गुजरात मॉडल की सच्चाई
01, MAY, 2015, FRIDAY 11:43:57 PM
देशबन्धु]
भारत में श्रम कानूनों में सुधार को लेकर भारी विवाद छिड़ा हुआ है। पिछले साल मई महीने में केन्द्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद कहा जा रहा है कि भारतीय श्रम कानून काफी पुराने होने के कारण वे देश के आर्थिक विकास में रोड़े बन रहे हैं। श्रमिकों को कानूनन जरूरत से ज्यादा सुरक्षा देने के कारण विदेशी निवेश नहीं आ रहे और इस प्रकार न कल-कारखाने लग रहे हैं और न ही रोजगार के अवसरों का सृजन हो पा रहा है। हर साल देश में एक करोड़ तीस लाख नौजवान श्रमिक समुदाय में शामिल हो रहे हैं। न सिर्फ इनके लिए बल्कि पहले से रोजगार के अवसर ढूंढने वालों के लिए काम देने की भारी समस्या है। आजादी के तुरंत बाद 1948 में फैक्ट्रीज एक्ट पारित हुआ था जो अब भी जारी है। वह भ्रष्टाचार का बड़ा स्रोत बन गया है। देशी-विदेशी नए निवेशक आने से घबराते हैं।
कई लोगों का मानना है कि यदि श्रम कानूनों में छोटे-मोटे नहीं, बल्कि आद्योपांत बदलाव कर दिए जाए तो अन्य देशों की अपेक्षा यहां श्रम सस्ता होने के कारण निवेशकर्ता खिंचे चले आएंगे। जिससे हमारा उत्पादन और व्यापार तेजी से बढ़ेगा। वर्ष 1947 में औद्योगिक विवाद एक्ट बना। वर्ष 1976 में उसमें संशोधन हुआ। इसके बाद मजदूरों को निकाल पाना पहले से कहीं अधिक कठिन हो गया। निवेशकों का कहना है कि उनको ''हायर और फायरÓÓ की पूरी आजादी न होने के कारण वे यहां अपनी पूंजी नहीं लगा पाते। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कार्यरत् अर्थशास्त्री साइमन डिकिन और अंतरा हाल्दर का मानना है कि ''देश के स्तर पर श्रम का लचीलापन आर्थिक विकास की पर्याप्त शर्त नहीं है, और यहां तक कि वह आवश्यक शर्त भी नहीं है।ÓÓ इसके बदले ऐसे संस्थान विकसित किए जाने चाहिए जो श्रम बाजार से जुड़़ी जोखिमों पर ध्यान दें।
मारग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन के आगमन के बाद नवउदारवाद का डंका बजा। जॉन विलियम्सन ने ''वाशिंगटन आम रायÓÓ के दस बिंदुओं को प्रस्तुत किया जिनके पीछे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, गार और अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट का समर्थन था। उन दस बिंदुओं में श्रम कानूनों को समाप्त कर ''हायर और फायरÓÓ के लिए मार्ग प्रशस्त करना शामिल था। कहा गया कि पूंजी और श्रम के बीच विवाद में सरकार को नहीं पडऩा चाहिए और उसको हस्तक्षेप की नीति से दूर रहना चाहिए। यह धारणा प्रभावी थी कि यदि बाजार में कोई हस्तक्षेप न हो तो देर-सबेर वह संतुलन की अवस्था में आ जाएगा। कोई भी बाहरी हस्तक्षेप आर्थिक कल्याण के ऊपर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। स्पष्ट है कि सरकार तदस्थ रहे और श्रमिकों और पूंजी के विवाद में कोई हस्तक्षेप न करे।
