मरने वाले ग़रीब और मुसलमान ना होते तो?
- 10 अप्रैल 2015
एक दिन में 25 लोग मारे गए! अगर यह मौत किसी बम धमाके में हुई होती तो सारे टेलिविज़न चैनलों को बुख़ार आ गया होता.
लेकिन वे राज्य की गोलियों से हुईं. राज्य द्वारा नियुक्त पुलिस की गोलियों से.
विडम्बना यह है कि ये लोग दो नए गठित राज्यों में मारे गए. तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में. तो इन राज्यों में नया क्या है?
मारे गए लोग गरीब और मुसलमान थे, इसी क्रम से! बीस गरीब, पांच मुसलमान!
ऐसा कहने पर एक एंकर को ऐतराज था, "आप धर्म का नाम लेकर इसे साम्प्रदायिक रंग क्यों दे रहे हैं! कहिए, पांच अंडरट्रायल!"
एक फ़र्क और है. मारे गए बीस गरीब लकड़हारों के लिए सारी राजनीतिक पार्टियों ने विरोध किया, धरने हुए और जुलूस निकाले गए.
लेकिन यह सब कुछ हुआ तमिलनाडु में जहां से वे तिरुपति के करीब शेषाचलम के जंगलों में लाल चंदन के पेड़ काटने के लिए लाए गए थे.
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लाल चंदन को काटना ग़ैर क़ानूनी है. लेकिन वह विदेशों में चालीस से साठ लाख रुपये प्रति टन के हिसाब से बिकता है.
ज़ाहिर है, लाल चंदन की कटाई और तस्करी का एक पूरा अवैध उद्योग फल-फूल रहा है. वह बिना किसी राजनीतिक संरक्षण के चल रहा हो, असंभव है.
'इंडियन एक्सप्रेस' के जय मजुमदार ने बताया है कि ये हत्याएं एक पैटर्न का हिस्सा हैं. चंदन माफ़िया समूहों में प्रतिद्वंदिता है.
एक समूह का राजनीतिक संरक्षक जब भारी पड़ जाए तो वह दूसरे को निशाना बनाने के लिए स्पेशल टास्क फ़ोर्स की मदद लेता है.
नेशनल कैंपेन फ़ॉर डीनोटिफ़ाईड ट्राइब्स ह्यूमन राइट्स की जांच के मुताबिक़, पेड़ काटने को तमिलनाडु के क़रीबी इलाक़ों से अत्यंत दरिद्र लकड़हारे लाए जाते हैं.
वे प्रायः आदिवासी होते हैं. पाया गया है कि मारे गए आदिवासी अक्सर वनियार आदिवासी ही हैं. जो गिरफ़्तार होते हैं वे दूसरे आदिवासी समूह के होते हैं.
तस्करों को संरक्षण
अगर कभी माफ़िया से जुड़े स्थानीय अमीर पकड़े भी जाते हैं तो उन्हें राजमुंदरी केन्द्रीय कारागार में रखा जाता है, जहां से उन्हें आसानी से ज़मानत मिल जाती है.
दूसरी ओर, गिरफ़्तार आदिवासी लकड़हारों पर हत्या या हत्या की कोशिश के आरोप लगा दिए जाते हैं, जिससे उन्हें ज़मानत मिलना लगभग नामुमकिन हो जाता है.
यह सब कुछ इतना खुला है फिर भी आंध्र प्रदेश की सरकार और पुलिस अभी भी अड़ी है कि यह मुठभेड़ थी.
कि पुलिस ने अपनी हिफ़ाज़त में गोली चलाई जब उसपर इन 'तस्करों' ने हमला कर दिया.
ताज्जुब की पुलिस वालों में कोई ज़ख़्मी नहीं हुआ. क्या यह भी ताज्जुब की बात है कि जो मारे गए उनमें से कम से कम सात के चेहरे पर गोली मारी गई?
अख़बारों में छपी ख़बरों के मुताबिक़, ग़वाह शेखर ने अपने गांव वालों को बताया कि कम से कम सात को उसके सामने पुलिस बस से उतारकर ले गई थी. तो यह 'मौतें' पहले से तय थीं?
लेकिन विरोध सिर्फ तमिलनाडु में हुआ. आँध्रप्रदेश में नहीं. देश के दूसरे हिस्सों में नहीं!
