने अपने अध्यक्षताकाल में  कांग्रेस में प्रारूपित की थी। नेताजी की विरासत इस योजना आयोग को अब नरेंद्र मोदी की सरकार ने विघटित कर उसके स्‍थान पर एक शक्तिहीन नीति आयोग गठित किया है। इसलिए भाजपा का मकसद नेताजी संबंधी विमर्श को निरंतर इतना तूल देना नहीं होगा कि नेताजी का समाजवादी रूझान और नीतियां फिर सार्वजनिक विमर्श में प्रखर हो जाएं।

देश के कानूनी ढांचे में केंद्र का गुप्तचर ब्यूरो गृहमंत्री के अधीन आता है। आजादी बाद के उन वर्षों में तो सीधे प्रधानमंत्री के मातहत काम करने वाला राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी नहीं था जो पूरे खुफिया प्रतिष्ठान का नेतृत्व करता और प्रधानमंत्री से सीधे साबका रखता। उस दौरान क्रमशः सरदार वल्लभ भाई पटेल, पंडित गोविंद बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्‍त्री और गुलजारी लाल नंदा जैसे मजबूत गृहमंत्री हुए। सवाल ही नहीं था कि बिना इनकी जानकारी के नेताजी के परिजनों पर जासूसी हो सकती थी। इन सभी गृहमंत्रियों की राजनीतिक और वैचारिक विरासत भाजपा हथियाने की कोशिश करती रही है। जासूसी मामले को ज्यादा तूल देने से इनकी भूमिका के बारे में भी चर्चा होनी लाजिमी है। जासूसी के कागजात अगर हैं तो उनकी भूमिका का उल्लेख उनमें हो सकता है। यह भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनुकूल नहीं होगा। इसी तरह राज्यों के गुप्तचर संगठन, जैसे स्पेशल ब्रांच यानी विशेष शाखा, मुख्यमंत्रियों को रिपोर्ट करते थे। नेताजी के परिजनों की निगरानी में पश्चिम बंगाल की विशेष शाखा का उल्लेख आया। वह तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधानचंद्र राय को रिपोर्ट करती थी। इससे भी भाजपा का मकसद नहीं सधता है।

अतः नेताजी को लेकर मीडिया में धमाधम के लिए बेशक तैयार रहें, लेकिन वास्तविक पारदर्शिता के प्रति सशंकित।यह कितना भी अजीब लगे, करीबी विश्लेषण करें तो इसकी वजहें समझी जा सकती हैं:

1. यह विवाद मीडिया में जोर शोर से तब उठा जब‌ पश्चिम बंगाल में नगर निकायों के चुनाव होने थे और भाजपा राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के प्रति बहुत आक्रामक थी। पश्चिम बंगाल में सर्वजन प्रिय नेताजी की स्मृति के शहरी मध्यवर्गीय मतदाताओं के बीच भावनात्मक दोहन की अकूत संभावना भाजपा के रणनीतिकारों को दिखाई पड़ी होगी। इसलिए इस प्रश्न पर मीडिया में भाजपा प्रवक्ताओं की आतिशबाजी बखूबी समझी जा सकती है। नेताजी के प्रति आदर अपनी जगह, लेकिन पश्चिम बंगाल के शहरी मतदाताओं को आज अपने मताधिकार के प्रयोग के लिए आज की राजनीति और आज के मसले ज्यादा अहम लगे, न कि इतिहास या स्मृति की चिंताएं। उन्होंने भाजपा को पटखनी देकर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को जीता दिया।नगर निकाय चुनावों के बाद फिर यह मुद्दा छेड़ने की जल्दबाजी भाजपा के लिए नहीं बची।

2. पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव अगले वर्ष 2016 में होने हैं। नेताजी की स्मृति का चुनावी मुद्दे के तौर पर वर्ष भर तक निर्वहन कठिन है। हो सकता है, तब यह मुद्दा किसी अन्य तरीके से वापस सार्वजनिक विमर्श में लाया जाए लेकिन अभी उसे छेड़कर तब तक निभाना मुश्किल होने की वजह से भाजपा के लिए तत्काल कन्नी काटना ज्यादा उपयुक्त है।

3. अगर इस मसले को एक सीमा से ज्यादा उभारा जाए तो संभव है कि बंगालियों की उपराष्ट्रीय भावना इतनी जग जाएं कि भाजपा के लिए उस का नियंत्रित इस्तेमाल मुश्किल हो जाए। हो सकता है, बंगाली उपराष्ट्रीयता पर आधारित क्षेत्रीय दल तृणमूल कांग्रेस भड़क‌ी हुई उपराष्ट्रीय भावनाओं का राजनीतिक लाभ उठाने की बेहतर ‌स्थिति  में हो, इसलिए भी भाजपा अभी नेताजी के मसले पर सावधानी बरतेगी।