16 मई 2014 को नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने और इसके साथ ही विकास का ''गुजरात मॉडलÓÓ चर्चा में आया। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा कि सत्ता में आते ही जैसे उन्होंने अपने गृह राज्य गुजरात को विकसित किया है वैसे ही सारे भारत को बड़ी तेजी से विकास और आर्थिक समृद्धि के मार्ग पर बढ़ाएंगे। श्री मोदी गुजरात में एक दशक से अधिक समय तक सत्ता में रहे हैं और उनकी ख्याति व्यवसायियों के प्रति नरमी का रुख अपनाने को लेकर रही है। उन्होंने व्यवसायियों को सड़कें ही नहीं, बल्कि बन्दरगाह तक दिए हैं। बेहतर प्रशासन (जिसमें भ्रष्टाचार कम था और नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण था) दिया। जन विकास केंद्र के जरिए अफसरशाही का शिकंजा ढीला किया। जमीन और श्रम व्यवसायियों को उनकी दृष्टि से अनुकूल शर्तों पर दिए गए। गुजरात में विशेष आर्थिक जोन बनाकर देशी विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया गया। बड़े पैमाने पर किसानों से बलात् जमीन लेकर उन्हें दी गई। वर्ष 2004 में गुजरात औद्योगिक विवाद (संशोधन)अधिनियम और साथ ही गुजरात विशेष आर्थिक जोन का कानून बना। विशेष आर्थिक जोन में अधिकतर राष्ट्रीय श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बना दिया गया। उदाहरण के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के भाग पांच बी को काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया गया। मजदूरों को आसानी से हटाया जा सकता था और उन्हें पहले की अपेक्षा काफी कम मुआवजा नौकरी जाने पर मिलती।
तत्काल गुजरात सरकार श्रम कानूनों में अभूतपूर्व सुधारों का डंका पीट रही है और उसका दावा है कि मजदूरों को इन सुधारों के कारण काफी फायदा हुआ है। साइमन डिकिन और अंतरा हाल्दर ने 21 मार्च 2015 को ''इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकलीÓÓ में एक विशेष लेख ''हाऊ शुड इंडिया रिफॉर्म इट्स लेबर लॉज 2ÓÓ शीर्षक से प्रकाशित किया है जिसमें मोदी के गुजरात मॉडल का विश्लेषण किया गया है। उनका मानना है कि गुजरात मॉडल को लेकर काफी विवाद है। लोकसभा चुनाव के दौरान इस मॉडल के समर्थकों ने उद्योग और निवेश तथा आधारभूत ढांचा और बिजली को इस मॉडल की मुख्य विशेषताएं बतलाईं। यह दावा किया गया कि वर्ष 2001-2004 के दौरान प्रतिवर्ष औद्योगिक विकास 3.95 प्रतिशत था जो बढ़कर 2005-2009 के दौरान 12.65 प्रतिशत प्रतिवर्ष पर पहुंच गया। कृषि के क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि बिजली, पानी और सड़क निर्माण का परिणाम थी। यह भी दावा किया जाता है कि 2001 और 2010 के बीच कृषि उत्पादन में वृद्धि 10.97 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण को लेकर कई दावे किए गए हैं मगर वे विवादों के घेरे में हैं।
गुजरात कई बड़े औद्योगिक घरानों का ठिकाना बन गया है। रिलायंस, एस्सार, अडानी और टाटा ने गुजरात में काफी निवेश किया है। हम गुजरात मॉडल की तुलना केरल मॉडल से कर सकते हैं। केरल में मानव कल्याण पर काफी जोर रहा है। वहां शत प्रतिशत साक्षरता है। महिला सशक्तिकरण पर विशेष जोर रहा है। साथ ही साम्प्रदायिक सौहाद्र्र रहा है। इसके विपरीत गुजरात मॉडल में जोर संवृद्धि दर पर रहा है। मानवीय कल्याण की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। हम आदिवासियों की स्थिति और महिला सशक्तिकरण को देख सकते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य पर वैसा ध्यान नहीं दिया गया है जितना केरल में दिया जाता रहा है। याद रहे कि सेन-भगवती विवाद की जड़ में यही रहा है। इस संदर्भ में हम 2013 में प्रकाशित ड्रेज और सेन तथा 2012 में छपे भगवती और पानागढिय़ा के लेखों को देख सकते हैं।