न विरोध न प्रदर्शन
कोई राष्ट्रीय क्षोभ नहीं फूटा! किसी राष्ट्र ने इसका हिसाब किसी से नहीं माँगा.
दूसरे कांड का कहीं विरोध नहीं हुआ. 'फ़ॉइव स्टार एक्टिविस्टों' को अगर छोड़ दें. लेकिन उनकी चालों से प्रधानमंत्री ने अभी अभी हमारे न्यायाधीशों को ख़बरदार किया है. उनके मानवाधिकार के फंदे से बचे रहने की सलाह दी है.
आंध्र प्रदेश की पुलिस ने आदिवासी मारे. तेलंगाना की पुलिस ने मुसलमान मारे.
उनमें एक को छोड़ कर बाकी सब उसी राज्य के थे. लेकिन उनकी मौत पर कोई विरोध न हुआ.
'मजलिसे इत्तहादुल मुसलेमीन' के असद ओवैसी के अलावा उनके मानवाधिकार के लिए बोलने को कोई सामने न आया. और ओवैसी के बोलते ही बात साम्प्रदायिक हो जाती है!
टेलिविज़न एंकर की नाक सिकुड़ जाती है कि वे मारे गए लोगों के धर्म का ज़िक्र क्यों कर रहे हैं!
आदिवासी और मुसलमान
आदिवासी जंगल में थे. मुसलमान पुलिस की गाड़ी में, ट्रैफिक के बीच. अदालती कार्रवाई के लिए पुलिस उन्हें लिए जा रही थी. सत्रह पुलिस वाले थे.
आरोप है कि एक क़ैदी लगातार गाली दे रहा था और पुलिस वालों पर थूक रहा था. बाकी चार भी उग्र थे, घूर रहे थे और थूक रहे थे. फिर भी पुलिसवालों ने संयम बनाए रखा था.
क़ैदियों में से दो रियाज़ और विकारुद्दीन ने बीच में पेशाब की इच्छा जताई. रिज़र्व सब इंस्पेक्टर उदय भास्कर ने उनकी हथकड़ी खोली और उनके साथ बाहर गया.
जब वे लौटे और वह वापस उन्हें हथकड़ी लगाने लगा तो विकारुद्दीन ने उसकी एके-56 राइफल छीन ली. बाकी क़ैदी भी उनपर टूट पड़े. तब जाकर पुलिस को उनपर गोली चलानी पड़ी.
क्या आपको यह कहानी लगती है? क्या आप नहीं जानते कि 'सिमी' के 'दहशतगर्द' कितने ख़तरनाक होते हैं! क्या सत्रह भले पुलिसवाले पांच ख़ूंख़ार 'आतंकवादियों' पर काबू पा सकते हैं?
सवाल तो लेकिन होगा ही. सत्रह में सिर्फ एक ही दो क़ैदियों की हथकड़ी खोल कर उन्हें पेशाब कराने क्यों ले जाया गया?
पुलिस की कहानी
वह अकेले ही उनकी हथकड़ी वापस लगा रहा था? बाद में कहा गया कि बाकी तीन ने भी पेशाब की इजाज़त माँगी और उनकी भी हथकड़ी खोल दी गई.
विकारुद्दीन ने इसी वक़्त हमला कर दिया. एक साथ पाँचों की हथकड़ियाँ हमारे भोले पुलिस वालों ने खोल दीं? पांच 'ख़तरनाक' 'दहशतगर्दों' की, एक ही साथ?
ये सवाल लेकिन राष्ट्र शायद ही पूछे! यह बात दीगर है कि जिनकी ह्त्या हुई, उनका मुक़दमा लगभग अंतिम चरण में था और एकाध महीने में फ़ैसला आ जाता.
तब तय होता या शायद तब भी नहीं कि वे 'दहशतगर्द' थे या नहीं, उन्होंने आतंकवादी हमले किए थे या नहीं!
क्या इसका अंदेशा था कि वे बच जाएंगे, वैसे ही जैसे बहुत से मुसलमान दस-पन्द्रह बरस जेल में गुजारने के बाद बचकर निकल गए हैं? क्या इस 'मौत' के पीछे यही डर था?
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