4. नेताजी के परिजनों पर निगरानी की अवधि में इन परिजनों का संबंध नेताजी द्वारा स्‍थापित पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक से था। यह पार्टी हमेशा वामपंथी मोर्चे का भाग रही जिससे भाजपा का जन्मजात विचाराधारात्मक वैर रहा है। तब उस जमाने में, खासकर कम्युनिस्ट नेतृत्व में तेलांगाना के सशस्‍त्र विद्रोहों और पश्चिम बंगाल के लड़ाकू तिभागा आंदोलन के बाद कम्युनिस्ट और उनके तमाम वामपंथी हमदर्द संगठन लगातार भारतीय गुप्तचर प्रतिष्ठान तथा उसके साझीदार ब्रिटेन के गुप्तचर प्रतिष्ठान की जासूसी और निगरानी की जद में रहे। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। इसलिए इस विषय पर ज्यादा जोर देना पश्चिम बंगाल में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट के नेतृत्व वाले वाममोर्चे की राजनीति में भी कुछ हवा भर सकता है। यह भाजपा को कतई गवारा नहीं होगा।

5. खुद नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने भले ही ‌द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों को शिकस्त देकर देश की आजादी हासिल करने के लिए जर्मनी, इटली और जापान के दक्षिणपंथी अधिनायकवादी निजाम का सहयोग लिया हो, उनका विचारधारात्मक झुकाव वामपंथी था। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ सहयोग के लिए उन्होंने पहले सोवियत संघ की ओर हाथ बढ़ाया। चूंकि द्वितीय विश्व युद्ध में सोवियत संघ जर्मनी के हमले के बाद अमेरिका, ब्रिटेन के साथ जा खड़ा हुआ, इसलिए नेताजी को मजबूरन धुरी राष्ट्रों की मदद लेनी पड़ी। गौरतलब है कि कांग्रेस का आजादी के बाद का समाजवादी झुकाव और सार्वजनिक क्षेत्र आधारित नियोजन की आर्थिक नीति जवाहर लाल नेहरू से भी ज्यादा नेताजी सुभाषचंद्र बोस से निसृत है। देश में योजना आयोग जैसी संस्‍था नेताजी ने अपने अध्यक्षताकाल में  कांग्रेस में प्रारूपित की थी। नेताजी की विरासत इस योजना आयोग को अब नरेंद्र मोदी की सरकार ने विघटित कर उसके स्‍थान पर एक शक्तिहीन नीति आयोग गठित किया है। इसलिए भाजपा का मकसद नेताजी संबंधी विमर्श को निरंतर इतना तूल देना नहीं होगा कि नेताजी का समाजवादी रूझान और नीतियां फिर सार्वजनिक विमर्श में प्रखर हो जाएं।

 6. देश के कानूनी ढांचे में केंद्र का गुप्तचर ब्यूरो गृहमंत्री के अधीन आता है। आजादी बाद के उन वर्षों में तो सीधे प्रधानमंत्री के मातहत काम करने वाला राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी नहीं था जो पूरे खुफिया प्रतिष्ठान का नेतृत्व करता और प्रधानमंत्री से सीधे साबका रखता। उस दौरान क्रमशः सरदार वल्लभ भाई पटेल, पंडित गोविंद बल्लभ पंत, लाल बहादुर शास्‍त्री और गुलजारी लाल नंदा जैसे मजबूत गृहमंत्री हुए। सवाल ही नहीं था कि बिना इनकी जानकारी के नेताजी के परिजनों पर जासूसी हो सकती थी। इन सभी गृहमंत्रियों की राजनीतिक और वैचारिक विरासत भाजपा हथियाने की कोशिश करती रही है। जासूसी मामले को ज्यादा तूल देने से इनकी भूमिका के बारे में भी चर्चा होनी लाजिमी है। जासूसी के कागजात अगर हैं तो उनकी भूमिका का उल्लेख उनमें हो सकता है। यह भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से अनुकूल नहीं होगा। इसी तरह राज्यों के गुप्तचर संगठन, जैसे स्पेशल ब्रांच यानी विशेष शाखा, मुख्यमंत्रियों को रिपोर्ट करते थे। नेताजी के परिजनों की निगरानी में पश्चिम बंगाल की विशेष शाखा का उल्लेख आया। वह तत्कालीन मुख्यमंत्री बिधानचंद्र राय को रिपोर्ट करती थी। इससे भी भाजपा का मकसद नहीं सधता है।

अतः नेताजी को लेकर मीडिया में धमाधम के लिए बेशक तैयार रहें, लेकिन वास्तविक पारदर्शिता के प्रति सशंकित।  

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