गुजरात मॉडल का जोर कानून के शासन और डिरेगुलेशन पर रहा है। केन्द्र में शासन में आने के बाद श्रम संबंधी कानूनों में बदलाव लाने की बात की जा रही है। श्रम कानूनों को लागू करवाने के लिए नियुक्त इंस्पेक्टरों के अधिकारों और हस्तक्षेप को कम करने की बात चर्चा में है। अब तक औद्योगिक विवाद से जुड़े कानून में फेरबदल का कोई विस्तृृत प्रस्ताव सामने नहीं आया है। हो सकता है आने वाले समय में इस दिशा में कदम उठाए जाएं।
कुछ लोगों का मानना है कि गुजरात मॉडल की सफलता स्थानीय कारणों तथा स्थितियों पर निर्भर रही है। यहां पर कहा जा सकता है कि उद्यमिता की लंबी परंपरा और गुजरात की भौगोलिक स्थिति का गुजरात मॉडल के पीछे भारी हाथ रहा है। ये दोनों तत्व अन्य राज्यों में काफी कुछ अनुपस्थित हैं।
कई लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना वांछनीय है। यह माडल भूमि, श्रम और ऋण-व्यवस्था में सुधार पर आधारित है। कार्ल पोलान्यी की 1944 में प्रकाशित पुस्तक ''द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेंशन : द पोलिटिकल एंड इकॉनामिक ओरिजिंस ऑफ आवर टाइमÓÓ में रेखांकित किया गया है कि भूमि, श्रम और मुद्रा को विशुद्ध माल के रूप में नहीं देखा जा सकता। बाजार अर्थव्यवस्था की रचना के लिए सिर्फ सरकारी नियंत्रण को हटाना ही आवश्यक नहीं है बल्कि सांस्थानिक क्षमता के निर्माण की जरूरत है। इस संदर्भ में हम गुजरात मॉडल को लें तो उसकी क्या विशेषता है यह स्पष्ट नहीं है। वह उदारीकरण और डिरेगुलेशन की बात करता है और संयंत्रों को स्थान विशेष पर लगाने के लिए सब्सिडी•ा का आश्वासन देता है जो अस्थायी उपाय है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि गुजरात के डिरेगुलेटरी दृष्टिकोण से संवृद्धि की गारंटी हो सकती है। गुजरात के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र को देख सकते हैं जिसकी अर्थव्यवस्था ने गुजरात के मुकाबले तेजी से प्रगति की है और आगे बढ़ा है। गुजरात मॉडल में ऐसी कोई बात नहीं है जो अद्वितीय संवृद्धि के मार्ग पर ले जाय। गुजरात मॉडल को लेकर यह प्रश्न उठता है कि यदि संवृद्धि की दर बढ़ती है तो समाज के विभिन्न वर्गों को उसका किस हिसाब से फायदा मिलता है। उदाहरण के लिए उसका कितना हिस्सा श्रम को प्राप्त होता है और स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला साक्षरता और शिशु मृत्यु को रोकने पर कितना खर्च होता है। कहना न होगा कि उपर्युक्त मदों पर गुजरात में खर्च बहुत कम होता है। मानवीय विकास की दृष्टि से गुजरात में बहुत कम व्यय होता है। यही कारण है कि वह अल्प विकसित राज्यों की कोटि में आता है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार गुजरात में डॉक्टरों की कमी 34 प्रतिशत है जबकि सारे देश में यह आंकड़ा 10 प्रतिशत है। वर्ष 2013 के आकलन के अनुसार गुजरात में तीन में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।
इसलिए यह कहना कि देश में श्रम संबंधी कानून ही विदेशी निवेश के आने के मार्ग में बाधक है सर्वथा गलत है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि निवेश को काफी हद तक कर मुक्त करने तथा भरपूर सब्सिडी देने से वे यहां दौड़ते हुए आएंगे और प्रधानमंत्री के ''मेक इन इंडियाÓÓ के स्वप्न को साकार बनाएंगे।
श्रमिकों को मिलने वाली सुरक्षा को पूरी तरह समाप्त करने से विदेशी निवेशक धड़ल्ले से आएंगे। सच्चाई यह है कि उनकी दिलचस्पी रोजगार बढ़ाने में कतई नहीं है। वे पूंजी-प्रधान तकनीक का इस्तेमाल करना चाहते हैं।
कई लोगों का मानना है कि यदि श्रम कानूनों में छोटे-मोटे नहीं, बल्कि आद्योपांत बदलाव कर दिए जाए तो अन्य देशों की अपेक्षा यहां श्रम सस्ता होने के कारण निवेशकर्ता खिंचे चले आएंगे। जिससे हमारा उत्पादन और व्यापार तेजी से बढ़ेगा। वर्ष 1947 में औद्योगिक विवाद एक्ट बना। वर्ष 1976 में उसमें संशोधन हुआ। इसके बाद मजदूरों को निकाल पाना पहले से कहीं अधिक कठिन हो गया। निवेशकों का कहना है कि उनको ''हायर और फायरÓÓ की पूरी आजादी न होने के कारण वे यहां अपनी पूंजी नहीं लगा पाते। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में कार्यरत् अर्थशास्त्री साइमन डिकिन और अंतरा हाल्दर का मानना है कि ''देश के स्तर पर श्रम का लचीलापन आर्थिक विकास की पर्याप्त शर्त नहीं है, और यहां तक कि वह आवश्यक शर्त भी नहीं है।ÓÓ इसके बदले ऐसे संस्थान विकसित किए जाने चाहिए जो श्रम बाजार से जुड़़ी जोखिमों पर ध्यान दें।
मारग्रेट थैचर और रोनाल्ड रीगन के आगमन के बाद नवउदारवाद का डंका बजा। जॉन विलियम्सन ने ''वाशिंगटन आम रायÓÓ के दस बिंदुओं को प्रस्तुत किया जिनके पीछे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, गार और अमेरिकी ट्रेजरी डिपार्टमेंट का समर्थन था। उन दस बिंदुओं में श्रम कानूनों को समाप्त कर ''हायर और फायरÓÓ के लिए मार्ग प्रशस्त करना शामिल था। कहा गया कि पूंजी और श्रम के बीच विवाद में सरकार को नहीं पडऩा चाहिए और उसको हस्तक्षेप की नीति से दूर रहना चाहिए। यह धारणा प्रभावी थी कि यदि बाजार में कोई हस्तक्षेप न हो तो देर-सबेर वह संतुलन की अवस्था में आ जाएगा। कोई भी बाहरी हस्तक्षेप आर्थिक कल्याण के ऊपर नकारात्मक प्रभाव डालेगा। स्पष्ट है कि सरकार तदस्थ रहे और श्रमिकों और पूंजी के विवाद में कोई हस्तक्षेप न करे।
16 मई 2014 को नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने और इसके साथ ही विकास का ''गुजरात मॉडलÓÓ चर्चा में आया। चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कहा कि सत्ता में आते ही जैसे उन्होंने अपने गृह राज्य गुजरात को विकसित किया है वैसे ही सारे भारत को बड़ी तेजी से विकास और आर्थिक समृद्धि के मार्ग पर बढ़ाएंगे। श्री मोदी गुजरात में एक दशक से अधिक समय तक सत्ता में रहे हैं और उनकी ख्याति व्यवसायियों के प्रति नरमी का रुख अपनाने को लेकर रही है। उन्होंने व्यवसायियों को सड़कें ही नहीं, बल्कि बन्दरगाह तक दिए हैं। बेहतर प्रशासन (जिसमें भ्रष्टाचार कम था और नौकरशाही पर सरकार का नियंत्रण था) दिया। जन विकास केंद्र के जरिए अफसरशाही का शिकंजा ढीला किया। जमीन और श्रम व्यवसायियों को उनकी दृष्टि से अनुकूल शर्तों पर दिए गए। गुजरात में विशेष आर्थिक जोन बनाकर देशी विदेशी निवेशकों को आकर्षित किया गया। बड़े पैमाने पर किसानों से बलात् जमीन लेकर उन्हें दी गई। वर्ष 2004 में गुजरात औद्योगिक विवाद (संशोधन)अधिनियम और साथ ही गुजरात विशेष आर्थिक जोन का कानून बना। विशेष आर्थिक जोन में अधिकतर राष्ट्रीय श्रम कानूनों को निष्प्रभावी बना दिया गया। उदाहरण के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम के भाग पांच बी को काफी कुछ निष्प्रभावी बना दिया गया। मजदूरों को आसानी से हटाया जा सकता था और उन्हें पहले की अपेक्षा काफी कम मुआवजा नौकरी जाने पर मिलती।
तत्काल गुजरात सरकार श्रम कानूनों में अभूतपूर्व सुधारों का डंका पीट रही है और उसका दावा है कि मजदूरों को इन सुधारों के कारण काफी फायदा हुआ है। साइमन डिकिन और अंतरा हाल्दर ने 21 मार्च 2015 को ''इकॉनामिक एंड पोलिटिकल वीकलीÓÓ में एक विशेष लेख ''हाऊ शुड इंडिया रिफॉर्म इट्स लेबर लॉज 2ÓÓ शीर्षक से प्रकाशित किया है जिसमें मोदी के गुजरात मॉडल का विश्लेषण किया गया है। उनका मानना है कि गुजरात मॉडल को लेकर काफी विवाद है। लोकसभा चुनाव के दौरान इस मॉडल के समर्थकों ने उद्योग और निवेश तथा आधारभूत ढांचा और बिजली को इस मॉडल की मुख्य विशेषताएं बतलाईं। यह दावा किया गया कि वर्ष 2001-2004 के दौरान प्रतिवर्ष औद्योगिक विकास 3.95 प्रतिशत था जो बढ़कर 2005-2009 के दौरान 12.65 प्रतिशत प्रतिवर्ष पर पहुंच गया। कृषि के क्षेत्र में उत्पादन की वृद्धि बिजली, पानी और सड़क निर्माण का परिणाम थी। यह भी दावा किया जाता है कि 2001 और 2010 के बीच कृषि उत्पादन में वृद्धि 10.97 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही। स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण को लेकर कई दावे किए गए हैं मगर वे विवादों के घेरे में हैं।
गुजरात कई बड़े औद्योगिक घरानों का ठिकाना बन गया है। रिलायंस, एस्सार, अडानी और टाटा ने गुजरात में काफी निवेश किया है। हम गुजरात मॉडल की तुलना केरल मॉडल से कर सकते हैं। केरल में मानव कल्याण पर काफी जोर रहा है। वहां शत प्रतिशत साक्षरता है। महिला सशक्तिकरण पर विशेष जोर रहा है। साथ ही साम्प्रदायिक सौहाद्र्र रहा है। इसके विपरीत गुजरात मॉडल में जोर संवृद्धि दर पर रहा है। मानवीय कल्याण की ओर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया है। हम आदिवासियों की स्थिति और महिला सशक्तिकरण को देख सकते हैं। महिलाओं के स्वास्थ्य पर वैसा ध्यान नहीं दिया गया है जितना केरल में दिया जाता रहा है। याद रहे कि सेन-भगवती विवाद की जड़ में यही रहा है। इस संदर्भ में हम 2013 में प्रकाशित ड्रेज और सेन तथा 2012 में छपे भगवती और पानागढिय़ा के लेखों को देख सकते हैं।
गुजरात मॉडल का जोर कानून के शासन और डिरेगुलेशन पर रहा है। केन्द्र में शासन में आने के बाद श्रम संबंधी कानूनों में बदलाव लाने की बात की जा रही है। श्रम कानूनों को लागू करवाने के लिए नियुक्त इंस्पेक्टरों के अधिकारों और हस्तक्षेप को कम करने की बात चर्चा में है। अब तक औद्योगिक विवाद से जुड़े कानून में फेरबदल का कोई विस्तृृत प्रस्ताव सामने नहीं आया है। हो सकता है आने वाले समय में इस दिशा में कदम उठाए जाएं।
कुछ लोगों का मानना है कि गुजरात मॉडल की सफलता स्थानीय कारणों तथा स्थितियों पर निर्भर रही है। यहां पर कहा जा सकता है कि उद्यमिता की लंबी परंपरा और गुजरात की भौगोलिक स्थिति का गुजरात मॉडल के पीछे भारी हाथ रहा है। ये दोनों तत्व अन्य राज्यों में काफी कुछ अनुपस्थित हैं।
कई लोग यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या गुजरात मॉडल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना वांछनीय है। यह माडल भूमि, श्रम और ऋण-व्यवस्था में सुधार पर आधारित है। कार्ल पोलान्यी की 1944 में प्रकाशित पुस्तक ''द ग्रेट ट्रांसफॉर्मेंशन : द पोलिटिकल एंड इकॉनामिक ओरिजिंस ऑफ आवर टाइमÓÓ में रेखांकित किया गया है कि भूमि, श्रम और मुद्रा को विशुद्ध माल के रूप में नहीं देखा जा सकता। बाजार अर्थव्यवस्था की रचना के लिए सिर्फ सरकारी नियंत्रण को हटाना ही आवश्यक नहीं है बल्कि सांस्थानिक क्षमता के निर्माण की जरूरत है। इस संदर्भ में हम गुजरात मॉडल को लें तो उसकी क्या विशेषता है यह स्पष्ट नहीं है। वह उदारीकरण और डिरेगुलेशन की बात करता है और संयंत्रों को स्थान विशेष पर लगाने के लिए सब्सिडी•ा का आश्वासन देता है जो अस्थायी उपाय है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि गुजरात के डिरेगुलेटरी दृष्टिकोण से संवृद्धि की गारंटी हो सकती है। गुजरात के पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र को देख सकते हैं जिसकी अर्थव्यवस्था ने गुजरात के मुकाबले तेजी से प्रगति की है और आगे बढ़ा है। गुजरात मॉडल में ऐसी कोई बात नहीं है जो अद्वितीय संवृद्धि के मार्ग पर ले जाय। गुजरात मॉडल को लेकर यह प्रश्न उठता है कि यदि संवृद्धि की दर बढ़ती है तो समाज के विभिन्न वर्गों को उसका किस हिसाब से फायदा मिलता है। उदाहरण के लिए उसका कितना हिस्सा श्रम को प्राप्त होता है और स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला साक्षरता और शिशु मृत्यु को रोकने पर कितना खर्च होता है। कहना न होगा कि उपर्युक्त मदों पर गुजरात में खर्च बहुत कम होता है। मानवीय विकास की दृष्टि से गुजरात में बहुत कम व्यय होता है। यही कारण है कि वह अल्प विकसित राज्यों की कोटि में आता है। केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार गुजरात में डॉक्टरों की कमी 34 प्रतिशत है जबकि सारे देश में यह आंकड़ा 10 प्रतिशत है। वर्ष 2013 के आकलन के अनुसार गुजरात में तीन में से एक बच्चा कुपोषण का शिकार है।
इसलिए यह कहना कि देश में श्रम संबंधी कानून ही विदेशी निवेश के आने के मार्ग में बाधक है सर्वथा गलत है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि निवेश को काफी हद तक कर मुक्त करने तथा भरपूर सब्सिडी देने से वे यहां दौड़ते हुए आएंगे और प्रधानमंत्री के ''मेक इन इंडियाÓÓ के स्वप्न को साकार बनाएंगे।
श्रमिकों को मिलने वाली सुरक्षा को पूरी तरह समाप्त करने से विदेशी निवेशक धड़ल्ले से आएंगे। सच्चाई यह है कि उनकी दिलचस्पी रोजगार बढ़ाने में कतई नहीं है। वे पूंजी-प्रधान तकनीक का इस्तेमाल करना चाहते हैं।
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